एक के हाथ में 37 सांसदों वाली देश की तीसरी सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी की कमान है, तो दूसरी 35 सांसदों वाली देश की चौथी सबसे बड़ी पार्टी की नेता है. दोनों ने पहली बार 1984 में संसद में प्रवेश किया था. पहली ने राज्यसभा तो दूसरी ने लोकसभा के रास्ते. दोनों ही उम्र में साठ पार और अविवाहित हैं. दोनों को निरंकुश और सनकी कहा जाता है लेकिन असल में दोनों ही प्रतिभाशाली और करिश्माई हैं. दोनों ठीक-ठाक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुईं. एक ने तमिलनाडु में हाइस्कूल की परीक्षा में शीर्ष स्थान हासिल करने के बाद 140 दक्षिण भारतीय फिल्मों में अभिनय किया. दूसरी ने कानून, शिक्षाशास्त्र और इतिहास में पढ़ाई की और उनका मन कविता व चित्रकारी में रमता है.
काफी छोटी उम्र में राजनीति में आने के लिए दोनों को ही पुरुष सत्ता और उच्च वर्ग के प्रभुत्व के खिलाफ जंग लडऩी पड़ी. दोनों में कोई भी कट्टर नारीवादी तो नहीं है, लेकिन दोनों में वह माद्दा है जिस पर नारीवादी आंदोलन को नाज हो सकता है. दोनों का अपना खास वजूद है और दोनों ने ही इस समाज में औरतों के लिए तय हदों को तोड़ा हैः एक ने लड़खड़ाती हुई राजनैतिक पार्टी को दोबारा खड़ा किया तो दूसरी ने अपनी मूल पार्टी को चुनौती देकर अपनी अलग पार्टी खड़ी कर ली. आज दोनों ही औरतें अपनी-अपनी पार्टी की सुप्रीमो हैं और उन दो राज्यों की मुख्यमंत्री हैं जहां इसी अप्रैल और मई में चुनाव हो रहे हैं. एक को लोग प्यार से अम्मा कहते हैं तो दूसरी को दीदी. देश की सियासत में ये दो लौह महिलाएं हैं तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी.
इन समानताओं को छोड़ दें तो दोनों के बीच भारी अंतर है. ममता की छवि सत्ता विरोधी है- सादगीपूर्ण, अक्सर सिलवटों से भरी सूत की बंगाली साड़ी में दिखने वाली, रबड़ की चप्पल पहने हुए, न कोई साज-सज्जा, न ही कोई आभूषण, और ठिकाना कोलकाता की हरीश चटर्जी स्ट्रीट पर एक मामूली-सा मकान. उनके कुछ सहयोगी भले ही शारदा घोटाले में फंसे हुए हों लेकिन खुद उनकी छवि बेदाग है. बुनियादी तौर पर सड़क की योद्धा इस महिला ने अकेले दम पर 34 साल पुराना सीपीएम का राज खत्म किया और इस “मा, माटी, मानुष” की जंग का नारा दिया.
उनके ठीक उलट जयललिता भड़कीली छवि वाली महिला हैं. वे बेहद महंगी साडिय़ां बड़े करीने से पहनती हैं, पोए गार्डेन के बेहद आलीशन बंगले में रहती हैं, फिर भी वे पुराची तलैवी यानी इंकलाबी नेता हैं तो इसलिए कि उन्होंने अपने मतदाताओं के लिए सब्सिडी की कई योजनाएं लागू की हैं. मोदी लहर के बावजूद 2014 में उन्होंने तकरीबन सारी सीटों (39 में से 37) पर जीत हासिल की थी और अपनी प्रतिद्वंद्वी डीएमके को धूल चटाई थी.
दोनों के मन में प्रधानमंत्री बनने की बड़ी महत्वाकांक्षा है. इन दोनों ने सत्ता विरोधी माहौल को अपने-अपने राज्यों में निबटाकर दोबारा कुर्सी हासिल कर ली, तो समझिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गले की ये ऐसी फांस बन सकती हैं जो किसी संभावित तीसरे मोर्चे की ओर से अहम चुनौती की शक्ल ले सकती है.
इसके बावजूद, राजनीति इसलिए राजनीति है क्योंकि यहां कभी भी कुछ भी घट सकता है. 2014 में “नमो” की लहर ने देश के राजनैतिक परिदृश्य को बदल डाला है. उस साल बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में अपना रास्ता बनाया था और वहां की दो प्रतिष्ठित सीटों (सीपीएम के बराबर) आसनसोल और दार्जिलिंग पर कब्जा जमाया था. तमिलनाडु में बीजेपी ने कन्याकुमारी की सीट जीती और उसकी गठबंधन सहयोगी पीएमके को भी एक सीट मिली.
पश्चिम बंगाल में ममता के सामने इन गर्मियों में जो चुनौती दरपेश है, उसे समझने के लिए एक आकलन लगाते हैं. विशुद्ध गणित के हिसाब से देखें तो सीपीएम-कांग्रेस का चुनाव-पूर्व गठजोड़ राज्य में काफी ताकतवर होगा क्योंकि 2011 के विधानसभा चुनावों में दोनों को मिलाकर 41.04 फीसदी वोट मिले थे जबकि अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को 39 फीसदी वोट आए थे. छोटी वामपंथी पार्टियां गठबंधन को और मजबूत बना रही हैं. ममता को कम से कम पांच फीसदी वोटों का बदलाव चाहिए, ताकि वे इस समस्या से पार पा सकें. इसी गणित के सहारे सीताराम येचुरी और मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार सूर्यकांत मिश्र ने गठजोड़ करने का फैसला किया.
मगर राजनीति सिर्फ गणित नहीं होती. कांग्रेस साठ के दशक से ही सीपीएम की परंपरागत प्रतिद्वंद्वी रही है. दुश्मन से दोस्त बने इन दोनों दलों के बीच वोटों का हस्तांतरण जमीनी स्तर पर बेहद कठिन है. क्या पश्चिम बंगाल का महागठबंधन बिहार जैसा कोई जादू कर सकेगा?
अगर 2014 के लोकसभा चुनावों को पैमाना मानकर चलें, तो ममता फायदे में दिखती हैं क्योंकि टीएमसी को 40 फीसदी वोट पड़े थे जो वाम और कांग्रेस के मिले-जुले वोटों से ज्यादा थे. सवाल है कि 2016 में क्या विधानसभा चुनावों का गणित काम करेगा या लोकसभा चुनाव का? भारतीय राजनीति में गठबंधन के फायदों के मद्देनजर कहा जा सकता है कि 2011 के विधानसभा चुनाव में सीपीएम की 40 सीटों के मुकाबले 184 सीटें लाने वाली टीएमसी की सीटों में इस बार थोड़ी कमी आएगी.
तमिलनाडु में जयललिता के समक्ष सत्ता विरोधी माहौल का खतरा ज्यादा है. आय से अधिक संपत्ति के मामले में अदालत उन्हें दोषी ठहरा चुकी है और इस पर सुप्रीम कोर्ट से फैसला आना अब भी बाकी है. इसके अलावा उनकी सेहत भी गिरती जा रही है. डीएमके को कांग्रेस के साथ गठजोड़ करके लाभ मिल सकता है. यहां 1989 के बाद से ही दो द्रविड़ दलों के बीच सत्ता का बंटवारा होता रहा है लेकिन 2016 में तमिलनाडु में डीएमडीके के कैप्टन विजयकांत के नेतृत्व में दो वाम दलों समेत चार अन्य दलों के गठबंधन का एक तीसरा मोर्चा भी खड़ा हो चुका है जो अहम भूमिका निभा सकता है. ऐसे में बीजेपी अलग-थलग पड़ गई है इसलिए शायद उसका प्रदर्शन 2014 के मुकाबले भी खराब रहे.
गठबंधन का समीकरण ही 2016 में राजनैतिक समीकरण समेत चुनावी परिणाम को शक्ल देगा. इसके अलावा मतदाताओं का घर से निकलना भी अहम होगा. तीनों तटवर्ती राज्यों में साक्षरता की दर ज्यादा है जो मतदान की उच्च दर का संकेत है. उच्च मतदान दर ने परंपरागत रूप से सत्ता-विरोधी को ही लाभ पहुंचाया है.
सभी चारों राज्य उस हिंदी पट्टी से दूर हैं जो बीजेपी का पारंपरिक गढ़ है. इसके बावजूद 2014 की सियासी सूनामी का सबसे ज्यादा असर असम में देखा गया था जिसने कांग्रेस को सिर्फ तीन सीटों पर समेट दिया था जबकि कुल 14 में से बीजेपी को सात लोकसभा सीटों पर जीत मिली थी. इस बार असम गण परिषद और बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट के साथ गठजोड़ करने के बाद बीजेपी आराम की स्थिति में है. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह कहते हैं, “बीजेपी चार में से तीन राज्यों में अपनी स्थिति को सुधारने का काम करेगी लेकिन असम में वह सरकार बनाने की कोशिश करेगी.”
इन चुनावों में सबसे ज्यादा चुनौती किसी के लिए है तो वह कांग्रेस है क्योंकि केरल और असम में वह सत्ता में है. विडंबना देखिए कि केरल में उसे चुनौती उसी वाम मोर्चे से मिल रही है जो बंगाल में उसका गठबंधन सहयोगी है. असम में कांग्रेस को बीजेपी-एजीपी-बीपीएफ के गठजोड़ से चुनौती मिल रही है. केरल में कांग्रेस के पक्ष में सिर्फ 0.89 फीसदी वोट खिसकने से 2011 में वाम मोर्चा हार गया था और उम्मन चांडी की अगुआई में यूडीएफ को सरकार में ला दिया था. इसे समय का क्रूर मजाक ही कहा जाएगा कि आज उम्मन चांडी की सरकार को इस बात से राहत मिल रही है कि बीजेपी ने राज्य में अपनी जगह बना ली है. चांडी को लगता है कि बीजेपी 23 फीसदी आबादी वाले एझावा समुदाय में सेंध लगा लेगी जो परंपरागत रूप से वाम का आधार रहा है और इसका फायदा कांग्रेस को होगा.
इन चारों राज्यों की सामाजिक बुनावट के चलते अतीत में बीजेपी यहां कदम नहीं रख सकी है. चार में से तीन राज्यों में तो अल्पसंख्यकों के वोट काफी ज्यादा हैं. केरल की आबादी में मुसलमान 27 फीसदी हैं तो ईसाई 18.5 फीसदी हैं. असम में मुसलमानों की आबादी 34 फीसदी से ज्यादा है जबकि बंगाल में वे 27 फीसदी हैं. तमिलनाडु इकलौता राज्य है जहां मुसलमान 5.86 फीसदी हैं, 6.12 फीसदी ईसाइयों से कुछ कम. द्रविड़ राजनीति वैसे भी धर्म के मुकाबले दो राजनैतिक खेमों में ज्यादा बंटी हुई है.
विधानसभा चुनाव अगर राज्यों की सरहद से आगे का पता देते हों, तो 2016 में यह जरूर पता लग जाएगा कि कांग्रेस का ऐतिहासिक पतन होना है या नहीं, वाम दल अप्रासंगिक हो चुके हैं या नहीं, मोदी की अगुआई में बीजेपी की लहर हिंदी पट्टी के पार जाकर जम चुकी है या नहीं और भारतीय राजनीति की दो लौह महिलाएं 2019 में बीजेपी के लिए अभिशाप बन पाएंगी या नहीं.