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केरलः धारा के खिलाफ चांडी

सत्ता विरोधी माहौल के साथ चांडी को इस बार इतिहास की चुनौती से भी लड़ना पड़ रहा है, जहां सरकारें बारी-बारी से बदलती रही हैं. वाम मोर्चा फायदे में दिख रहा है पर बीजेपी की अगुआई में तीसरा मोर्चा उसका खेल बिगाड़ सकता है.

जीमोन जैकब
  • तिरुअनंतपुरम,
  • 01 अप्रैल 2016,
  • अपडेटेड 6:18 PM IST

वर्ष 1980 से केरल ने सीपीएम की अगुआई वाले लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) और कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) को बारी-बारी से सत्ता में चुनकर एक किस्म का संतुलन कायम रखा है. यहां की चुनावी राजनीति का मुख्य लक्षण जाहिर तौर से सत्ता विरोधी माहौल है यानी यह समझदारी कि किसी भी सत्ताधारी गठबंधन को अपने संभावित कुकृत्यों का पश्चाताप करने के लिए कुछ दिन तक सत्ता से बाहर रहना होता है. प्रतिष्ठित वास्तुकार प्रो. यूजीन पंडाला मानते हैं कि यह केरल के लिए वरदान ही है, “अब तक किसी भी पार्टी ने उस पर अपना कब्जा नहीं जमाया है. हम अपने विकल्प खुले रखते हैं, दाएं-बाएं डोलते रहते हैं लेकिन लोगों का अपनी पसंद के हिसाब से वोट करने का अधिकार बचाए रखते हैं.”

प्रोफेसर की यह समझ दरअसल केरल के उस परंपरागत चुनावी परिदृश्य से आती है जिसमें वर्षों से हर चुनाव में केवल दो सियासी मोर्चे ही मजबूती के साथ मौजूद रहे हैं. इस बार का विधानसभा चुनाव उस परिदृश्य को तोड़ रहा है और यहां की राजनीति बुनियादी रूप से बदलने का संकेत दे रही है. यह संकेत बीजेपी और भारतीय धर्म जन सेना (बीडीजेएस) के गठजोड़ से उभरने वाले एक संभावित तीसरे मोर्चे से आ रहा है जो पारंपरिक सियासी संतुलन को बिगाड़ सकता है.

बीडीजेएस हिंदुओं के एझावा समुदाय की नुमाइंदगी करने वाला एक नया सियासी मंच है जो केरल की 3.33 करोड़ आबादी में 23 फीसदी हिस्सेदारी रखते हैं. बीजेपी ने इस पार्टी के साथ केवल केरल विधानसभा में खाता खोलने के लिहाज से ही गठजोड़ नहीं किया है बल्कि उसे उम्मीद है कि उसके विधायकों की संख्या दो अंकों में जा सकती है. इस उम्मीद में दम है क्योंकि यहां के वोटों में एक तो बीजेपी का परंपरागत हिस्सा 6 फीसदी रहा है, दूसरे यह कि 2015 के स्थानीय निकाय के चुनावों में उसे 15.3 फीसदी वोट मिले हैं. राज्य बीजेपी के एक नेता आत्मविश्वास के साथ कहते हैं, “हमारी निगाह 24 फीसदी वोटों पर है.” कागज पर उनका गणित ठीक जान पड़ता है, पर केरल की खासियत यह है कि यहां का जातिगत समीकरण दलों के हिसाब से हमेशा तय नहीं होता.

राजनैतिक टिप्पणीकार ए. जयशंकर कहते हैं, “चुनाव में जाति बेशक एक निर्णायक भूमिका निभाती है, पर केरल में एलडीएफ  और यूडीएफ दोनों का ही अपना-अपना ठोस वोटबैंक है. ईसाई और मुसलमान मोटे तौर पर यूडीएफ  के साथ हैं. एझावा, दलित और लातिनी कैथोलिकों का एक तबका तथा नायर समुदाय एलडीएफ के साथ हैं. दोनों ही धड़ों की सियासी ताकत तकरीबन बराबर है. यहां जीत सत्ता विरोधी माहौल और तटस्थ वोटों से तय होती है.”

बीजेपी की एक दिक्कत यह भी है कि दूसरा वर्चस्वशाली हिंदू समुदाय नायर तीसरे मोर्चे के साथ नहीं जा रहा क्योंकि उसकी नुमाइंदगी करने वाली नायर सर्विस सोसाइटी ने ऐसा ही तय किया है. 2011 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को इस समुदाय के 11 फीसदी वोट मिले थे, यानी हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण अब भी केरल के लिए एक सुदूर संभावना ही है.

तीसरे मोर्चे के बनने से हालांकि उम्मन चांडी के यूडीएफ को कुछ राहत है चूंकि यह सत्ता विरोधी मतों को बांटने की क्षमता रखता है. मुख्यमंत्री और उनके वफादारों का मानना है कि तीसरे मोर्चे को अगर 19 फीसदी वोट पड़ गए तो यूडीएफ  बड़ी आसानी से 71 सीटों का बहुमत हासिल कर सकता है. कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, “यूडीएफ  हमेशा से ही राज्य के 35 क्षेत्रों में ताकतवर रहा है जबकि एलडीएफ की पकड़ 40 क्षेत्रों में है. असली लड़ाई 65 विधानसभा क्षेत्रों में होनी है. 2011 में पांच क्षेत्रों में जीत का अंतर 600 वोट से कम रहा था. बीजेपी के एक ताकतवर मोर्चे के रूप में सामने आने से यूडीएफ को आसानी से 75-80 सीटें मिल सकती हैं.” पार्टी को महिला मतदाताओं का भी सहारा है जो राज्य में पार्टी की ओर से लागू की गई शराबबंदी के समर्थन में हैं.

सीपीएम नेतृत्व स्थानीय निकाय के आखिरी चुनावों के नतीजे की ओर इशारा करता है जिसमें बीजेपी की मौजूदगी के बावजूद यूडीएफ  की हार हुई थी. पार्टी की केंद्रीय कमेटी के सदस्य ए. विजयराघवन कहते हैं, “हमें पूरी उम्मीद है कि हम चुनाव जीतेंगे. घोटालों, बुनियादी चीजों के दाम में इजाफा, गिरती कानून व्यवस्था आदि के हालात में कौन चांडी सरकार को वोट देगा?”

मार्च में केरल का सियासी तापमान जबरदस्त बढ़ा हुआ है और एक भी नेता ऐसा नहीं है जिसने इसे महसूस न किया हो. अप्रैल के पहले हफ्ते में मोर्चे बिल्कुल साफ हो जाएंगे जब सभी दल अपने उम्मीदवार तय कर लेंगे. हर मोर्चे के लिए यहां जीने और मरने की लड़ाई शुरू हो चुकी है.

जनता का आदमी
उम्मन चांडी, जिन्हें उनके वफादार “कुंजूंजु” कह कर बुलाते हैं, केरल की राजनीति में अद्भुत शख्सियत हैं. 72 वर्षीय चांडी राज्य में शायद सबसे ज्यादा लोकप्रिय और व्यावहारिक नेता हैं. उन्होंने कई सियासी तूफानों को बड़ी कुशलता झेला है, चाहे वह जबरदस्त धड़ेबाजी रही हो या फिर सेक्स ऐंड फेवर्स सोलर, बार रिश्वत कांड, सरकारी जमीन जैसे घोटालों की लंबी फेहरिस्त.

आखिर केरल की राजनीति में वे इतने कद्दावर कैसे बने? पहली बात तो यह है कि दो कार्यकालों के दौरान उन्होंने राजकाज में गुणात्मक सुधार किए हैं. मास कॉन्टैक्ट प्रोग्राम जैसी उनकी योजनाओं ने करीब आठ लाख लोगों की मदद की है. मुख्यमंत्री के प्रेस सचिव पी.सी. चाको कहते हैं, “आप उनसे राजनैतिक रूप से असहमत हो सकते हैं, पर उम्मन चांडी ने केरल के विकास को दोबारा पटरी पर ला दिया है. उन्हीं के कार्यकाल में स्मार्ट सिटी, मेट्रो रेल, कन्नूर एयरपोर्ट, विझिंजम अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह आदि बड़े निवेश वाली परियोजनाएं लाई गईं.”  

उनके चाहने वाले चांडी की शैली के मुरीद हैं पर उनके विरोधी चांडी को “सिद्धांतविहीन और नैतिकताविहीन व्यक्ति” मानते हैं. सीपीएम से चार बार सांसद रहे सुरेश कुरुप कहते हैं, “हो सकता है कि मुख्यमंत्री की जनता की नब्ज पर पकड़ हो पर उनके अधिकतर फैसले विवादास्पद होते हैं और उनमें पारदर्शिता की कमी होती है.”

चांडी महज 26 साल की उम्र में पहली बार 1970 में कोट्टायम के पुथुपल्ली से विधानसभा में चुनकर आए थे. तब से अब तक पुथुपल्ली ने उन्हें हर बार ज्यादा बहुमत के साथ लगातार 46 साल तक चुना है. सीपीएम ने इस बार अपनी छात्र इकाई एसएफआइ के राज्य अध्यक्ष जैक सी. थॉमस को उनके खिलाफ  उतारा है. जैक 26 साल के हैं और पुथुपल्ली के लिए सियासी रूप से बिल्कुल नए हैं. यह उनका पहला चुनाव है जिसमें वे सबसे कद्दावर नेता को चुनौती दे रहे हैं. इस लड़ाई का एक इतिहास इस रूप में खुलता है कि चांडी ने भी 26 साल की उम्र में यहां से सीपीएम के पुराने नेता ई.एम. जॉर्ज के खिलाफ अपना चुनावी खाता खोला था. चांडी के खिलाफ कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने आक्रामक प्रचार अभियान शुरू कर दिया है और आने वाले दिनों में दिखेगा कि यह युवा तुर्क पुथुपल्ली के “कुंजूंजु” को कैसी टक्कर दे पाता है.

सीपीएम के गॉडफादर  
वेलिक्ककथु संकरन अच्युतानंदन यानी वीएस भारतीय राजनीति में अलहदा शख्स हैं. वे 92 साल के हो चुके हैं और अपनी पार्टी सीपीएम के भीतर व बाहर लंबे वक्त से उनका विरोधियों से टकराव चलता रहा है. वैसे उनके कई चाहने वाले मानते हैं कि जब चुनाव की बात हो, तो उन्हें टक्कर देने वाले शायद कुछ ही लोग मौजूद हों.

वीएस की तरह पार्टी के पूर्व सचिव और पोलित ब्यूरो सदस्य 72 वर्षीय पिनराई विजयन भी कद्दावर नेता हैं जिनकी पार्टी पर मजबूत पकड़ है. पार्टी के भीतर बीते 12 वर्षों के दौरान दोनों के बीच वर्चस्व की भीषण लड़ाई चलती रही है. दोनों नेताओं के चाहने वाले बराबर हैं-पिनराई यदि राज्य कमेटी पर नियंत्रण रखते हैं तो सड़कों व गलियों में मौजूद सीपीएम के काडर अब भी वीएस के प्रति वफादार हैं.

इसलिए इस बार सीपीएम के पोलितब्यूरो ने जब चुनावों में दोनों को उतारने और फिलहाल के लिए मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का सवाल दरकिनार रखने का फैसला लिया तो इसे रणनीतिक समझौते के रूप में देखा गया. सीताराम येचुरी 2015 में जब पार्टी के महासचिव बने थे तो उनके सामने केरल को लेकर एक जरूरी काम था-आपस में लड़ रहे धड़ों के बीच अमन कायम करना. उनका हस्तक्षेप प्रभावशाली रहा चूंकि वीएस को उन पर काफी भरोसा है और इसलिए भी क्योंकि उन्होंने नेताओं को यह बात समझा दी कि “एकता के बगैर पार्टी का हश्र बंगाल जैसा हो जाएगा.”

इंडिया टुडे ने तिरुअनंतपुरम के एकेजी सेंटर में जब पिनराई से मुलाकात की, तो वे पूरे आत्मविश्वास में दिखे कि सीपीएम चुनाव में जीत रही है. उन्होंने कहा, “सियासी माहौल हमारे पक्ष में है. लोग इंतजार कर रहे हैं कि भ्रष्ट चांडी सरकार को हटाने के लिए उन्हें वोट करने का मौका कब मिलता है.” वीएस के बारे में वे ज्यादा कूटनीतिक दिखे, “वीएस हमारे वरिष्ठतम नेता हैं. उनसे मतभेद होता है तब भी मैं पूरे सम्मान के साथ उनके सामने उसे जाहिर करता हूं. मैं किसी से असहमत हूं, इसका मतलब यह तो नहीं कि वह मेरा दुश्मन हुआ.”

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