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UP: क्या बार्गेनिंग की पोजिशन में हैं चंद्रशेखर? चुनाव में उतरने से किसे नफा-किसे नुकसान?

UP Election news: अखिलेश यादव के साथ गठबंधन न होने के बाद दलित नेता चंद्रशेखर आजाद ने अकेले दम चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है. साथ ही चंद्रशेखर सपा और अखिलेश के खिलाफ दलित नैरेटिव गढ़ने में जुटे हैं. ऐसे में आजाद समाज पार्टी के यूपी में अकेले चुनावी मैदान में उतरने से किसे सियासी नफा और किसे नुकसान होगा?

आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली ,
  • 19 जनवरी 2022,
  • अपडेटेड 12:09 PM IST
  • यूपी में 21 फीसदी दलित वोटर काफी अहम
  • चंद्रशेखर-मायावती एक ही समाज से आते हैं
  • चंद्रशेखर आजाद यूपी में अकेले लड़ेंगे चुनाव

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सपा प्रमुख अखिलेश यादव और आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद के बीच गठबंधन लगभग तय हो चुका था, लेकिन सीटों पर सहमति नहीं बन सकी. ऐसे में चंद्रशेखर ने अब अकेले चुनावी मैदान में उतरने का फैसला किया है और 33 सीटों पर उम्मीदवार उतारने की घोषणा भी कर दी है. साथ ही अखिलेश यादव के खिलाफ दलित नैरेटिव भी बनाने में जुट गए हैं. देखना है कि चंद्रशेखर अकेले यूपी चुनाव लड़कर किसे नफा और किसे नुकसान पहुंचाते हैं? 

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अखिलेश यादव इस बार तमाम छोटी-छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ रहे हैं. इसी कड़ी में भीम आर्मी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद को साथ लेने की कवायद थी, जिसके लिए अखिलेश यादव के साथ उनकी दो मुलाकातें भी हुईं. सपा ने चंद्रशेखर को गठबंधन में दो सीटें देने के लिए तैयार हो गई थी. सहारनपुर जिले की रामपुर मनिहारन और एक सीट गाजियाबाद की थी. सपा के इस प्रस्ताव पर चंद्रशेखर राजी नहीं हुए और उन्होंने गठबंधन से अलग अपनी सियासी राह तलाश ली. 

सपा को क्या होगा सियासी नुकसान?

माना जा रहा था कि चंद्रशेखर-अखिलेश के बीच गठबंधन होता तो पश्चिम यूपी की कुछ सीटों पर बीजेपी और बसपा को कड़ी चुनौती मिल सकती थी. चंद्रशेखर आजाद की पार्टी का सहारनपुर, बिजनौर, नोएडा और बुलंदशहर जिलों में दलितों के बीच अच्छा प्रभाव माना जाता है. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो अगर राष्ट्रीय लोकदल के साथ सपा का चंद्रशेखर की पार्टी के साथ गठबंधन होता तो पश्चिमी यूपी में बसपा के पारंपरिक जाटव वोट बैंक में सेंध लग सकती थी. इसके तरह से जाट-मुस्लिम-दलित कॉम्बिनेशन सियासी तौर पर गठबंधन के लिए फायदा दिला सकता था. हालांकि, इसे अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका. 

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सपा के साथ गठबंधन न होने के बाद चंद्रशेखर आजाद ने कहा कि हमारे साथ धोखा हुआ है. अखिलेश यादव को अनुसूचित जातियों के वोट की जरूरत नहीं है, इसलिए सपा और आजाद समाज पार्टी का गठबंधन नहीं होगा. चंद्रशेखर अब अपने दम पर चुनावी मैदान में किस्मत आजमाने जा रहे हैं. इसके लिए उन्होंने करीब तीन दर्जन सीटों को चिन्हित किया है, जहां अपने प्रत्याशी उतारेंगे. ऐसे में वो सपा के खिलाफ दलित नेरेटिव भी गढ़ना शुरू कर दिया है. 

चंद्रशेखर कहीं अपना घाटा तो नहीं कर बैठे?

वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि चंद्रशेखर आजाद दलित मुद्दों को लेकर मुखर हैं और संघर्ष भी करते हैं, लेकिन राजनीतिक तौर पर अभी भी दलितों के बीच अपना सियासी प्रभाव नहीं जमा सके. पश्चिमी यूपी के सहारनपुर और आसपास के एक-दो जिले में कुछ असर है. ऐसे में चंद्रशेखर के अकेले चुनावी मैदान में उतरने से दलित वोटों में ही बंटवारा होगा, जो सपा के लिए नुकसान नहीं है. गठबंधन टूटने के बाद चंद्रशेखर ने जिस तरह से सपा को दलित विरोधी बता रहे हैं, वो जरूर अखिलेश यादव के लिए चिंता बढ़ा सकती है. 

वह कहते हैं कि भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आजाद अपनी पार्टी आजाद समाज पार्टी के गठन के बाद से ही सियासी जमीन तलाशने में जुटे हैं. हाल के दिनों में चंद्रशेखर के साथ जो लोग शुरुआत से थे उनमें से अधिकतर अब जा चुके हैं. चंद्रशेखर के कई करीबी दलित नेता बसपा का दामन थाम लिया है. ऐसे में वो चंद्रशेखर समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ते तो निश्चित तौर पर उनके एक दो विधायक जीतने की संभावना थी, लेकिन अकेले अपने दम पर उम्मीदवार जिताने की संभावना अभी नहीं है. 

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सहारनपुर हिंसा से मिली पहचान

2017 में सहारनपुर में हुई जातीय हिंसा के बाद भीम आर्मी चर्चा में आई थी और उसके मुखिया चंद्रशेखर एक फायरब्रांड दलित नेता के तौर पर उभरे. चंद्रशेखर उसी जाटव जाति से आते हैं जिस जाति की मायावती हैं. दलित के मुद्दे पर चंद्रशेखर मुखर तो रहते हैं, लेकिन जमीन पर अपना सियासी आधार नहीं खड़ा कर सके. दलित समुदाय भी बसपा का साथ छोड़कर चंद्रशेखर के साथ नहीं आया. इतना ही नहीं बसपा से जिन दलित नेताओं का मोहभंग हुआ है, उन्होंने सपा का दामन थामा है. 

दरअसल, दलित वोटबैंक को साधने के लिए पिछले एक साल से बसपा के दर्जनों प्रभावशाली दलित नेताओं ने सपा में एंट्री की है. इंद्रजीत सरोज, आरके चौधरी, त्रिभुवन दत्त, तिलक चंद्र अहिरवार, केके गौतम, सर्वेश आंबेडकर, महेश आर्य, योगेश वर्मा, अजय पाल सिंह जाटव, वीर सिंह जाटव, फेरान लाल अहिरवार, रमेश गौतम, विद्या चौधरी, अनिल अहिरवार, सीएल पासी, योगेश वर्मा और मिठाई लाल भारती सहित नेता बसपा से सपा में आए हैं. मिठाई लाल भारती के नेतृत्व में दलितों के लिए सपा ने 'बाबासाहेब अंबेडकर वाहिनी' की शुरुआत की. इस तरह से अखिलेश ने दलित वोटों के लिए दलित पार्टी के बैसाखी के बजाय खुद मजबूत होने की रणनीति है. 

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बसपा को नुकसान पहुंचाएंगे चंद्रशेखर? 

चंद्रशेखर आजाद के अकेले चुनाव लड़ने से सपा से ज्यादा बसपा के लिए सियासी तौर पर नुकसान हो सकता है. चंद्रशेखर और मायावती एक ही समाज व एक ही क्षेत्र से आती हैं. दोनों पश्चिमी यूपी से हैं और जाटव समाज से हैं. बसपा की सियासत के लिए यह चुनाव काफी अहम माना जा रहा है. ऐसे में चंद्रशेखर के यूपी में अकेले चुनाव लड़ने से दलित वोटों के बंटवारे की संभवना राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं, जो सीधे तौर पर बसपा के लिए नुकसान दे साबित हो सकती है. 

2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा को जो 19 सीटें मिली थीं, उनमें से 8 ऐसी सीटें हैं जिसे बसपा ने हारते-हारते जीत ली थीं. इनमें से 3 सीटों पर जीत का अंतर तो हजार वोटों से भी कम था. सहारनपुर की रामपुर मनिहारन, मथुरा की मांट, आजमगढ़ की मुबारकपुर सीट ऐसी ही हैं जिसे बसपा ने बहुत मुश्किल से जीती थी. इसके अलावा 5 सीटें ऐसी हैं जहां पार्टी के जीत का अंतर ढाई हजार के आसपास रहा. इन्हीं विधानसभा सीटों पर चंद्रशेखर ने चुनाव लड़ने का ऐलान मंगलवार को किया है, जिसके साफ है कि बसपा के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती हैं. 

बीजेपी को क्या मिलेगा फायदा?

सपा के साथ गठबंधन न होने से बाद चंद्रशेखर आजाद ने जिस तरह से अखिलेश यादव के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है और उन्हें दलित विरोधी बता रहे हैं. यह बीजेपी के लिए सियासी तौर पर काफी मुफीद नजर आ रहा है. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो सपा और बीजेपी के बीच सीधी होती चुनावी लड़ाई के बीच चंद्रशेखर ने जिस तरह से सपा के खिलाफ दलित नैरेटिव गढ़ रहे हैं, उससे बीजेपी को सियासी फायदा हो सकता है. इसकी वजह यह है कि यूपी की जिन सीटों पर बसपा के उम्मीदवार मजबूती से लड़ते नहीं दिखेंगे, उन पर दलित वोटों का झुकाव बीजेपी की तरफ हो सकता है. बीजेपी इस बार के चुनाव में दलित वोटों को साधने के लिए खास रणनीति बनाई है. 

यूपी के लगभग सभी सियासी दलों को यह लग रहा है कि इस समुदाय पर मायावती का अब पहले जैसा प्रभाव नहीं रहा जो 2007 के विधानसभा चुनाव तक दिखा था. यही वजह है कि बीजेपी की नजर इस वोट बैंक पर है. इसलिए सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दलितों के घर भोजन कर रहे हैं तो बीजेपी नेता दलित के घर-घर दस्तक दे रहे हैं.

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ऐसे में चंद्रशेखर का दांव भी बीजेपी के लिए सियासी फायदा दिला सकते है. इसीलिए अखिलेश यादव ने कहा था कि चंद्रशेखर पहले गठबंधन के लिए राजी थे, लेकिन बाद में किसी से फोन पर बात करने के बाद पीछे हट गए. ऐसे में कहीं कोई साजिश नजर आ रही है. ऐसे चंद्रशेखर अकेले चुनावी मैदान में उतरकर भले ही खुद की राजनीतिक नैया पार न लगा सके, लेकिन किसी का खेल बनाएंगे तो किसी का बिगाड़ने का काम करेंगे. 

 

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