
लोकसभा चुनाव 2019 की सियासी लड़ाई अब पूर्वांचल पहुंच गई है. सबकी निगाहें एक ओर पीएम मोदी के संसदीय सीट वाराणसी तो दूसरी तरफ पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सीट आजमगढ़ पर लगी है. अखिलेश के खिलाफ बीजेपी ने भोजपुरी फिल्म स्टार दिनेश लाल यादव उर्फ 'निरहुआ' को चुनावी मैदान में उतारकर मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है. ऐसे में आजमगढ़ का पूरा सियासी संग्राम यादव समुदाय के नेता और अभिनेता के बीच सिमट गया है. ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि यादव और मुस्लिम समीकरण वाली इस सीट पर अखिलेश के राजनीतिक गणित को निरहुआ अपने फिल्मी करिश्मे से क्या बिगाड़ पाएंगे?
पूर्वांचल के राजनीतिक समीकरण को साधने के लिए अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश की सबसे सेफ सीट माने जाने वाली आजमगढ़ से चुनावी मैदान में उतरे हैं. हालांकि 2014 में उनके पिता मुलायम सिंह यादव भी उतरे थे, लेकिन इस मंसूबों पर वो सफल नहीं हो सके थे. इस बार हाथी के सहारे अखिलेश पूर्वांचल की जंग फतह करने के लिए आजमगढ़ को चुना है. बसपा से गठबंधन के चलते यहां की सियासी फिजा भले ही अखिलेश के पक्ष में नजर आ रही हो, लेकिन निरहुआ की रैली और रोड शो में जिस तरह से भीड़ उमड़ रही है अगर वो वोट में तब्दील होती है तो सपा के लिए यहां जीत का परचम फहराना आसान नहीं होगा.
बाहरी बनाम क्षेत्रीय
अखिलेश को 'बाहरी' उम्मीदवार बता रहे निरहुआ आजमगढ़ के लोगों का दिल जीतना चाहते हैं. हालांकि इलाके के लोग चुनावी मिजाज को अखिलेश के पक्ष में बताते हैं. हालांकि कुछ का यह भी मानना है कि सपा अध्यक्ष के लिए लड़ाई उतनी आसान भी नहीं है, जितनी सोची जा रही है. अखिलेश यादव नामांकन के बाद आजमगढ़ में बुधवार को बसपा अध्यक्ष के साथ रैली करने पहुंच थे. जबकि निरहुआ लगातार यहां अपनी मौजूदगी बनाए हुए हैं.
आजमगढ़ का जातीय समीकरण सपा के दुर्ग को मजबूत बनाता है और इस बार बसपा भी उसके साथ है. ऐसे में अखिलेश यादव के लिए और भी मजबूत नजर आते हैं. आजमगढ़ सीट पर करीब 19 लाख मतदाताओं में से साढ़े तीन लाख से अधिक यादव, तीन लाख से ज्यादा मुसलमान और करीब तीन लाख दलित हैं. यहां के जातीय गणित अखिलेश की राह को आसान और निरहुआ के लिए मुश्किल खड़ी कर सकता है.
अखिलेश के लिए सबसे सेफ सीट
पूर्वांचल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर दिग्विजय सिंह राठौर कहते हैं कि पूर्वांचल नहीं बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के लिए सबसे सेफ सीट आजमगढ़ है. यहां के जातीय और राजनीतिक दोनों समीकरण अखिलेश के पक्ष में है, इसी के चलते यहां से वो चुनाव मैदान में उतरे हैं. आजमगढ़ जिले की 10 विधानसभा सीटों में से 9 सपा और बसपा के पास है. इतनी सीटें सूबे के किसी और जिले में दोनों पार्टियों के पास नहीं है. यही नहीं रमाकांत यादव जिन्होंने मुलायम सिंह को पिछले चुनाव में कड़ी टक्कर दी थी, वो भी इस बार आजमगढ़ से बाहर चुनाव लड़ रहे हैं. कांग्रेस ने अखिलेश के सामने उम्मीदवार नहीं उतारकर यह राह और भी आसान कर दी है.दिग्विजय सिंह कहते हैं कि इस बार के लोकसभा चुनाव में सपा ने सवर्ण समुदाय से दूरी बना रखी है, जिसके चलते वो बीजेपी के पक्ष में है. लेकिन आजमगढ़ में सपा सरकार में बहुत विकास कार्य हुए हैं, ऐसे में सवर्ण समुदाय का भी कुछ वोट उनके पक्ष में जा सकता है. वो कहते हैं राम मंदिर लहर और मोदी लहर में बीजेपी यह सीट नहीं जीत सकी थी.
वह कहते हैं कि बीजेपी ने इस बार आजमगढ़ के बगल के जिले के गाजीपुर के रहने वाले भोजपुरी के स्टार निरहुआ को मैदान में उतारा है, उनके रोड शो में भीड़ हो रही है, लेकिन यह भीड़ सेल्फी लेने वाली ज्यादा दिख रही है. ऐसे में यह वोट करेगी यह कहना मुश्किल है. वह कह रहे हैं कि निरहुआ के पक्ष में कोई सकारात्मक परिणाम तभी आ सकता है जब वह सपा के कोर वोटर यादवों में सेंध लगाएंगे. इसके अलावा उनकी लोकप्रियता के कारण गैर यादव ओबोसी, गैर जाटव दलित और सवर्ण तबका बीजेपी के साथ खड़ा हो सकता, जिससे यहां बाजी पलट सकती है.
प्रचार के लिए पहुंच रहे पीएम मोदी
सपा के दुर्ग को भेदने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुरुवार को आजमगढ़ में निरहुआ के पक्ष में जनसभा को संबोधित करेंगे. मोदी फैक्टर का उनको कुछ हद तक लाभ जरूर मिल सकता है. दिग्विजय कहते हैं कि आजमगढ़ में विकास की कमी, बेरोजगारी, जिले में किसी विश्वविद्यालय का नहीं होना और राष्ट्रवाद आदि प्रमुख मुद्दे हैं. यहां किसान और व्यापारियों के तमाम मुद्दे हैं, जिन्हें कोई भी पार्टी अहमियत नहीं दे रही है. सभी यहां के जातीय समीकरण के सहारे जीत का स्वाद चखना चाहती हैं.
तीन दशक से यादव-मुस्लिम का कब्जा
आजमगढ़ लोकसभा सीट पर पिछले तीन दशक से यादव और मुस्लिम का ही कब्जा रहा है. साल 1989 से अभी तक यादव और मुस्लिम उम्मीदवार ही आजमगढ़ से जीतकर संसद पहुंचते रहे हैं. 1989 में राम कृष्ण यादव बसपा से यहां जीत का सिलसिला शुरू और 1991 में चंद्रजीत यादव जनता दल से जीते. जबकि यह दौर राम मंदिर आंदोलन का था, इसके बावजूद बीजेपी नहीं जीती.
रमाकांत यादव ने यहां वर्ष 1996 और 1999 में सपा प्रत्याशी के तौर पर जीत हासिल की थी. वह वर्ष 2004 में बसपा और 2009 में बीजेपी के टिकट पर चुनाव जीते थे. 1998 और 2008 में इस सीट पर हुए उपचुनावों में बसपा के अकबर अहमद डम्पी ने जीत हासिल की थी. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा के तत्कालीन अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने बीजेपी उम्मीदवार रमाकांत यादव को करीब 63 हजार मतों से हराया था. एक बार फिर यहां की सियासी लड़ाई दो यादवों के बीच है.