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बुद्धदेव भट्टाचार्य: राजनेता नहीं तो, सफल लेखक होते

तीन बार पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे बुद्धदेव भट्टाचार्य भले ही इस बार चुनाव नहीं लड़ रहे हों लेकिन राज्य में वाम मोर्चे के वे सबसे प्रमुख चेहरा बने हुए हैं.

अमित कुमार दुबे
  • नई दिल्ली,
  • 30 मार्च 2016,
  • अपडेटेड 11:40 PM IST

तीन बार पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे बुद्धदेव भट्टाचार्य भले ही इस बार चुनाव नहीं लड़ रहे हों लेकिन राज्य में वाम मोर्चे के वे सबसे प्रमुख चेहरा बने हुए हैं. 70 साल से ज्यादा के हो चुके बुद्धदेव भट्टाचार्य के हौसले आज भी कायम हैं. सत्तारूढ़ टीमएसी को कड़ी चुनौती देने की रणनीति में जुटे हैं. 2011 में उनसे हुई गलती को पाटने में लगे हैं, जिसकी वजह से वाम दल की सरकार को ममता बनर्जी ने सत्ता से बेदखल कर दिया था.

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कांग्रेस के दिनों में ही पार्टी से जुड़े
बुद्धदेव भट्टाचार्य का जन्म 1 मार्च 1944 को पश्चिम बंगाल के कोलकाता में हुआ है. बुद्धदेव भट्टाचार्य की शुरुआती पढ़ाई कोलकाता से हुई और उसके बाद उन्होंने कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से बंगाली भाषा में ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की. उन्होंने 1666 में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ली और 1968 में पार्टी की ओर से उन्हें पश्चिम बंगाल डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन का सचिव बनाया गया. युवा जोश के साथ बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपने कामों से पार्टी में सबको प्रभावित किया और कामयाबी की सीढ़ी चढ़ते गए. पार्टी ने जो काम दिया उसे उन्होंने बेहतरीन तरीके से अंजाम दिया. 1977 में पहली बार कोस्सिपोरे से विधायक चुने गए और पश्चिम बंगाल सरकार में सूचना और जन संपर्क मंत्री बनाए गए.

हार के बावजूद पार्टी में पकड़
बुद्धदेव भट्टाचार्य को पहला झटका 1982 में लगा जब वे कोस्सिपोरे से चुनाव हार गए. लेकिन पार्टी में उनकी पकड़ मजबूत थी जिसके फलस्वरूप उन्हें 1985 में पार्टी ने सेंट्रल कमेटी का सदस्य बना दिया. साल 1987 में इन्होंने जादवपुर से चुनावी मैदान में उतरे और जीत हासिल की. साल 1996 में बुद्धदेव भट्टाचार्य को सूबे का गृह मंत्री बनाया गया. पश्चिम बंगाल में ये वो दौर था जब बुद्धदेव भट्टाचार्य के राजनीतिक सितारे सातवें आसमान पर थे. और 1999 में पश्चिम बंगाल के उप-मुख्यमंत्री पद से बुद्धदेव भट्टाचार्य नवाजे गए. साथ ही साल 2000 में इन्होंने पोलित ब्यूरो में अपनी जगह पक्की कर ली. पार्टी में इन्होंने अपनी पकड़ बेहद मजबूत कर ली थी. विरोधी भी इनका सामना करने से डरते थे. लेकिन बुद्धदेव भट्टाचार्य की नजर सीएम की कुर्सी पर थी और 2000 में वो पहली पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बनाए गए. और साल 2000 से 2011 तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज रहे.

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सिंगूर पर फैसले से बैकफुट पर
हालांकि 1993 में ही पार्टी में मची उथल-पुथल के बीच बुद्धदेव भट्टाचार्य का नाम उभरकर सामने आया था. इस दौर में पार्टी का सबसे बड़ा चेहरा ज्योति बसु थे. लेकिन बसु के उत्तराधिकारी के तौर पर पार्टी में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपनी दावेदारी पेश कर दी थी. इनके बेदाग राजनीतिक करियर ने दूसरे पार्टी नेताओं को पीछे छोड़ते हुए 2000 में सीएम की कुर्सी तक पहुंचा दी. इनकी अगुवाई में 2006 में पार्टी को बड़ी कामयाबी मिली. पार्टी ने 294 में से 199 सीटों पर जीत हासिल की. जानकार कहते हैं कि इनके दौरे में सिंगूर को लेकर पार्टी के गलत फैसले ने ममता बनर्जी को जनता के और करीब ला दिया. और इनकी पकड़ पार्टी में ढीली पड़ने लगी. जिस वजह से 2011 के विधानसभा चुनाव में ये खुद की सीट भी नहीं बचा पाए. टीएमसी के मनीष गुप्ता ने इन्हें शिकस्त दी और सत्ता ममता बनर्जी के हाथ पहुंच गई.

राजनेता नहीं तो कवि होते बुद्धदेव
बुद्धदेव भट्टाचार्य की मानें तो वो राजनेता नहीं होते तो एक सफल लेखक होते. बचपन में इन्हें बैलून उड़ाना बेहद पसंद था. मायकोवस्की की एक कविता से प्रेरित होकर बुद्धदेव भट्टाचार्य राजनीति में आ गए. तड़के उठना और रोज अखबार पढ़ना इनकी आदत में शुमार है. बुद्धदेव भट्टाचार्य क्रिकेट के भी दीवाने हैं और विदेश भ्रमण करना तो इनसे कोई सीखे. चीन, सोवियत संघ, क्यूबा, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस का दौरा कर चुके हैं. परिवार में पत्नी मीरा के अलावा एक बेटी सुचेतना हैं.

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