
पश्चिम बंगाल समेत 4 राज्यों (केरल, तमिलनाडु, असम) और एक केंद्र शासित प्रदेश (पुडुचेरी) के लिए विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है. चुनावों की तारीखों के ऐलान के बाद अब सबको 2 मई का इंतजार है क्योंकि इसी दिन मतगणना होगी. 2 मई को ही पता चल पाएगा कि जनता ने इन चुनावों में किसके वादों पर भरोसा किया और उसे सत्ता के शीर्ष पर पहुंचाया.
2 मई आने में अभी काफी वक्त है. इससे पहले एबीपी न्यूज और सी-वोटर ने ओपिनियन पोल के जरिए यह जानने की कोशिश की कि पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में किसकी सरकार बनने के आसार हैं. ओपिनियन पोल इशारा करते हैं कि इस बार तीन राज्यों में जनता मौजूदा सरकार के पक्ष में ही फैसला दे सकती है. सी- वोटर का सर्वे बताता है कि पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल में मौजूदा सरकारें लौट सकती हैं.
केरल को लेकर यह है सर्वे का दावा
ओपिनियन पोल में दावा किया गया है कि केरल में सीपीआई (एम) की अगुवाई वाली लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) के खाते में इस बार 83-91 सीटें जाने की संभावना है और कांग्रेस की अगुवाई वाली यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) को 47 से 55 सीटों पर संतोष करना पड़ सकता है. वहीं बीजेपी के खाते में 0 से 2 सीटें जा सकती हैं. वोट प्रतिशत के आधार पर एलडीएफ को 40 फीसदी तो यूडीएफ को 33 फीसदी वोट मिल सकते हैं. बीजेपी को 13 फीसदी वोट मिलने का अनुमान है.
दावा हुआ सही तो 1977 के बाद ऐसा होगा पहली बार
दक्षिण भारत का यह राज्य राजनीतिक रूप से काफी संवेदनशील माना जाता है. ओपिनियन पोल के इस दावे पर अगर जनता की मुहर लग जाती है और 2 मई को वोटों की गिनती के बाद आए परिणामों में यह दावा सही साबित होता है तो 1977 के बाद यह पहली बार होगा जब केरल में कोई सरकार सत्ता वापसी करेगी. बता दें कि केरल की जनता ने इससे पहले केवल 1977 में ही मौजूदा सरकार के पक्ष में मतदान किया था. इसके अलावा हर चुनावों में केरल की जनता ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल सत्ता परिवर्तन के लिए ही किया है.
1977 के चुनावों में हुई थी यूनाइटेड फ्रंट की वापसी
1970 में चौथी विधानसभा के लिए हुए चुनावों के बाद सीपीआई के नेता अच्युत मेनन ही मुख्यमंत्री बने थे. यही नहीं केरल के लिए अच्युत मेनन का यह कार्यकाल एक रिकॉर्ड से कम नहीं था क्योंकि केरल के राजनीतिक इतिहास में पहली बार किसी सरकार ने बिना किसी उठापठक के अपना कार्यकाल पूरा किया था.
1977 में केरल की पांचवी विधानसभा के लिए हुए चुनावों में कुल 140 सीटों में से यूनाइटेड फ्रंट को 103 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. जबकि विपक्ष को 28 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था. 9 सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने विजय पताका फहराई थी.
पांचवी विधानसभा में 25 मार्च 1977 को पहले यूनाइटेड फ्रंट की तरफ से कांग्रेस के करुणाकरण मुख्यमंत्री बने फिर 27 अप्रैल को एके एंटनी सीएम बनाए गए. लेकिन अक्टूबर 1978 में उन्हें भी सत्ता की गद्दी से त्यागपत्र देना पड़ा. जिसके बाद 29 अक्टूबर को सीपीआई के पीके वासुदेव नायर मुख्यमंत्री बने लेकिन वे भी अक्टूबर 1979 तक ही उस पद पर रह सके. उनके बाद सत्ता मिली इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के सी एच मोहम्मद कोया को, जो 12 अक्टूबर 1979 से 1 दिसंबर 1979 तक सीएम रहे.
पहले बड़ी उठापटक वाली हुआ करती थी केरल की राजनीति
केरल का पहला विधानसभा चुनाव मार्च, 1957 में हुआ था और सीपीआई के ईएमएस नंबूदरीपाद पहले मुख्यमंत्री चुने गए थे. ये सरकार सिर्फ जुलाई, 1959 तक रह सकी. इसके बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. फरवरी, 1960 में केरल विधानसभा के लिए फिर से चुनाव कराए गए. इन चुनावों में कांग्रेस ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के साथ गठबंधन किया और जीत हासिल की.
चुनाव परिणामों के बाद प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता पीटी पिल्लई के नेतृत्व में सरकार का गठन किया गया. पिल्लई सितंबर 1962 तक पद पर बने रहे जिसके बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया. पिल्लई के बाद 26 सितंबर 1962 को राज्य की बागडोर कांग्रेस नेता आर शंकर को सौंपी गई. केरल के तीसरे सीएम आर शंकर का कार्यकाल भी लंबा नहीं रहा और 10 सितंबर 1964 को उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया.
जिसके बाद 1967 में तीसरी विधानसभा के लिए चुनाव हुए. चुनावों में ईएमएस नंबूदरीपाद पूर्ण बहुमत हासिल करके 6 मार्च 1967 को एक बार फिर मुख्यमंत्री बने. लेकिन 1 नवंबर 1969 को उन्होंने इस्तीफा दे दिया. उनके बाद सीपीआई नेता सी अच्युत मेनन मुख्यमंत्री बने. पहली बार कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने इस सरकार को समर्थन दिया था.
2016 के चुनावों के बाद ऐसी थी विधानसभा की स्थिति
2016 में केरल की 14वीं विधानसभा के लिए हुए चुनावों में जनता ने सत्ता परिवर्तन का फैसला लेते हुए एलडीएफ को राज्य की जिम्मेदारी सौंपी थी. चुनावों में एलडीएफ को कुल 23 सीटों की बढ़त के साथ कुल 91 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. जबकि सत्तारूढ़ यूडीएफ को चुनावों में 25 सीटों का नुकसान हुआ था और वह 47 सीटों पर सिमट गई थी. इन चुनावों में एनडीए (बीजेपी) के हाथ एक सीट लगी थी जबकि एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार जीता था.