
कर्नाटक चुनाव में हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन देखने को मिल जाता है. पिछले 38 सालों से राज्य की राजनीति में ये ट्रेंड सेट हो चुका है. सरकार किसी की भी हो, सत्ता में कोई भी हो, पांच साल के बाद जनता परिवर्तन करवा ही देती है. अब कहने को कर्नाटक दक्षिण का राज्य है, यहां की राजनीति उत्तर भारत या कह लीजिए हिंदी पट्टी वाले राज्यों से बिल्कुल अलग है, लेकिन क्योंकि अकेले एक ही राज्य में चुनाव हो रहे हैं, ऐसे में सभी की नजर इस पर रहने वाली है.
ट्रेंड बनेगा या ट्रेंड टूटेगा?
कर्नाटक में इस समय बीजेपी की सरकार है, बसवराज बोम्मई मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हुए हैं. पार्टी ने येदियुरप्पा को हटा उन्हें राज्य की कमान सौंपी है. सरकार चलाते हुए ज्यादा समय नहीं हुआ है, लेकिन दांव पर सबकुछ लगा है. उन्हीं का चेहरा आगे कर पार्टी 38 साल पुराने ट्रेंड को बदलना चाहती है. दूसरी तरफ कांग्रेस खड़ी है जिसे ज्यादा कुछ नहीं करना है, सिर्फ अंदरूनी गुटबाजी पर काबू पाना है और पुराने ट्रेंड पर थोड़ा निर्भर रहना है, ऐसा कर वो अपने सियासी वनवास को खत्म कर सकती है. लेकिन वर्तमान में चुनौती बीजेपी के लिए ज्यादा बड़ी है, क्योंकि एक तरफ से उसके पीछे 38 साल पुराना सत्ता परिवर्तन वाला ट्रेंड साय की तरह चल रहा है तो दूसरी तरफ एंटी इनकम्बेंसी भी चुनौती बढ़ा रही है.
बीजेपी की क्या रणनीति?
इस बार कर्नाटक में बीजेपी के लिए सबकुछ सही रहे, इसलिए पार्टी हाईकमान अपने दो सबसे बड़े चेहरों पर पूरा फोकस दे रही है- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह. अभी तक पीएम नरेंद्र मोदी दो महीने के अंदर में सात बार राज्य का दौरा कर चुके हैं. इन दो महीनों में उन्होंने बेंगलुरू-मैसूर एक्सप्रेस वे, धरवाड में IIT कैंपस, शिवमोगा में ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट का उद्घाटन किया है. नारा दिया गया है कि डबल इंजन सरकार के फायदे चाहिए तो फिर बीजेपी की सरकार आनी चाहिए. इस समय पार्टी को अपनी तीन योजनाओं पर पूरा भरोसा है. उन्हीं के दम पर वो हर तबके का दिल जीतना चाहती है. इसमें प्रधानमंत्री जन सुरक्षा योजना, आयुष्मान भारत और जन आवाज योजना शामिल है. पार्टी का दावा है कि इन योजनाओं के जरिए कर्नाटक के चार करोड़ से ज्यादा लोगों को सीधा लाभ पहुंचाया गया है.
अलग पार्टी-अलग क्षेत्र, वर्चस्व की कहानी
लेकिन सिर्फ इन योजनाओं के दम पर बीजेपी सत्ता वापसी की उम्मीद लगाए नहीं बैठ सकती है. कर्नाटक की जैसी सियासत है, यहां पर जातीय समीकरण साधना जरूरी रहता है. इस जातीय समीकरण की वजह से ही राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग पार्टियों का वर्चस्व देखने को मिला है. इसे ऐसे समझ सकते हैं कि ओल्ड मैसूर इलाके में लंबे समय से जेडीएस का दबदबा रहा है. पिछले विधानसभा चुनाव में यहां की 37 सीटों में से 30 पर जेडीएस की जीत हुई थी. इस बार भी अगर जेडीएस को किंगमेकर बनना है तो उसे अपने इसी परफॉर्मेंस को फिर ओल्ड मैसूर में दोहराना होगा. वहीं बीजेपी की बात करें तो उसका इस इलाके में प्रदर्शन हमेशा से कमजोर रहा है. ये ट्रैक रिकॉर्ड वो पिछले चुनाव में भी नहीं सुधार पाई थी. कर्नाटक में अकेले ओल्ड मैसूर और बेंगुलुरू सिटी से 89 सीटें निकलती हैं, लेकिन यहां पर बीजेपी का प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा था. अब अगर पार्टी राज्य में पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाना चाहती है, उसे इन इलाकों में अच्छा करना ही पड़ेगा.
आरक्षण वाला दांव, सियासी या कुछ और?
अभी के लिए ओल्ड मुंबई, ओल्ड हैदराबाद और सेंट्रल कर्नाटक में बीजेपी का प्रदर्शन ठीक रहा है, पिछली बार भी 100 का आंकड़ा पार पार्टी इन्हीं इलाकों की वजह से कर पाई थी. अब इन इलाकों को दुरुस्त रखते हुए जेडीएस के गढ़ में बेहतर करना पार्टी के लिए चुनौती रहने वाला है. वैसे भी बीजेपी राज्य में 100 का आंकड़ा भी सिर्फ दो मौके पर ही पार कर पाई है, पहला 2008 में और दूसरा 2018 में. अब उस ट्रेंड को बदलने के लिए इस बार पार्टी ने चुनाव तारीखों के ऐलान से चार दिन पहले आरक्षण वाला बड़ा सियासी दांव चला. ऐलान किया गया कि राज्य में मुस्लिमों को ओबीसी कैटेगरी के तहत मिलने वाला 4 फीसदी आरक्षण समाप्त कर दिया गया. इसकी जगह लिंग्यात और वोक्कालिगा को वो आरक्षण का लाभ देने की बात हुई. सरकार का तर्क है कि EWS के तहत मुस्लिमों को आरक्षण दिया जाएगा. अब ये सिर्फ एक फैसला नहीं है, बल्कि चुनावी मौसम में बीजेपी का जातियों को साधने का बड़ा दांव है.
भ्रष्टाचार का मुद्दा, किस पर पड़ेगा भारी?
ये अलग बात है कि कांग्रेस इसे जल्दी में लिया गया एक फैसला मान रही है जिसे अभी तक केंद्र का अप्रूवल नहीं मिला है. पार्टी का कहना है कि चुनाव में इस आरक्षण वाले फैसले का कोई असर नहीं दिखने वाला है. अब असल नतीजे क्या रहते हैं ये तो 13 मई को साफ होगा, लेकिन बीजेपी के खिलाफ भी कर्नाटक में एक माहौल बन रहा है. 40% कमीशन वाला ऐसा आरोप है जो चर्चित भी है और सभी समय-समय पर इसका जिक्र भी कर रहे हैं. ऐसे में भ्रष्टाचार का ये मुद्दा बीजेपी के लिए चुनौती है तो कांग्रेस के लिए अवसर.
अब कांग्रेस को इस भ्रष्टाचार वाले मुद्दे के साथ अपने वोट शेयर पर भी ध्यान देना पड़ेगा. पिछला चुनाव बताता है कि ज्यादा वोट शेयर के बावजूद भी कांग्रेस की सीटें कम रही थीं और कम वोट शेयर के साथ बीजेपी ने सीटों का शतक लगाया था. इसका कारण ये है कि पूरे कर्नाटक में कांग्रेस का वोट शेयर समान रूप से फैला हुआ है, वहीं बीजेपी का कुछ इलाकों में स्पष्ट दबदबा है. इस वजह से होता ये है कि कई सीटों पर मामूली अंतर से बीजेपी बढ़त बना लेती है और वो सीट उसकी झोली में जाती है.
38 साल पुराना किस्सा, जब नहीं बदली सरकार
वैसे सभी के मन में तो सवाल ये है कि क्या 38 साल वाली सत्ता परिवर्तन की परंपरा जारी रहने वाली है या इस बार इसमें कुछ खेल होगा. एक खेल 1985 में जरूर हुआ था जब लगातार दूसरी बार जनता पार्टी ने कर्नाटक में अपनी सरकार बनाई थी. तब रामाकृष्णा हेगड़े मुख्यमंत्री थे और उन्होंने राज्य की पहली गैर कांग्रेसी सरकार का नेतृत्व किया था. लेकिन उसके बाद राज्य में कभी किसी सरकार ने खुद को रिपीट नहीं किया और 1989 के बाद से मन मुताबिक राज्य में मुख्यमंत्री लाइन से बदलते रहे. अब इस बार ये 38 साल पुराना ट्रेंड फिर जारी रहता है या बीजेपी इतिहास रचने का काम करती है, 13 मई को नतीजे सब बता देंगे.
रामकृष्ण उपाध्याय की रिपोर्ट