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Punjab Election 2022: पंजाब की सियासत के बेताज बादशाह माने जाने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह बीजेपी के कर्णधार बने हुए हैं. 2017 में पंजाब अकाली दल-बीजेपी गठबंधन की 10 साल की हुकुमत के खिलाफ दो-दो हाथ करने का जिम्मा कांग्रेस ने कैप्टन अमरिंदर को सौंपा था, जिसे बखूबी निभाया. पंजाब की सत्ता में कांग्रेस की वापसी कराकर जिस शीर्ष नेतृत्व के आंखों का तारा बन गए थे, साढ़े चार साल के बाद उसी आंख में करकने लगे थे.
20 सिंतबर 2021 को कांग्रेस हाईकमान ने कैप्टन के हाथों पंजाब की कप्तानी लेकर दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी को सौंप दी तो अमरिंदर सिंह बागी बन गए. जिस कांग्रेस ने उन्हें दोबार पंजाब के सत्ता की कमान सौंपी, वो अब उसके जड़ में माठा डालने के लिए बीजेपी के साथ हाथ मिला लिया. कांग्रेस से नाता तोड़ने के बाद अपनी पार्टी बनाई और बीजेपी के साथ मिलकर पंजाब की सियासत में किस्मत आजमाने उतरे हैं. ऐसे में देखना है कि पटियाला के महाराजा से पंजाब के राजा तक सफर तय करने अमरिंदर सिंह क्या सियासी करिश्मा दिखाते हैं.
कैप्टन अमरिंदर सिंह को पंजाब की सियासत का बड़ा नाम माना जाता रहा हैं. दो दशकों तक कांग्रेस का रज्य में चेहरा रहे हैं. कैप्टन का जन्म 11 मार्च 1942 को पटियाला के एक शाही परिवार में हुआ था. महाराजा यादवेंद्र सिंह के बेटे अमरिंदर की पढ़ाई लिखाई कसौली के वेल्हम बॉयज स्कूल, स्नावर स्कूल और देहरादून के दून स्कूल में हुई. दो बार पंजाब के सीएम रहे अमरिंदर के लिए एक वक्त ऐसा भी था जब कांग्रेस में उनका अच्छा खासा दबदबा था. गांधी परिवार के करीबी माने जाते थे और अब उसी कांग्रेस के खिलाफ झंडा उठा रखा है.
कांग्रेस से बगावत कर बनाई पार्टी
साल 2021 सितंबर में पार्टी के साथ उनके कुछ ऐसे मतभेद हुए कि उन्होंने मुख्यमंत्री पद और दल, दोनों से ही इस्तीफा दे दिया था. इसके बाद उन्होंने पंजाब लोक कांग्रेस नाम से एक नई पार्टी का गठन किया. अब उनकी यह पार्टी भाजपा के साथ मिलकर पंजाब विधानसभा चुनाव 2022 के मैदान में उतर रही है. यह पहली बार नहीं है, जब अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस छोड़ी हो बल्कि इससे पहले उन्होंने 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के चलते कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था. इसके बाद वह 1998 में पार्टी में वापस लौटे और साल 2002 से 2007 और 2017 से सितंबर 2021 तक पंजाब के मुख्यमंत्री रहे.
कैप्टन का सियासी पारी का आगाज
कैप्टन अमरिंदर सिंह के पिता महाराजा यादवेंद्र सिंह पटियाला रियासत के अंतिम राजा थे. राज परिवार ताल्लुक रखने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भारतीय सेना में भी सेवाएं दी और 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में लड़े भी. 1980 के दशक में देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कहने पर अमरिंदर सिंह ने राजनीति में कदम रखा था. कांग्रेस को पंजाब में चेहरा चाहिए था और कैप्टन को भी एक मजबूत शुरुआत की दरकार थी.
ऐसे में राजीव गांधी ने अपने 'दोस्त' कैप्टन अमरिंदर सिंह पर भरोसा जताया और अमरिंदर ने जीत हासिल कर उस भरोसे को हमेशा के लिए जीत लिया. लेकिन फिर चार साल बाद जब गोल्डन टैंपल पर सैन्य कार्रवाई हुई, तो कैप्टन कांग्रेस से ही नाराज हो लिए. उनका गुस्सा ऐसा रहा कि उन्होंने एक झटके में कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और अकाली दल का दामन थाम लिया.
अमरिंदर को जब चुनावी मात मिली
कांग्रेस छोड़ने के बाद कैप्टन की पारी अकाली दल में ज्यादा लंबी नहीं चली. अकाली की सरकार में मंत्री जरूर बनाए गए थे, लेकिन सपने ज्यादा बड़े थे. आतंकवाद के इस कठिन दौर में 1987 में बरनाला सरकार को बर्खास्त कर केंद्र ने पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया. ऐसे में पंजाब की राजनीति में खुद को स्थापित करने के लिए कैप्टन ने साल 1992 में अपनी खुद की पार्टी बना डाली. नाम रखा- अकाली दल (पंथक). 6 साल अमरिंदर सिंह इस पार्टी के जरिए खुद को पंजाब का किंग बनाने की कोशिश करते रहे. लेकिन किंग बनना तो दूर उनकी राजनीति का सबसे बड़ा डाउनफॉल उसी दौर में देखने को मिल गया.
1998 जब पंजाब विधानसभा चुनाव में कैप्टन अमरिंदर अपनी पार्टी के दम पर सरकार बनाने के सपने देख रहे थे. खुद कैप्टन ने पटियाला सीट से लड़ने की ठानी थी. उम्मीद पूरी थी कि वे जीत का परचम लहरा देंगे. उनके सामने खड़े थे प्रोफेसर प्रेम सिंह चंदूमाजरा. कहा जा रहा था कि कांटे की टक्कर देखने को मिल सकती है. लेकिन मतगणना वाले दिन सारे प्रिडिक्शन फेल हो गए और प्रोफेसर प्रेम सिंह चंदूमाजरा ने इतने बड़े अंतर से जीत हासिल कर ली कि कैप्टन को अपने राजनीतिक करियर की सबसे बुरी हार का सामना करना पड़ा. उस चुनाव में कैप्टन की पार्टी तो बुरी तरह हारी ही, वे भी मात्र 856 वोट ले पाए.
1998 में कांग्रेस के कर्णधार बने
कैप्टन ने 1998 में अपने दल का कांग्रेस में विलय कर दिया. 1980 से राजनीति में स्थायी ठिकाना ढूंढ़ रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह को 1998 में सियासी ऊंचाई मिली. कांग्रेस आलाकमान ने कैप्टन को पंजाब में कांग्रेस की कमान सौंप दी. आपातकाल और आतंकवाद के बुरे दौर से गुजरी कांग्रेस को कैप्टन ने फिर से खड़ा किया. 2002 में हुए विधानसभा चुनाव में अमरिंदर के नेतृत्व में कांग्रेस को जीत हासिल हुई. ऐसे में 2002 में मुख्यमंत्री का ताज कैप्टन के सिर सजा. हालांकि 2007 में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई, लेकिन इसके बाद भी आलाकमान ने कैप्टन को दो बार प्रधान बनाकर अपना विश्वास दिखाया.
2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अमृतसर से भाजपा नेता अरुण जेटली को एक लाख से अधिक वोटों से हराया. इसके बाद कांग्रेस ने कैप्टन को लोकसभा में पार्टी के संसदीय दल का उपनेता नियुक्त किया, लेकिन अमरिंदर का दिल पंजाब में ही लगा रहा. उनके मन को देखते हुए आलाकमान ने 2017 में फिर से पटियाला के महाराज पर दांव खेला और बाजी अपने पक्ष में कर ली. साढ़े चार साल के बाद पंजाब की सियासत ने करवट ली और कैप्टन को सीएम की कुर्सी से हाथ धोना पड़ गया. ऐसे में कैप्टन ने अपनी सियासी राह कांग्रेस से अलग चुन ली और बीजेपी के साथ हाथ मिलाकर चुनावी मैदान में उतरे हैं.