
तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है और राजनीतिक दलों की ओर से मिशन मोड में प्रचार भी करना शुरू हो गया है. राज्य की सभी सीटों पर इस बार 6 अप्रैल को वोट डाले जाएंगे. तमिलनाडु ना सिर्फ दक्षिण बल्कि पूरे भारत के सबसे बड़े राज्यों में से एक है. ऐसे में यहां पर राजनीति के मुद्दों का असर पूरे देश में पड़ता है.
अक्सर तमिलनाडु की बात आते ही, सबसे बड़ा मसला भाषा का उठता है. तमिलनाडु की तमिल भाषा दुनिया की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक है, लेकिन क्योंकि भारत में हमेशा से ही केंद्र की सत्ता में उत्तर भारतीयों और हिन्दी भाषियों का वर्चस्व रहा है, तो तमिलनाडु में हिन्दी थोपने के मसले को लेकर काफी विवाद रहा है.
तमिलनाडु में भाषा की जंग का असर चुनावी माहौल पर भी पड़ता है. जहां राज्य की क्षेत्रीय पार्टियां तमिल अस्मिता को मुद्दा बनाती हैं और राष्ट्रीय दलों पर उसका असर पड़ता है. मौजूदा वक्त में भारतीय जनता पार्टी और AIADMK एक साथ चुनावी मैदान में हैं, तो वहीं डीएमके और कांग्रेस एक साथ चुनाव लड़ेंगे. ऐसे में तमिलनाडु के चुनाव में हिन्दी बनाम तमिल की जंग किस ओर बढ़ती दिख रही है या इसका इफेक्ट क्या रहा है, एक नज़र डाल लेते हैं...
मौजूदा वक्त में क्या है तमिल भाषा का मुद्दा?
अगर मौजूदा दौर की बात करें तो एक बार फिर तमिल भाषा का मुद्दा गर्म हुआ है. केंद्र की मोदी सरकार ने जब नई शिक्षा नीति लॉन्च की, तो उसमें अंग्रेजी और हिन्दी पढ़ाने को लागू करने के बाद पर बवाल हुआ था. नई शिक्षा नीति तीन भाषाओं वाले सिस्टम को लागू करना चाहती थी, जिसमें स्थानीय भाषा के साथ अंग्रेजी, हिन्दी भी शामिल रहे. लेकिन तमिलनाडु ने इसका पुरजोर विरोध किया और हिन्दी थोपने का आरोप लगाया गया.
तमिलनाडु में चुनावों से पहले इसका काफी असर भी दिखा. अब जब चुनावी माहौल बन चुका है, तब हाल ही में तमिलनाडु दौरे पर गए कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने लोगों को भरोसा दिलाया कि तमिल ही यहां की पहली भाषा रहेगी, कोई भी आपपर कोई अन्य भाषा नहीं थोप सकेगा. यानी कांग्रेस-डीएमके गठबंधन इस मुद्दे को आगे ले जाने की तैयारी में है.
भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर असर...
भारतीय जनता पार्टी लंबे वक्त से दक्षिण की राजनीति में अपनी धाक जमाने की कोशिश कर रही है. और तमिलनाडु इसमें मुख्य एजेंडे में है, तभी भाजपा और AIADMK एक साथ मैदान में हैं. भारतीय जनता पार्टी का वर्चस्व अभी उत्तर भारत में है, साथ ही बीजेपी हिन्दी को लेकर आक्रामक रुख अपनाती भी आई है.
यही कारण है कि बीते 7 साल में प्रधानमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी जब भी तमिलनाडु गए हैं, तब उनका विरोध जरूर हुआ है. फिर चाहे सोशल मीडिया पर गो बैक मोदी का ट्रेंड करना हो या फिर कहीं पर काले झंडे दिखाना. भाजपा के लिए सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि तमिलनाडु के लोगों के मन में उनकी छवि हिन्दी थोपने वाली पार्टी के रूप में हो गई है.
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने मन की बात कार्यक्रम में एक सवाल का जवाब देते हुए कहा कि उनमें एक कमी ये रह गई कि वो तमिल भाषा को नहीं सीख पाए, उनकी काफी कोशिश भी रही. ऐसे में इस बयान के भी क्या सियासी मायने निकलते हैं, इसपर सभी की नज़रें रहेंगी.
क्या कहता है हिन्दी बनाम तमिल का इतिहास...
तमिलनाडु में हिन्दी थोपने का मुद्दा आज से नहीं बल्कि आजादी से पहले से ही चल रहा है. कई बार इसको लेकर आंदोलन हुए, सड़कों पर बवाल हुआ और चुनावों का मूड बदल गया. अगर इतिहास के पन्नों को खंगालें तो पता लगता है कि 1930-40 के वक्त में मद्रास में तब की कांग्रेस सरकार पर आरोप लगा था कि वह हिन्दी को थोपने का काम कर रही है.
लेकिन तब पेरियार और अन्य एक्टिविस्ट की अगुवाई में इसका कड़ा विरोध किया गया. आरोप लगाया गया कि हिन्दी के जरिए द्रविड़ कल्चर को खत्म किया जा रहा है ऐसे में तमिलनाडु फॉर तमिल का स्लॉग चलाया गया. जिसके कुछ वक्त कांग्रेस की सरकार को अपने कदम पीछे हटाने पड़े.
उसके बाद एक दौर फिर 1960 के दशक में आया, जब स्टूडेंट्स के प्रोटेस्ट से शुरू हुई जंग राजनीतिक हो गई और उस वक्त तमिलनाडु में काफी हिंसा भी हुई थी. इस पूरे आंदोलन की अगुवाई डीएमके ने की थी, जिससे उसे भी बड़ी पहचान मिली थी. इसी दौर में जब 1964 में जवाहर लाल नेहरु का निधन हुआ, तब तमिल लोगों में काफी गुस्सा आया.
क्योंकि तमिलनाडु के लोगों को डर था कि जवाहर लाल नेहरु से जो तमिल को बचाने का भरोसा मिला था, वो आगे नहीं चल पाएगा. ऐसे में तमिलनाडु में फिर इसको लेकर काफी विवाद हुआ था. हालांकि, इस दौर से पहले ही संविधान सभा के जरिए तमिलनाडु ने हिन्दी को ना थोपे जाने का रास्ता तैयार किया.
तमिलनाडु में अग्रेजी को आधिकारिक भाषा के तौर पर लाया गया. यही कारण रहा कि 1960-70 के दशक के बाद तमिलनाडु में हिन्दी विरोध कोई आंदोलन का रुप नहीं ले पाया, क्योंकि वहां के लोग उस चैप्टर को बंद कर चुके थे. लेकिन अब जब फिर से चुनाव सिर पर हैं, तो इसका क्या रंग दिखाई देता है उसपर हर किसी की नजर रहेगी.