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कर्नाटक में कुमारस्वामी... किंग या किंगमेकर बनेंगे या फिर रहेंगे किनारे?

कर्नाटक चुनाव में जेडीएस की इस बार क्या स्थिति रहेगी, फिर किंगमेकर बनेगी या फिर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ेगी, ये सवाल राजनीतिक गलियारे में लंबे समय से चल रहा है. खुद कुमारस्वामी भी खुद को इस स्थिति में रखना चाहते हैं कि एक बार फिर राज्य में सरकार बनाने में उनका योगदान जरूर रहे.

एचडी कुमारस्वामी एचडी कुमारस्वामी
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली,
  • 30 मार्च 2023,
  • अपडेटेड 5:17 PM IST

कर्नाटक विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो गया है. बीजेपी अपनी सरकार को बचाए रखने की जंग लड़ रही है तो  कांग्रेस सत्ता में वापसी में जुटी है, लेकिन निगाहें जेडीएस पर टिकी हैं. एचडी कुमारस्वामी 'पंचतंत्र यात्रा' के जरिए एक बार फिर से जेडीएस को किंगमेकर बनाने की जद्दोजहद कर रहे हैं, लेकिन जिस तरह उनके कोर वोटबैंक वोक्कालिगा समुदाय पर बीजेपी और कांग्रेस साध रहे हैं, ऐसे में कुमारस्वामी के सामने अपने सियासी वजूद को बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है. देखना है कि जेडीएस इस बार अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ेगी या फिर सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखेगी? 

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जेडीएस कब-कब किंगमेकर बनी

बता दें जनता दल से अलग होकर जेडीएस का गठन पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने 1999 में किया था. पिछले ढाई दशक में जेडीएस कभी भी अपने दम पर सरकार नहीं बना पाई है. हालांकि, इतनी सीटें जीतने में जरूर सफल रहती है कि उसके समर्थन के बिना राज्य में किसी के लिए सरकार बनाना मुश्किल होता है. जेडीएस अलग-अलग समय पर बीजेपी-कांग्रेस के साथ सत्ता का स्वाद चखती रही है और देवगौड़ा के बेटे कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बनते रहे हैं.  

2004 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था. बीजेपी 79 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी और कांग्रेस के हिस्से में 65 सीटें आई थी. वहीं, जेडीएस 58 सीटें जीतकर किंगमेकर बनी. ऐसे में कांग्रेस और जेडीएस ने मिलकर सरकार बनाई, लेकिन करीब पौने दो साल के बाद कुमारस्वामी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन तोड़कर बीजेपी से हाथ मिला लिया.

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जेडीएस ने फरवरी 2006 में बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई और कुमारस्वामी पहली बार मुख्यमंत्री बने. कुमारस्वामी 20 महीने सरकार चलाने के बाद जब बीजेपी की बारी आई तो गठबंधन तोड़ लिया. वहीं, 2018 विधानसभा चुनाव में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था. ऐसे में कांग्रेस ने बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए जेडीएस के साथ हाथ मिलाया और कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी. 14 महीने बाद कांग्रेस और उनकी पार्टी के विधायकों की बगावत के चलते उन्हें सत्ता से बेदखल होना पड़ा. 

चुनाव दर चुनाव होती कमजोर JDS

कर्नाटक में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बनने से कुमारस्वामी की किस्मत बुलंद होती रही है, लेकिन जेडीएस का ग्राफ चुनाव दर चुनाव गिरता जा रहा है. जेडीएस अपने राजनीतिक इतिहास में सबसे अच्छा प्रदर्शन 2004 के विधानसभा चुनाव में कर सकी है, जब उसे 58 सीटें मिली थीं. इसके बाद 2013 विधानसभा चुनाव में जेडीएस को 18 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा और उसके खाते में महज 40 सीटें आईं. इसके बाद साल 2018 के चुनाव में जेडीएस 40 से घटकर 37 सीटें पर आ गई. इस तरह से जेडीएस की सीटें हर चुनाव में घट रही हैं और इस बार जिस तरह का चुनावी मुकाबला है, उस लिहाज से जेडीएस के लिए अपने अस्तित्व को बचाए रखने की चुनौती है. 

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जेडीएस के वोटबैंक पर विपक्ष की नजर

जेडीएस के संस्थापक एचडी देवगौड़ा वोक्कालिगा समुदाय से आते हैं. वोक्कालिगा समुदाय को जेडीएस का कोर वोटबैंक माना जाता है. वोक्कालिगा बहुल ओल्ड मैसूर इलाके में ही जेडीएस का सारा सियासी आधार है. इसीलिए जेडीएस इसी क्षेत्र से सीटें जीतने में कामयाब रहती है. पिछले चुनाव में भी जेडीएस 37 में से 30 सीटें ओल्ड मैसूर क्षेत्र से जीती थी. वोक्कलिगा समुदाय का 60 फीसदी से ज्यादा वोट उसे मिले थे, लेकिन अब इस वोटबैंक पर उसकी पकड़ धीरे-धीरे कम होती जा रही है और कांग्रेस की मजबूत. 

जेडीएस के कमजोर होने के पीछे सबसे बड़ी वजह कर्नाटक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार हैं, जो खुद भी वोक्कालिगा समुदाय से आते हैं. वोक्कालिगा समुदाय के बीच उन्होंने अपनी मजबूत पकड़ बनाई है और कांग्रेस की सत्ता में वापसी होती है तो मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदारों में से एक हैं. इसके चलते वोक्कालिगा समाज का झुकाव कांग्रेस के प्रति हो रहा है. 

वहीं, बीजेपी की नजर भी वोक्कालिगा समुदाय के वोटों और ओल्ड मैसूर पर है, जहां पार्टी अपनी पैठ जमाने की कोशिशों में जुटी है. केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने ओल्ड मैसूर इलाके से ही कर्नाटक चुनाव अभियान का आगाज कर वोक्कालिगा वोटों को साधने की कवायद की थी. हाल ही में बीजेपी सरकार ने राज्य में मुस्लिमों के मिलने वाले 4 फीसदी आरक्षण को खत्म कर लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय के बीच 2-2 फीसदी बांट दिया है. ऐसे में जेडीएस को अपने वोटबैंक को बचाए रखने की चुनौती है? 

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कुमारस्वामी कैसे बचाएंगे किला? 

जेडीएस प्रमुख कुमारस्वामी के सामने अपने दुर्ग को बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है. ओल्ड मैसूर इलाके में 66 सीटें आती हैं, जिनमें से जेडीएस आधी या उससे ज्यादा सीटें जीतती रही है, लेकिन जिस तरह से वोक्कालिगा समुदाय को जोड़ने की कोशिश कर रही है, उससे जेडीएस के लिए संकट खड़ा हो गया है. यही वजह है कि एचडी कुमारस्वामी अपनी 'पंचतंत्र यात्रा' के दौरन ये घूम-घूमकर बता रहे हैं कि वह कन्नड अस्मिता की लड़ाई लड़ रहे हैं. जेडीएस वोक्कालिगा बहुल मैसूर क्षेत्र और उत्तरी कर्नाटक के कुछ चुनिंदा सीटों पर फोकस कर रही है. 

जेडीएस इस बार के चुनाव में राज्य की सभी 224 सीटों पर फोकस करने के बजाय 123 सीटों को चिंहित कर मजबूती से चुनाव लड़ने की रणनीति बनाई है. पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा अपने खराब स्वास्थ की वजह से चुनावी प्रचार में ज्यादा सक्रिय नहीं हैं. ऐसे में पार्टी का सारा दारोमदार कुमारस्वामी पर है और जेडीएस के पास दूसरे पंक्ति के कई बड़े नेता नहीं हैं, जो पार्टी के पक्ष में वोट दिलवा सके. ऐसे में जेडीएस के लिए अपने सियासी अस्तित्व को बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है. देखना है कि कुमारस्वामी कैसे कांग्रेस और बीजेपी के बीच सिमटते चुनाव में किंगमेकर बनकर उभरते हैं?

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