
कर्नाटक विधानसभा चुनाव-2023 का रिजल्ट आ चुका है. इस चुनावी परिणाम के बाद जहां कांग्रेस खेमे में दिवाली का माहौल है, तो वहीं बीजेपी के लिए ये समय आत्ममंथन का बन चुका है. कर्नाटक विस चुनाव, 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए एक लिटमस टेस्ट जैसा भी साबित हुआ. क्योंकि लगातार 10 साल के कार्यकाल के बाद बीजेपी आम चुनावों को तीसरी बार जीतने के लिए मैदान में उतरेगी. ऐसे में ठीक एक साल पहले पार्टी को कर्नाटक में मिली ये अप्रत्याशित हार एक मौके और संकेत की तरह है कि वह पहले जनता का मूड भांप कर उसके अनुसार अपनी स्ट्रेटजी में जरूरी बदलाव कर लें. कर्नाटक में कांग्रेस की जीत और बीजेपी की हार में 10 जरूरी बातें निकलकर सामने आती हैं, जानिए क्या हैं उनके मायने-
1. पीएम मोदी पर ओवर डिपेंडेंसी हो सकती है घातक
बेशक, साल 2014 का आम चुनाव मोदी लहर लेकर आया था और बीजेपी ने बहुमत का जादुई आंकड़ा हासिल करते हुए केंद्र की सरकार बनाई. ठीक यही बात साल 2019 के आम चुनावों के लिए भी सटीक बैठती है. इस बीच, जितने भी विधानसभा चुनाव या अन्य कोई उपचुनाव लड़े गए, एक तरीके से सभी के केंद्र में पीएम मोदी ही रहे हैं. कर्नाटक चुनाव ने ये साबित किया है, बार-बार पीएम मोदी पर ही चुनावी जीत के लिए निर्भर रहना बीजेपी के लिए घातक हो सकता है. 2024 से पहले कई राज्यों में विधानसभा चुनाव भी होने हैं, ऐसे में अब ये जरूरी हो जाता है कि प्रदेश में चुनाव जीतने के लिए स्थानीय नेता का लोकप्रिय होना जरूरी है. वह जनता के बीच पूरी ताकत से उनके बीच रहे और उनकी साथ की नजदीकी को वोट में बदलने में सक्षम हो.
2. स्टेट चुनाव के प्रमुख चेहरे की इमेज क्लीन होनी चाहिए. बोम्मई की छवि भारी पड़ी
बीजेपी के लिए संदेश है कि वह जब स्टेट इलेक्शन में इनवॉल्व हो रही है तो जरूरी है राज्य में पार्टी के तौर पर प्रमुख चेहरे की इमेज क्लियर हो. असल में बोम्मई कर्नाटक में सीएम थे, येदियुरप्पा बड़े नेता थे, लेकिन इलेक्शन के दौरान प्रमुख चेहरे के तौर पर इनकी इमेज कभी सामने नहीं रही, जबकि कांग्रेस में चाहे डीके शिवकुमार हों, सिद्धारमैया हों या जगदीश शेट्टार तीनों ही बड़े और नामी चेहरे थे.
3. स्थानीय मुद्दे राष्ट्रीय मुद्दों पर भारी पड़ सकते हैं
स्टेट इलेक्शन में अब राष्ट्रीय मुद्दों के बजाय स्थानीय मामलों-मुद्दों को भी उठाया जाना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता है तो स्थानीय मुद्दों के आधार पर जनता किसी को भी नकार सकती है. इस मामले में कांग्रेस ने पूरी रणनीति के तहत काम किया. उसने अडानी-हिंडनबर्ग मामले, राहुल गांधी की संसद सदस्यता जाने और ईडी-सीबीआई की कार्रवाई के मसलों को सिर्फ उतना ही उठाया, जितना कि वह चर्चा में बने रहें, लोगों के सामने कांग्रेस ने महंगाई, भ्रष्टाचार, लॉ एंड ऑर्डर और आरक्षण जैसे मुद्दों पर अधिक बात की. बीजेपी में इस बात की कमी दिखी.
4. हर जगह हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण नहीं चल सकता है
साल 2014 में बीजेपी के केंद्र में आने से ठीक पहले वेस्ट यूपी में दंगे हुए थे. नतीजा ये हुआ कि इनके बाद बीजेपी, जो कि काफी समय से यूपी में अपने लिए जमीन तलाश रही थी, उसे हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का लाभ मिला. कर्नाटक में भी बीजेपी ने ऐसी कोशिश की तो थी, लेकिन इसका असर नहीं हुआ. मुस्लिम आरक्षण खत्म करना भाजपा का बड़ा दांव था. चार प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण को खत्म करके लिंगायत और अन्य वर्ग में बांटने का ऐलान किया गया, लेकिन कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में आरक्षण का दायरा 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 75 फीसदी करने का ऐलान कर दिया. इसके अलावा हलाला, हिजाब और अजान जैसे बीजेपी के मुद्दे भी किसी काम नहीं आए. कांग्रेस ने बजरंग दल पर बैन की बात करके मुस्लिम वोट को अपने खेमे में कर लिया.
5. एंटी इनकंबेंसी पर काम चुनावी साल की जगह पहले किया जाए तभी फायदा है
कर्नाटक में बीजेपी के सामने जो सबसे बड़ी मुश्किल आई, वह एंटी इनकंबेंसी की थी. सत्ता विरोधी लहर को कांग्रेस ने 40 प्रतिशत कमीशन वाली सरकार बताकर और हवा दी. बीजेपी ने इस पर काम नहीं किया. इसके बाद पीएम मोदी ने इस चुनाव के केंद्र में खुद को प्लांट किया और एक कोशिश की, कि यह चुनाव विधानसभा का न होकर राष्ट्रीय बन जाए. वहीं, कांग्रेस अपने स्थानीय मुद्दों पर कायम रही. इसका फायदा कांग्रेस को ये हुआ कि उसे एंटी इनकंबेंसी का फायदा मिला.
गुजरात से समझिए एंटी इनकंबेंसी फैक्टर
इस बात को समझने के लिए , कर्नाटक से गुजरात चलिए और समय को सिर्फ 2 साल पीछे कर लीजिए. साल 2021 के मध्य में सीएम विजय रूपाणी हटा दिए गए और उनकी कैबिनेट भी बदल दी गई थी. नए सीएम के तौर पर भूपेंद्र भाई पटेल को शपथ दिलाई गई और इसी के साथ कैबिनेट में नए मंत्री भी शामिल किए गए. असल में कोरोना "कोरोना महामारी के दौरान बीजेपी सरकार की साख काफी गिरी थी और कोविड प्रबंधन को लेकर सरकार को तीखी आलोचना का सामना करना पड़ा था.' अगले ही साल विधानसभा चुनाव होने थे. ऐसे में सरकार (पीएम मोदी और अमित शाह) जनता तक ये संदेश देने में कामयाब रहे कि उनके लिए जनता पहले है, अपनी पार्टी के नेता बाद में. असल में गुजरात मॉडल को देशभर में पहले प्रचारित किया जा चुका था और अपने गृह राज्य से बीजेपी ऐसा कोई संदेश नहीं देना चाहती थी, जिससे की उसकी पकड़ ढीली होने का अंदाजा हो. इस तरह, विधानसभा चुनाव से साल भर पहले बीजेपी ने राज्य में बन रही एंटी इनकंबेंसी की आशंका और आक्रोश की लहर को समय रहते दबा दिया. कर्नाटक में बीजेपी इस दिशा में काम नहीं कर सके हैं.
6. कई राज्यों में आरएसएस की उपयोगिता सीमित हो सकती है
उत्तर भारत के राज्यों में आरएसएस का प्रभाव और कैडर बीजेपी की मदद करता है. कर्नाटक में आरएसएस का उतना प्रभाव नहीं है. इससे यह साबित होता है कि हिंदी पट्टी के राज्यों में तो यह लाभदायक हो सकते हैं, लेकिन दक्षिण के राज्यों में इनका कोई असर देखने को नहीं मिलेगा. बीजेपी सभी राज्यों को एक तरीके से ट्रीट नहीं कर सकती है.
7. एक जाति जीत की गारंटी नहीं हो सकती है. (सिर्फ लिंगायत पर भरोसा किया)
कर्नाटक चुनाव पूरे दौर में बीजेपी ने सिर्फ लिंगायतों पर भरोसा किया. यह कहा जाता है कि लिंगायत बीजेपी का समर्थन करते रहे हैं और वोक्कालिगा कांग्रेस का. कर्नाटक की सियासत में सबसे अहम और ताकतवर लिंगायत समुदाय को माना जाता है. लिंगायत समुदाय की आबादी 16 फीसदी के करीब है, जो राज्य की कुल 224 सीटों में से लगभग 67 सीटों पर खुद जीतने या फिर किसी दूसरे को जिताने की ताकत रखते हैं. लिंगायत समाज को कर्नाटक की अगड़ी जातियों में गिना जाता है, लेकिन उसे आरक्षण देने के लिए ओबीसी का दर्जा दिया जा चुका है. वहीं, वोक्कालिगा सिर्फ 11 फीसदी हैं. बीजेपी ने लिंगायतों की आबादी को ही अपने लिए कोर वोटर माना और उन पर ही केंद्रित रही. हालांकि जिस तरह के परिणाम सामने आएं हैं, स्पष्ट है कि लिंगायत वोटर भी बीजेपी से दूर हुए हैं. असल में येदियुरप्पा से जिस तरीके से सीएम पद लिया गया, उससे भी निगेटिव मैसेज गया है.
8. सिर्फ पार्टी के वोट ही काफी नहीं हैं.
किसी भी राज्य में चुनाव जीतने के लिए उम्मीदवार के अपने वोट भी ज़रूरी हैं. क्योंकि कर्नाटक में दर्जनों उम्मीदवार हर चुनाव में पार्टी बदल कर खड़े होते हैं लेकिन जीत जाते हैं. क्योंकि वे अपने साथ अपना वोट बैंक इंटेक्ट रखते हैं. जिस पार्टी में जाते हैं उसका वोट बैंक जुड़ते ही उनकी जीत काफी हद तक पक्की हो जाती है.
9. येदियुरप्पा जैसे स्थानीय दिग्गज नेताओं को तवज्जो ना देना पड़ेगा भारी
कर्नाटक में बीजेपी को प्रभुत्वशाली समुदाय लिंगायत-वीरशैव का समर्थन मिलता रहा है. प्रदेश में बीजेपी के दिग्गज नेता येदियुरप्पा भी इसी समुदाय से हैं. येदियुरप्पा की जगह बसवराज बोम्मई को बीजेपी ने भले ही मुख्यमंत्री बना दिया, लेकिन सीएम की कुर्सी पर रहते हुए भी बोम्मई का कोई खास प्रभाव नहीं नजर आया. बोम्मई को आगे कर चुनावी मैदान में उतरना बीजेपी को महंगा पड़ा. उधर, कांग्रेस के पास डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया जैसे मजबूत चेहरे थे. इसका लाभ कांग्रेस को मिला.
10. कांग्रेस को मिला दलित वोटर्स का साथ
कर्नाटक चुनाव से पहले ही मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस अध्यक्ष बने थे. खड़गे के चेहरे पर बड़ी संख्या में दलितों वोटर कांग्रेस की तरफ चले गए, भाजपा इसकी काट भी नहीं निकाल पाई. जबकि गुजरात इलेक्शन में 27 आदिवासी सीटों पर फोकस करते हुए उसने खास रणनीति बनाई थी. इसी रणनीति की वजह से भाजपा ने लगभग 25 सीटों पर जीत हासिल की थी.
दरअसल, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु के रूप में पहली बार एक आदिवासी को राष्ट्रपति बनाए जाने की बात को जमकर प्रचारित किया. साथ ही केंद्र के आदिवासी मंत्रियों के लगातार गुजरात दौरे करवाए. आदिवासी गौरव यात्राएं निकालीं. जगह-जगह आदिवासियों को सम्मानित किया गया. गुजरात-मध्यप्रदेश-राजस्थान की सीमा पर आदिवासियों के बड़े धार्मिक नेता गोविंद गुरु की याद में मानगढ़ धाम में स्मारक बनवाया. सीएम सहित तीनों राज्यों के भाजपा अध्यक्षों को इस कार्यक्रम में बुलाया., लेकिन ऐसा कुछ भी कर्नाटक में देखने को नहीं मिला.