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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पश्चिमी यूपी और रुहेलंखड के बाद अब सियासी दलों का इम्तेहान बुंदेलखंड के इलाके में होने जा रहा है. पांच साल पहले 2017 के चुनाव में मोदी लहर पर सवार बीजेपी ने बुंदेलखंड में क्लीन स्वीप किया था और सपा, बसपा और कांग्रेस खाता तक नहीं खोल सकी थीं. बीजेपी ने बुंदेलखंड में अपनी सियासी जड़े ऐसी मजबूत की सपा और बसपा गठबंधन भी 2019 के चुनाव में उसे नहीं हिला सका. ऐसे में सभी की निगाहें बुंदेलखंड पर टिकी है कि 2022 के चुनाव में किसका पल्ला भारी रहता है?
बुंदेलखंड की सीटों पर तीन चरण में चुनाव
बुंदेलखंड का इलाका सियासी रूप से काफी अहम है, जो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में फैला हुआ है. यूपी के सात और एमपी के छह जिले आते हैं. उत्तर प्रदेश के झांसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, बांदा, महोबा और कर्बी (चित्रकूट) जिले की 19 विधानसभा सीटें है. बुंदेलखंड के इलाके की सीटों पर तीन चरणों में चुनाव है, जिसकी शुरुआत तीसरी चरण से हो रही हैं. तीसरे चरण में झांसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर और महोबा जिले की 13 सीटों पर चुनाव हैं तो चौथे चरण में बांदा जिले की 4 सीटें और पांचवें चरण में चित्रकूट जिले की 2 सीटों पर चुनाव हैं.
कांग्रेस से बसपा और बीजेपी का बना गढ़
बुंदेलखंड क्षेत्र में एक समय कांग्रेस का वर्चस्व हुआ करता था. यहां की अधिकांश सीटों पर कांग्रेस ही काबिज रही, लेकिन 1984 के बाद से इस इलाके में कांग्रेस की पकड़ कमजोर होती गई और उसकी जगह सपा और बीएसपी और फिर बीजेपी ने ले ली. 2014 में बीजेपी ने बुंदेलखंड में अपनी सियासी जड़े मजबूत किया तो फिर उसे कोई उखाड़ नहीं सका.
2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने बुंदलेखंड की सभी 19 विधानसभा सीटों को जीतकर अपना सियासी वर्चस्व कायम किया था. इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा मिलकर भी बुंदेलखंड में बीजेपी के विजय रथ को नहीं रोक सकी थी, जिसका नतीजा था इस इलाके की सभी पांचों संसदीय सीटों पर बीजेपी कमल खिलाने में कामयाब रही थी. बीजेपी के इस मजबूत गढ़ पर विपक्षी दलों के नजर लगी हुई हैं.
बुंदेलखंड का सियासी समीकरण
बुंदेलखंड क्षेत्र के जातीय समीकरण को देखें ओबीसी और दलित वोटर अहम हैं. यहां 22 फीसदी सामान्य वर्ग के वोट हैं, जिनमें ब्राह्मण और ठाकुरों की संख्या अच्छी खासी है. इसके अलावा वैश्य समुदाय भी हैं. 43 ओबीसी वोटर है, जिनमें कुर्मी, निषाद, कुशवाहा जातियां बड़ी संख्या में हैं. 26 दलित वोटर हैं, जिनमें जाटव की संख्या काफी अधिक है और कोरी समुदाय भी ठीक ठाक है.
सियासी समीकरण के चलते ही बुंदेलखंड का इलाका एक दौर में बसपा का मजबूत गढ़ हुआ करता था और मायावती की सोशल इंजीनियरिंग ने यहां खासा असर डाला था. एक तरफ मायावती की टीम के बड़े मुस्लिम चेहरे रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी बांदा से आते थे तो वहीं ओबीसी फेस कहे जाने वाले बाबू सिंह कुशवाहा भी यहीं के थे. दद्दू प्रसाद जैसे दलित नेता पार्टी में थे तो पुरुषोत्तम नारायण द्विवेदी जैसे ब्राह्मण चेहरा हुआ करते थे. लेकिन, मायावती के साथ आज इनमें से कोई भी नेता नहीं है.
बुंदेलंखड में बीजेपी सरकार मेहरबान
बसपा ने मुस्लिम, ओबीसी, दलित और ब्राह्मणों को साधकर बुंदेलखंड में धाक जमाई थी, लेकिन अब इस क्षेत्र में बीजेपी ने ओबीसी, ठाकुर, ब्राह्मण और दलित वोटों को अपने साथ जोड़कर अपनी जगह मजबूत कर ली है. वहीं, यूपी में मोदी-योगी सरकार के आने के बाद बुदंलेखंड में विकास को रफ्तार मिली. बुंदेलखंड के विकास के लिए बीजेपी सरकार ने बोर्ड का गठन भी किया है.
झांसी से चित्रकूट के क्षेत्र को डिफेंस कॉरिडोर घोषित किया है. इटावा से चित्रकूट तक बन रहे बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे के जरिए विकास की सौगात मिलीहै. महोबा अर्जुन सहायक परियोजना से बुंदेलखंड के किसानों को पानी की किल्लत से निजात मिल सकती है. चित्रकूट एयरपोर्ट से लेकर अन्य तमाम परियोजनाओं के जरिए बीजेपी ने विकास और हिंदुत्व को साथ लेकर चलने का काम किया है.
बुंदेलखंड वाही हैं ये चुनावी मुद्दे
बीजेपी इन विकास योजनाओं के जरिए अपने दुर्ग को कैसे मजबूत रखने की कवायद की है, लेकिन बुंदेलखंड में लोकल मुद्दे चुनाव में हावी हैं. बुंदेलखंड में सूखा, बेरोजगारी, पलायन और किसान आत्महत्या अक्सर मुद्दा बनती रही है. यहां पानी की कमी भी सियासी मुद्दा बनी रही. यही वह इलाका है जहां पीने के लिए वाटर ट्रेन तक चलाई गई. मंहगाई और बेरोजगारी का जवाब बीजेपी नेताओं के पास नहीं हैं.
जमीनी हकीकत की बात करें तो आवारा अन्ना पशुओं से परेशान बुंदलेखंड की कई सीटों पर बदलाव के आसार नजर आ रहे हैं. अन्ना पशुओं से किसानों की फसलें काफी बर्बाद हुई हैं. बुंदेलखंड में आवारा पशु बीजेपी के लिए चिंता का सबब बन गए हैं, क्योंकि विपक्ष इसे मुद्दे पर योगी को घेर रहा है. बीजेपी को तर्कों के साथ मैदान में उतरना होगा, क्योंकि इस इलाके में बसपा और सपा जातीय समीकरण फिट करते ही बीजेपी से सीटों को छीनने की रणनीति पर काम कर रही है.
बुंदेलखंड में वोटों की सेंधमारी
बसपा के लिए बुंदेलखंड में चीजें तब से बदल गईं जब से बीजेपी ने ओबीसी और दलित वोट में सैंधमारी की. वहीं बसपा ने जाटवों के अपने 'कोर वोट बैंक' के अलावा, अपने वोट हासिल करने की उम्मीद में अन्य समुदायों के उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है. मुस्लिम आबादी कम होने के कारण सपा की उम्मीद यादवों के अलावा अन्य समुदायों के वोट बटोरने पर टिकी है. सपा ने इस बार बुदंलेखंड के सियासी समीकरण को देखते हुए कुर्मी, दलित, कुशावाहा समुदाय के कैंडिडेट उतार रखे हैं.
ललितपुर से सपा ने पूर्व विधायक और बीजेपी नेता रमेश कुशवाहा को मैदान में उतारा है. सपा नेता चंद्र भूषण सिंह बुंदेला को सपा से टिकट मिलने की उम्मीद थी लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिली तो बसपा ताल ठोक रहे हैं. वहीं बीजेपी के उम्मीदवार विधायक राम रतन कुशवाहा हैं. मौरानीपुर सीट पर बीजेपी विधायक बिहारी लाल आर्य ने 2017 में सपा की रश्मि आर्य को हराया था. इस बार आर्य बीजेपी के सहयोगी अपना अल (एस) के उम्मीदवार हैं. सपा ने बसपा से आए तिलकचंद अहिरवार और बसपा ने रोहित रतन अहिरवार को मैदान में उतारा है. बांदा, हमीरपुर और जालौन जिलों में, बसपा एक कारक बनी हुई है और कुछ सीटों पर बीजेपी के साथ सीधे मुकाबले में है.
सियासी दलों ने प्रचार में झोंकी ताकत
बुंदेलखंड में गृह मंत्री अमित शाह से लेकर सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव तक चुनाव प्रचार कर चुके हैं. शाह ने झांसी में रैली की तो अखिलेश ने हमीरपुर, महोबा और झांसी में सभा को संबोधित किया. बसपा सुप्रीमो मायावती ने औरैया और उरई में रैली को संबोधित किया. प्रियंका गांधी भी बुंदलेखंड में चुनावी प्रचार कर चुकी हैं. इस तरह से सभी दलों ने बुंदेलखंड में पूरी ताकत लगा दी है. ऐसे में देखना है कि बीजेपी को सियासी बुलंदी पर पहुंचाने वाला बुंदेलखंड अपनी सियासी मिजाज बदलता या फिर बरकरार रखता है.