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इलेक्टोरल बॉन्ड से और बढ़ी है चुनावी फंडिंग में अपारदर्शिता, विदेशी चंदा भी संभव

Electoral bonds opaque transparency सरकार ने पिछले साल इलेक्टोरल बॉन्ड की शुरुआत करते हुए यह दावा किया था कि इससे राजनीतिक चंदों में पारदर्श‍िता बढ़ेगी. लेकिन हकीकत में इसके विपरीत हुआ है. इस बॉन्ड से तो विदेशी स्रोत से भी चंदा आने की गुंजाइश बन गई है.

चुनावी चंदे की पारदर्श‍िता पर बने हुए हैं सवाल (फोटो: इंडिया टुडे) चुनावी चंदे की पारदर्श‍िता पर बने हुए हैं सवाल (फोटो: इंडिया टुडे)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 25 मार्च 2019,
  • अपडेटेड 11:55 AM IST

चुनावी फंडिंग व्यवस्था में सुधार के लिए सरकार ने पिछले साल इलेक्टोरल बॉन्ड की शुरुआत की है. सरकार ने इस दावे के साथ इस बॉन्ड की शुरुआत की थी कि इससे राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ेगी और साफ-सुथरा धन आएगा. लेकिन हुआ इसका उल्टा है. इस बॉन्ड ने पारदर्शिता लाने की जगह जोखिम और बढ़ा दिया है, यही नहीं विदेशी स्रोतों से भी चंदा आने की गुंजाइश हो गई है.

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गत 12 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने इस पर नाराजगी जाहिर की थी कि केंद्र सरकार ने राजनीतिज्ञों के अथाह धन पर अंकुश लगाने के लिए कोई स्थायी सिस्टम नहीं बनाया है, जबकि खुद सुप्रीम कोर्ट पिछले साल इसके बारे में आदेश कर चुका है. फरवरी, 2018 में सुप्रीम कोर्ट यह जानकर चकित रह गया था कि कई सांसदों-विधायकों और उनके रिश्तेदारों का धन दो चुनाव के बीच यानी पांच साल के भीतर ही 500 फीसदी तक बढ़ गया है. सुप्रीम कोर्ट ने इसके बारे में गंभीरता से कोई कदम उठाने की जरूरत बताई.

इसके बावजूद राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की व्यवस्था वर्षों से अपारदर्शी बनी हुई है और इनका कोई हिसाब-किताब भी नहीं देना होता. यह राजनीतिज्ञों के लिए आसान धन का स्रोत बना हुआ है. इस तरह की फंडिंग पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाई कोर्ट में कई याचिकाएं लंबित हैं.

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सरकार ने राजनीतिक दलों को चंदे के लिए पारदर्शी व्यवस्था बनाने के लिए इलेक्टोरल बियरर बॉन्ड की शुरुआत की है. लेकिन इससे राजनीतिक दलों को 'अज्ञात स्रोतों' से मिलने वाले कॉरपोरेट चंदे को बढ़ावा मिला है और विदेशी स्रोत से आने वाला चंदा भी लीगल हो गया है.

स्रोत बताने की जरूरत नहीं

इलेक्टोरल बॉन्ड की शुरुआत करते समय इसे सही ठहराते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जनवरी 2018 में लिखा था, 'इलेक्टोरल बॉन्ड की योजना राजनीतिक फंडिंग की व्यवस्था में 'साफ-सुथरा' धन लाने और 'पारदर्श‍िता' बढ़ाने के लिए लाई गई है.' लेकिन वास्तव में हुआ बिल्कुल इसके उलट है. इलेक्टोरल बॉन्ड फाइनेंस एक्ट 2017 के द्वारा लाए गए थे. वास्तव में इनसे पारदर्श‍िता पर जोखिम और बढ़ा है. खुद चुनाव आयोग ने इन बदलावों पर गहरी आपत्त‍ि करते हुए कानून मंत्रालय को इनमें बदलाव के लिए लेटर लिखा है.

जनप्रतिनिधित्व कानून (RP Act) की धारा 29 सी में बदलाव करते हुए कहा गया है कि इलेक्टोरल बॉन्ड के द्वारा हासिल चंदों को चुनाव आयोग की जांच के दायरे से बाहर रखा जाएगा. चुनाव आयोग ने इसे प्रतिगामी कदम बताया है. चुनाव आयोग ने कहा कि इससे यह भी नहीं पता चल पाएगा कि कोई राजनीतिक दल सरकारी कंपनियों से विदेशी स्रोत से चंदा ले रही है या नहीं, जिस पर कि धारा 29 बी के तहत रोक लगाई गई है.

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इसी प्रकार आरपी एक्ट की धारा 29 सी के तहत अब भी 20,000 रुपये तक का चंदा बिना किसी हिसाब-किताब के लिया जा सकता है. इसलिए राजनीतिक चंदे में जवाबदेही या पारदर्शिता पर भी कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा.

शेल कंपनियों को मिलेगा बढ़ावा!

तीसरे, कंपनी एक्ट 2013 में कहा गया था कि कोई कंपनी एक वित्तीय वर्ष में पिछले तीन साल के अपने औसत नेट प्रॉफिट के 7.5 फीसदी से ज्यादा का राजनीतिक चंदा नहीं दे सकती. लेकिन इसमें बदलाव करते हुए अब 'कितनी भी राशि' देने की छूट दे दी गई है. यही नहीं, कंपनियों को इस बात से भी छूट है कि वे अपने बहीखाते में यह बात छुपा लें कि उन्होंने किस पार्टी को चंदा दिया है.

चुनाव आयोग ने इस सभी बदलावों पर आपत्त‍ि की है. इससे इस बात का जोखिम बढ़ा है कि सिर्फ राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए शेल कंपनियों का गठन किया जाए. पिछले वर्षों में चुनाव आयोग ने कई बार प्रेस कॉन्फ्रेंस कर और लेटर लिखकर सार्वजनिक तौर पर इन बदलावों पर आपत्त‍ि जताई है, लेकिन सरकार कुछ बदलने को तैयार नहीं है.

सरकार का कहना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड में योगदान 'किसी बैंक के अकाउंट पेई चेक या बैंक खाते से इलेक्ट्रॉनिक क्लीयरिंग सिस्टम' के द्वारा दिया जाएगा. सरकार ने जनवरी 2018 में इलेक्टोरल बॉन्ड के नोटिफिकेशन जारी करते समय यह भी साफ किया था कि इसे खरीदने वाले को पूरी तरह से केवाईसी नॉर्म पूरा करना होगा और बैंक खाते के द्वारा भुगतान करना होगा. इन बॉन्ड को एक रैंडम सीरियल नंबर दिए गए हैं जो सामान्य तौर पर आंखों से नहीं दिखते. बॉन्ड जारी करने वाला एसबीआई इस सीरियल नंबर के बारे में किसी को नहीं बताता.

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लेकिन उक्त सारे प्रावधानों से भी समस्याएं दूर नहीं होतीं. चंदा देने वाली की गोपनीयता और राजनीतिक फंडिंग में अपारदर्शिता बनी रहती है और यह सब चुनाव आयोग की जांच के दायरे से भी बाहर है. केवाई होने के बाद भी चंदा देने वाले के बारे में सिर्फ बैंक या सरकार को जानकारी हो सकती है, चुनाव आयोग या किसी आम नागरिक को नहीं.

सत्ता पक्ष को फायदा

चुनाव सुधारों पर काम करने वाले एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) का कहना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड से वास्तव में सत्ता पक्ष को फायदा हो रहा है. ADR के मुताबिक साल 2017-18 में इलेक्टोरल बॉन्ड के द्वारा 222 करोड़ रुपये का चंदा दिया गया. इसमें से बीजेपी को 210 करोड़ (94.5%),  कांग्रेस को 5 करोड़ रुपये और बाकी दलों को 7 करोड़ रुपये हासिल हुए हैं.

(www.dailyo.in से साभार)

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