
सक्रिय राजनीति में नए नए कदम रखने वाले जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने बिहार के बेगूसराय की लड़ाई को नौजवान बनाम ताकतवर की जंग बना दिया है. बिहार की यह एक ऐसी सीट है जहां महागठबंधन में दरारें दिखने लगीं, जब कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया यानी सीपीआई ने कन्हैया कुमार को अपना प्रत्याशी बना दिया. एनडीए उम्मीदवार और केंद्रीय मंत्री गिरिराज भी परेशान हैं और महागठबंधन के प्रत्याशी भी नाखुश.
गिरिराज सिंह बेगूसराय से चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे और अपनी पुरानी नवादा सीट पर वापस लौटना चाहते थे. उन्होंने आलाकमान को अपनी नाखुशी जाहिर भी कर दी थी लेकिन अमित शाह ने समझा बुझा कर उन्हें तैयार कर लिया. हालांकि कन्हैया ने केंद्रीय मंत्री के इस रुख का खूब मजाक उड़ाया. फेसबुक पर लिखे एक पोस्ट में कन्हैया ने कहा कि गिरिराज का व्यवहार उस बच्चे की तरह है जो होमवर्क पूरा नहीं होने की वजह से स्कूल न जाने की जिद पर अड़ा है. टीवी पर न्यूज देखकर पता लगा कि लोगों को फ्री में पाकिस्तान भेजने वाला बेगूसराय चुनाव लड़ने तक आने को तैयार नहीं है.
गिरिराज सिंह के लिए यह सीट ऐसी है जो न निगलते बन रही है न उगलते. गिरिराज की चिंता थोड़ी कम होगी क्योंकि आरजेडी के उम्मीदवार तनवीर हसन के उतरने के बाद मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है. वहीं गिरिराज इस बात से परेशान भी हैं कि अब कन्हैया की एंट्री से भूमिहार वोट बंट जाएंगे, जिस पर वो अब तक निर्भर थे. कन्हैया के मैदान में आने के पहले इतिहास और जाति समीकरण गिरिराज के साथ थे.
जातीय गणित
बेगूसराय के 19 लाख वोटरों में ऊंची जाति के भूमिहारों की संख्या लगभग 19 फीसदी है, जबकि दूसरे नंबर पर 15 फीसदी वोटरों के साथ मुसलमान हैं. 12 फीसदी यादव हैं और 7 फीसदी कुर्मी वोटर है. नीतीश की पार्टी का साथ मिलने के बाद बीजेपी को पूरा भरोसा था कि वो करीब 37 फीसदी वोटों पर कब्जा कर लेगी. ( भूमिहार 19%+ ऊंची जाति 11%+ कुर्मी 7%)
आरजेडी को भी पूरा भरोसा था कि जीत के वो भी करीब हैं और करीब 35 फीसदी वोट उन्हें भी मिल सकते हैं. (मुस्लिम 15 % + यादव 12%+ दलित 8%). दोनों गुटों को इस बात का भरोसा था कि 22% अन्य जातियों खास तौर पर महादलितों का वोट अगर उन्हें मिल जाता तो जीत पक्की हो जाती.
इतिहास
बेगूसराय के इतिहास में भूमिहार किस कदर छाये रहे इसका एक छोटा सा उदाहरण है कि पिछले 10 में से 9 बार लोकसभा में वहां से एक भूमिहार ही सांसद चुना गया. कन्हैया की एंट्री ने दोनों गठबंधनों के प्लान को मटियामेट कर दिया है, खासतौर पर नुकसान गिरिराज को होगा क्योंकि दोनों एक ही जाति से ताल्लुक रखते हैं.
अगर कुमार भूमिहारों का वोट काटने में कामयाब रहे तो इसका सीधा फायदा आरजेडी उम्मीदवार तनवीर हसन को मिलेगा. लेकिन आरजेडी के लिए भी ये आसान नहीं है. एक जमाने में बेगूसराय बिहार की औद्योगिक राजधानी मानी जाती थी. कल कारखानों की मौजूदगी के चलते वहां के राजनैतिक परिद्श्य में ट्रेड यूनियनों का बहुत महत्व था और वो काफी प्रभावशाली थे, वामदलों की इस इलाके में अच्छी पैठ है. हालांकि दशकों के खराब शासन, बंद होते कारखानों के चलते वामदलों की हालत कमजोर होती चली गई. आखिरी बार सीपीआई ने यहां 1967 में जीत दर्ज की थी.
हार के बावजूद सीपीआई हमेशा मुकाबले में बनी रही, 1967 के बाद से 3 बार वो दूसरे या तीसरे स्थान पर रहे. 2009 में भी सीपीआई का उम्मीदवार दूसरे स्थान पर था. 2014 के चुनाव में प्रचंड मोदी लहर में उसे 2 लाख वोट मिले. 2004 और 2009 में यहां से जेडीयू जीती जो उस वक्त एनडीए का हिस्सा थी लेकिन 2014 में वो एनडीए से अलग हो गई और बीजेपी ने ये सीट उनसे छीन ली.
इस बार कन्हैया कुमार कुछ भूमिहारों, दलितों और महादलितों का चेहरा बन सकते हैं.
भूमिहारों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए कन्हैया कुमार ये लगातार हवा बनाने की कोशिश में लगे हैं कि ये मुकाबला गिरिराज बनाम कन्हैया है. आरजेडी के उम्मीदवार तनवीर हसन भी ताल ठोक रहे हैं कि मुकाबला कन्हैया बनाम गिरिराज नहीं बल्कि गिरिराज का मुकाबला आरजेडी से है.
गिरिराज का दुख
गिरिराज बेगूसराय सीट पर नहीं लड़ना चाहते थे, बिहार से उनके मंत्रिमंडल के सभी साथियों राधा मोहन सिंह, आरके सिंह, रामकृपाल यादव और अश्विनी चौबे को उनके अपनी सीटों से ही टिकट मिल गया लेकिन गिरिराज अपना टिकट काटने से थोड़े आहत हुए.
पांच साल पहले बेगूसराय सीट पर पहली बार बीजेपी के भोला सिंह ने जीत दर्ज की थी. उन्होंने तनवीर हसन को 5 फीसदी वोटों से हराया था हालांकि तनवीर हसन और सीपीआई के उम्मीदवार राजेंद्र प्रसाद के बीच 16 फीसदी का अंतर था.
आरजेडी ने कन्हैया से किया किनारा
कई दिनों की टाल मटोल के बाद बिहार के महागठबंधन में लालू ने कन्हैया को सीट देने से इनकार कर दिया. सीपीआई कन्हैया के लिए टिकट मांगती रही लेकिन तेजस्वी ने ऐसा होने नहीं दिया. तेजस्वी नहीं चाहते कि सीपीआई एक बार फिर बिहार में अपनी उपस्थिति दर्ज कराए क्योंकि पार्टी के ज्यादातर वोट आरजेडी के खाते से ही कटेंगे. दूसरा तेजस्वी नहीं चाहते कि बिहार से कोई काबिल वक्ता राष्ट्रीय पटल पर चमके और भविष्य में उनसे मुकाबला करे.