
एक जमाना था जब बाहुबल के बिना उत्तर प्रदेश में राजनीति करना और सत्ता में आना नामुमकिन सा था, लेकिन दौर बदला और वक्त के साथ चुनावी समीकरण भी बदलते चले गए. कुछ दल जो बाहुबल के नाम पर सरकारें बनाते थे वह दल भी खुद को उनसे अलग करते दिखे तो कुछ दल ऐसे भी आए जिन्होंने अपना चुनावी एजेंडा ही माफियाओं के खिलाफ 'कार्रवाई' ही रखा.
एक बार फिर लोकसभा चुनाव 2024 का बिगुल बज चुका है और नजरें हैं 80 लोक सभा सीटें लिए दिल्ली का रास्ते तय कराने वाले उत्तर प्रदेश पर. 2019 के मुकाबले यूपी के कई समीकरण अब बदल चुके हैं, प्रमुखता से बाहुबल.
योगी सरकार ने अपराध और माफिया के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति की बात कही है तो वहीं सपा मुखिया अखिलेश यादव खुद को 2012 में सरकार बनने के बाद और सरकार जाने के बाद भी खुद को और पार्टी को माफियाओं से अलग रखते आए हैं. वो पार्टी की साफ सुथरी छवि की कोशिश में लगे हैं. हालांकि, सपा बाहुबलियों के परिवार को टिकट देती रही है.
बाहुबली धनंजय सिंह
बात अगर बाहुबलियों की हो तो एनडीए के घटक दल जेडीयू से टिकट की आस लगाने वाले बाहुबली धनंजय सिंह का जिक्र सबसे पहले होगा. धनंजय सिंह जेडीयू के टिकट पर जौनपुर से लड़ने की तैयारी में थे लेकिन भाजपा ने महाराष्ट्र के पूर्व गृह राज्य मंत्री और पूर्व कांग्रेसी कृपाशंकर सिंह को टिकट देकर कयासों पर विराम लगा दिया और उनकी उम्मीदों को तोड़ दिया.
हालांकि, भाजपा की टिकट की घोषणा के कुछ देर बाद ही सोशल मीडिया पर जौनपुर से चुनाव लड़ने की पोस्ट धनंजय ने सोशल मीडिया पर डाली, लेकिन तीन दिन बाद ही अपहरण के मामले में धनंजय को सजा हो गई और उनके 2024 लोक सभा चुनाव लड़ने का सपना सपना ही रह गया. हालांकि, इस बात की चर्चा जौनपुर के गलियारों में है कि वह अपनी पत्नी श्रीकला रेड्डी को जौनपुर से उतार सकते हैं.
हालांकि, सियासी तौर पर धनंजय सिंह 2009 के बाद सियासी पिच पर कुछ खास बैटिंग नहीं कर पाए. वह 2009 के लोक सभा चुनाव के बाद से जीत हासिल नहीं का पाए हैं. 2009 में वह बसपा के टिकट पर सांसद बने थे. इसके बाद 2017 और 2022 के विधान सभा चुनावों में उन्हे हार झेलनी पड़ी. हालांकि, धनंजय की दूसरी पत्नी श्रीकला ने 2021 जुलाई में जिला पंचायत अध्यक्ष के पद पर जीत हासिल की.
माफिया मुख्तार अंसारी
सियासत में अगर बाहुबलियों का जिक्र होगा तो मुख्तार अंसारी का जिक्र होना लाजमी है. माफिया मुख्तार अंसारी के बड़े भाई अफजाल अंसारी इस बार समाजवादी पार्टी के टिकट पर गाजीपुर से चुनाव लड़ रहे हैं. इससे पहले वह बीएसपी के टिकट पर गाजीपुर से जीते थे. हालांकि, मुख्तार एंड गैंग के खिलाफ हो रही कार्रवाइयों के बीच चुनाव में अफजाल को इसका फायदा मिलेगा या नुकसान यह वक्त बताएगा.
डीपी यादव भी बाहुबलियों में शुमार
वहीं, सपा के पूर्व नेता डीपी यादव का नाम भी बाहुबलियों की लिस्ट में शुमार है. बदायूं से पश्चिमी यूपी के बाहुबली डीपी यादव की दावेदारी की चर्चा भी हो रही है. वह बीजेपी के टिकट पर खुद या अपने परिवारजन को लड़वाने की तैयारी में हैं.
सांसद बृजभूषण शरण सिंह
उधर, यूपी की कैसरगंज सीट से बाहुबली सांसद बृजभूषण सिंह की दावेदारी को लेकर असमंजस की स्थिति है. माना जा रहा है कि उनका टिकट कटना लगभग तय है और ऐसे में अगर उनका टिकट कटा तो परिवार से ही दावेदारी आने की प्रबल संभावना है.
माफिया अतीक अहमद
आज के प्रयागराज और तब के इलाहाबाद में माफिया अतीक अहमद और परिवार ने भी कई सियासी पारियां खेली हैं. हालांकि, माफिया अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की मौत के बाद अब उसके परिवार से चुनावी दावेदारी आना मुश्किल है क्योंकि अतीक की पत्नी शाइस्ता उमेश पाल और दो सिपाहियों की हत्या में वांटेड है तो वहीं दो बेटे उमर और अली जेल में है और भाई अशरफ की पत्नी फातिमा भी अंडरग्राउंड है.
बाहुबली अमरमणि त्रिपाठी
बाहुबली अमरमणि त्रिपाठी के बेटे अमन मणि त्रिपाठी ने हाल ही में कांग्रेस की सदस्यता ली है और इसके पीछे है उनको टिकट मिलने की चाहत बताई जा रही है. टिकट मिलेगा या नहीं इस पर अभी भी संशय बरकरार है.
वहीं, ईडी की कार्रवाई में घिरे बाहुबली हरिशंकर तिवारी के बेटे विनय शंकर तिवारी अपने पिता के निधन के बाद श्रावस्ती या संत कबीर नगर से समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने के प्रयास में हैं.
इस मुद्दे पर यूपी के वरिष्ठ पत्रकार नवल कांत सिन्हा कहते हैं कि पिछले तीन दशकों से देखिए तो यूपी में पहले जो बाहुबली होते थे वह चुनाव लड़वाते थे नेताओं को, लेकिन उसके बाद अपराधियों को लगने लगा जब वह नेताओं को जिता सकते हैं तो खुद चुनाव क्यों नही लड़ सकते. इसके बाद एक दौर आया और राजनीति में बाहुबलियों की भीड़ हो गई और उनका रसूख भी कायम रहा.
तमाम सरकारें आती रहीं, जाती रहीं लेकिन मुख्तार और अतीक जैसे बाहुबलियों का रसूख कम नहीं हुआ. लेकिन पिछले 7 सालों से जो कार्रवाई हुई जिसमें केवल जेल भेजने तक नही बल्कि अपराधियों को सजा दिलाने तक का प्रयास सरकार द्वारा किया गया,उसका असर यह है की अब चुनावों में बाहुबलियों का क्रेज खत्म हो रहा है और पॉलिटिक्स भी बदली है. बाहुबलियों को भी लगने लगा है अब अगर आपराधिक छवि लेकर जाते हैं तो राजनीति का रास्ता आसान नहीं है.
हालांकि, 2019 में अतीक अहमद से लेकर रमाकांत यादव समेत तमाम बाहुबलियों ने चुनाव में अपनी किस्मत आजमाई लेकिन हार के साथ सबका दम निकल गया. अब देखना है कि 2024 के चुनाव में जहां एक ओर चुनाव आयोग बाहुबलियों के खिलाफ सख्त है तो वहीं राजनीतिक दल या तो खुद को अलग रख रहे हैं या उनके खिलाफ कार्रवाई को अपनी प्राथमिकता बता रहे हैं. ऐसे में यह बाहुबली फैक्टर यूपी में कितना चल पाता है?