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साल 2024 में ही लोकसभा के चुनाव होने हैं और सबसे बड़े चुनावी समर वाले साल की शुरुआत में ही सियासी हलचल तेज हो गई है. सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की अगुवाई कर रही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) में चुनावी रणनीति और राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर बैठकों का दौर चल रहा है. वहीं, विपक्षी इंडिया गठबंधन भी सीट शेयरिंग से लेकर गठबंधन के चेहरे तक, किसी निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए एक्टिव मोड में है. इन सबके बीच एक चर्चा और तेज हो गई है और वह है बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इंडिया गठबंधन का संयोजक बनाए जाने की.
विपक्षी दलों को एकजुट कर कांग्रेस के साथ एक मंच पर लाने की मुहिम के सूत्रधार रहे नीतीश कुमार को संयोजक बनाए जाने की चर्चा नई भी नहीं. पटना में हुई पहली बैठक में गठबंधन को लेकर विपक्षी दलों की गाड़ी आगे बढ़ी तो साथ-साथ ये चर्चा भी बढ़ी कि सभी दलों को जोड़े रखने के लिए एक संयोजक की जरूरत होगी. नीतीश कुमार को संयोजक से लेकर प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे मजबूत दावेदार बताया जाने लगा. लेकिन चार बैठकों के बाद भी ऐसा कुछ हुआ नहीं. इंडिया गठबंधन ने एक संयोजक की जगह अलग-अलग दलों के नेताओं को लेकर एक कोऑर्डिनेशन कमेटी बना दी.
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अब नए साल में नीतीश कुमार को इंडिया गठबंधन का संयोजक बनाए जाने की सुगबुगाहट है तो क्यों है? क्या नीतीश को संयोजक बनाया जाना जरूरी है या इंडिया गठबंधन की मजबूरी है? इस सुगबुगाहट का जनता दल यूनाइटेड में पिछले दिनों हुए नेतृत्व परिवर्तन से कोई कनेक्शन है या फिर राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और लालू परिवार के साथ नजर आ रही नीतीश की दूरी से कोई कनेक्शन है? सवाल यही उठ रहे हैं कि नीतीश को संयोजक बनाया जाना इंडिया गठबंधन के लिए जरूरी है या मजबूरी है?
वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क ने नीतीश को संयोजक बनाए जाने को मजबूरी बताया है. उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार पहली बैठक के बाद से ही कांग्रेस को कोसते रहे हैं. वह यह कहते रहे हैं कि कांग्रेस बहुत धीमी चाल से चल रही है, ऐसे नुकसान होगा. पांच राज्यों के चुनाव के समय इंडिया गठबंधन की शिथिल पड़ी गतिविधियों को लेकर भी कांग्रेस को घेरा था. चौथी बैठक के बाद से संवाद के नाम पर महागठबंधन में भी सन्नाटा है.
ओमप्रकाश अश्क ने यह भी कहा कि महागठबंधन में शामिल होने के बाद से नीतीश कुमार, राबड़ी आवास की दूरी कदमों से नापते रहे हैं लेकिन उनके जन्मदिवस पर अगर उन्हें वहां जाने की जरूरत महसूस नहीं हुई तो यह भी उनकी नाराजगी ही दर्शाता है. नीतीश कुमार पहले ही यह कह चुके हैं कि हम पीएम दावेदार नहीं हैं. वह यह भी कह चुके हैं कि बिहार में 2025 का चुनाव तेजस्वी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. दिल्ली की बैठक में ममता बनर्जी का खड़गे को पीएम कैंडिडेट बनाने का प्रस्ताव रखना भी नीतीश को किनारे लगाने जैसा ही था. नीतीश को अब यह लगने लगा है कि हम त्याग पर त्याग किए जा रहे हैं लेकिन तवज्जो नहीं मिल रही या चर्चा ही नहीं हो रही.
जेडीयू में परिवर्तन के बाद बदले हालात
नीतीश कुमार को इस बात की भी कसक थी कि जातिगत जनगणना के रूप में उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर जो मुद्दा दिया, इंडिया गठबंधन की बैठक में धन्यवाद प्रस्ताव तो दूर किसी ने उसकी चर्चा तक नहीं की. जेडीयू में नेतृत्व परिवर्तन के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में नीतीश कुमार ने सीधे-सीधे धन्यवाद प्रस्ताव का जिक्र तो नहीं किया लेकिन यह जरूर कहा कि इंडिया गठबंधन की बैठक में जातिगत जनगणना को लेकर कोई चर्चा तक नहीं हुई. जेडीयू अध्यक्ष पद से ललन सिंह की विदाई को नीतीश कुमार की ओर से आरजेडी और इंडिया गठबंधन के लिए एक तरह से लकीर खींचने के तौर पर भी देखा गया कि अब पार्टी के फैसलों में कोई कड़ी नहीं है. वह कोई भी फैसला ले सकते हैं.
हिंदी बेल्ट का मजबूत चेहरा
इंडिया गठबंधन के सामने सबसे मुश्किल चुनौती हिंदी बेल्ट, खासकर यूपी-बिहार जैसे राज्यों में बीजेपी की मजबूत चुनौती से निपटना है. कांग्रेस इन राज्यों में बीजेपी को अकेले चुनौती देने की हालत में नजर नहीं आ रही. इंडिया गठबंधन में हिंदी बेल्ट से नीतीश एक मजबूत चेहरा हैं. भ्रष्टाचार को लेकर भी बीजेपी विपक्ष पर हमलावर रही है. ऐसे में भ्रष्टाचार को लेकर सियासी वार से निपटने के लिए लंबे राजनीतिक सफर में बेदाग नीतीश का दामन इंडिया गठबंधन के लिए एक उम्मीद हो सकता है.
गठबंधन के गणित में माहिर
नीतीश कुमार के पास केंद्र सरकार में मंत्री से लेकर बिहार के मुख्यमंत्री तक, शासन-सत्ता का लंबा अनुभव है. बीच में थोड़े समय के लिए जीतनराम मांझी के कार्यकाल को हटा दें तो साल 2005 से ही नीतीश कुमार ही बिहार के मुख्यमंत्री हैं. नीतीश की छवि ऐसे नेता की भी है जो गठबंधन के गणित में माहिर है. नीतीश कुमार बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए और आरजेडी-कांग्रेस के साथ महागठबंधन, विपरीत ध्रुव माने जाने वाले दलों के साथ भी सामंजस्य के साथ सरकार चलाने का अनुभव रखते हैं.
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स्वीकार्यता
नीतीश कुमार ने विपक्षी गठबंधन की नींव रखने के लिए पटना से दिल्ली और लखनऊ-कोलकाता से चेन्नई तक एक कर दिया था. ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल जैसे नेता अगर कांग्रेस के साथ एक छतरी तले आने को तैयार हुए तो इसके लिए नीतीश के रणनीतिक कौशल को ही श्रेय दिया गया. नीतीश की स्वीकार्यता इंडिया गठबंधन में शामिल दल ही नहीं, ऐसे दलों में भी है जो इस समय इस गठबंधन का अंग नहीं हैं. नीतीश को संयोजक बनाया जाना इंडिया गठबंधन के लिए जरूरत पड़ने पर भविष्य की विस्तार योजना के लिहाज से भी मुफीद माना जा रहा है.
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कुल मिलाकर, लोकसभा चुनाव अब महज कुछ महीने ही दूर हैं. समय कम बचा है और इंडिया गठबंधन के सामने राम मंदिर और मोदी की गारंटी के रथ पर सवार बीजेपी की चुनौती है. अलग-अलग मिजाज की पार्टियों को साथ बनाए रखने, हिंदी बेल्ट में मजबूत नेतृत्व की चुनौती भी सामने खड़ी है. बदले सियासी हालात में नीतीश तेवर में हैं और लालू परिवार में सन्नाटा है. ऐसे हालात में कांग्रेस की रणनीति चेयरपर्सन का पद अपने पास रख नीतीश को संयोजक पद देने की है जिसे झुनझुने की तरह बताया जा रहा है. देखना होगा कि क्या नीतीश इस पर मानेंगे?