
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में बिहार की 40 लोकसभा सीटों को लेकर संभावित फॉर्मूला सामने आया है. चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास (एलजेपीआर) को पांच सीटें मिलने की बात सामने आ रही है. चिराग को हाजीपुर सीट मिलना भी तय बताया जा रहा है. चिराग के चाचा पशुपति पारस की पार्टी राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (आरएलजेपी) सीट शेयरिंग में खाली हाथ नजर आ रही है. पशुपति को राज्यपाल और उनकी ही पार्टी के सांसद पासवान परिवार के ही प्रिंस राज को बिहार सरकार में मंत्री बनाए जाने की बातें भी सामने आ रही हैं.
एलजेपी में टूट के बाद बीजेपी को जिन पशुपति पारस से दलित वोट की उम्मीद नजर आ रही थी, करीब तीन साल में ही ऐसा क्या हो गया कि वह अचानक ही हाशिए पर चले गए? 2021 में एलजेपी की टूट के बाद साइडलाइन चल रहे चिराग एकाएक कैसे इतने पावरफुल हो गए और उन्हें इतनी तवज्जो दिए जाने के पीछे क्या कारण हैं? बिहार में बीजेपी ने पशुपति पारस पर चिराग को ज्यादा तवज्जो दी है तो उसके भी अपने आधार हैं.
बिहार के वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क ने कहा कि चिराग बीजेपी की ताकत बीजेपी 2019 के लोकसभा और 2020 के बिहार चुनाव में देख चुकी है.2019 में एलजेपी के अध्यक्ष भले ही रामविलास पासवान थे लेकिन सारा कामकाज चिराग ही कर रहे थे. चिराग के नेतृत्व में ही पशुपति नेता बने. पासवान वोटर्स के साथ ही रामविलास के साथ जुड़े लोग उनका बेटा होने के कारण चिराग को उनकी विरासत का नैसर्गिक उत्तारधिकारी मानते हैं. एलजेपी में टूट के बाद चिराग को लेकर एलजेपी के कोर वोटर्स में सहानुभूति भी है और इसके ठीक उलट पशुपति पारस की इमेज डेंट हुई है.
उन्होंने कहा कि हाजीपुर में जनप्रतिनिधि होने के कारण भले ही पशुपति का वोटर्स से जुड़ाव रहा हो, इस सीट की सीमा के बाहर वह अपने आपको विकल्प के रूप में पेश करने में विफल रहे हैं. बिहार बीजेपी के नेता भी यह समझ रहे हैं कि जमीन पर पासवान वोटर्स का बड़ा तबका चिराग के ही साथ है. अब चिराग को ज्यादा तवज्जो देकर बीजेपी ने पशुपति पारस को साइडलाइन कर ही दिया है, नीतीश कुमार को भी सख्त संदेश दे दिया है.
इसे नीतीश के लिए सख्त संदेश इसलिए भी बताया जा रहा है क्योंकि नीतीश के अड़ियल रुख की वजह से ही एक समय चिराग एनडीए में हाशिए पर चले गए थे. दरअसल, नीतीश कुमार की पार्टी 2020 के चुनाव में 43 सीटें ही जीत सकी और आरजेडी, बीजेपी के बाद तीसरे स्थान पर रही. चुनाव नतीजे आने के बाद नीतीश कुमार ने चिराग पर हमला बोलते हुए खुद यह कहा था कि करीब दो दर्जन सीटों पर एलजेपी की वजह से जेडीयू को मात मिली है.
वजह चाहे जो भी हो लेकिन बिहार चुनाव में एलजेपी एक ही सीट जीत सकी लेकिन चिराग ने अपनी ताकत दिखा दी थी. 2019 के चुनाव में बीजेपी के बराबर सीटों की मांग पर अड़ी जेडीयू इस बार एक ही सही, बीजेपी से कम सीटों पर लड़ने के लिए अगर तैयार हो रही है तो इसे नीतीश कुमार की घटी बारगेन पावर से जोड़कर ही देखा जा रहा है. जेडीयू भले ही विपक्षी गठबंधन को झटका देकर एनडीए में वापस आ गई है लेकिन नीतीश को लेकर चिराग के तेवर नहीं बदले हैं.
कारगर रही चिराग की प्रेशर टैक्टिस
चिराग ने हाल ही में बिहार में एक रैली की थी. 10 मार्च को हुई इस रैली में उनका फोकस तीन बिंदुओं पर था. उन्होंने कहा था कि हर दल-गठबंधन उनका साथ चाहता है. बिहार में गठबंधन बनते रहे बिगड़ते रहे, सरकारें आती रहीं और जाती रहीं लेकिन बिहार की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ बल्कि प्रदेश पहले से और नीचे ही गया है. चिराग ने तीसरी बात गठबंधन को लेकर कही थी कि हमारा बिहार की जनता से गठबंधन है.
चिराग के इन बयानों में नीतीश पर नाम लिए बिना प्रहार था तो एनडीए को यह मैसेज भी कि अगर उनकी नहीं मानी गई तो दूसरी तरफ जाने का विकल्प भी खुला है. चिराग की यह प्रेशर टैक्टिस क्या इतनी कारगर रही कि बीजेपी ने पशुपति को दरकिनार कर दिया? इसे समझने के लिए बिहार के पिछले चुनाव नतीजों और वोटिंग पैटर्न की चर्चा भी जरूरी हो जाती है.
8 परसेंट वोट का गणित
पिछले लोकसभा चुनाव नतीजे पर ही गौर करें तो एनडीए और विपक्षी गठबंधन के बीच सीटों का बड़ा गैप भले नजर आता हो, लेकिन 7 से 8 फीसदी वोट ही अंतर लाता रहा है. 2019 में एनडीए को 35.4 फीसदी वोट शेयर के साथ 39 सीटों पर जीत मिली थी. तब एलजेपी को आठ फीसदी वोट मिले थे. सूबे में आरजेडी के नेतृत्व वाले गठबंधन को भले ही एक ही सीट मिली थी लेकिन वोट शेयर 28.3 फीसदी वोट मिले थे.
बीजेपी जब बिहार सभी सीटें जीतने का टारगेट सेट कर चुनाव में उतरने की तैयारी में है, पिछले चुनाव में डिसाइडिंग साबित हुए वोट को लेकर कोई रिस्क नहीं लेना चाहती. चिराग एलजेपी में टूट के बाद भी 'बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट' के नारे के साथ जमीन पर सक्रिय रहे.
सीट शेयरिंग का फॉर्मूला क्या
बिहार में एनडीए का जो सीट शेयरिंग फॉर्मूला सामने आया है, उसके मुताबिक बीजेपी और जेडीयू उतनी ही सीटों पर चुनाव लड़ेंगे जितने उनके सिटिंग सांसद हैं. बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं जिनमें बीजेपी के 17 और जेडीयू के 16 सांसद हैं. एलजेपी ने 2019 के चुनाव में छह लोकसभा सीटें जीती थीं. एलजेपी दो पार्टियों में बंट गई है.
यह भी पढ़ें: पशुपति पारस, "पशुपति पारस, LJP साथ... फिर भी बीजेपी को क्यों है चिराग पासवान की जरूरत?
इस बार गठबंधन में चिराग के नेतृत्व वाली पार्टी को पांच, जीतनराम मांझी के नेतृत्व वाली हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम पार्टी) और उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) को एक-एक सीटें मिल सकती हैं. राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (आरएलजेपी) के प्रमुख पशुपति पारस सीट शेयरिंग में खाली हाथ रह सकते हैं.
यह भी पढ़ें: चिराग को 5 सीट, चाचा पशुपति को राज्यपाल बनाने का ऑफर... बिहार में NDA का सीट शेयरिंग फॉर्मूला फिक्स!
2021 में क्या हुआ था
बिहार एनडीए में सीट शेयरिंग का संभावित फॉर्मूला सामने आने के बाद अब चर्चा 2019 के चुनाव से 2024 चुनाव तक बदली परिस्थितियों को लेकर भी हो रही है. तीन साल पहले एलजेपी दो धड़ों में बंट गई थी. जून 2021 में एलजेपी दो धड़ों में बंट गई थी. चिराग के खिलाफ पशुपति पारस के नेतृत्व में पांच सांसदों ने बगावत कर दी थी और उन्हें पार्टी अध्यक्ष, संसदीय दल के नेता समेत तमाम पदों से हटा दिया था. पशुपति के नेतृत्व वाला धड़ा एनडीए में शामिल हो गया था. पशुपति एलजेपी कोटे से मंत्री भी बने. पार्टी पर कब्जे की जंग चुनाव आयोग तक गई जहां आयोग ने नाम-निशान फ्रीज कर दिया था. पारस के धड़े ने जिन वीणा देवी को पार्लियामेंट्री बोर्ड का अध्यक्ष बनाया था, वह भी अब चिराग के साथ जा चुकी हैं.