
जो वोट बैंक उत्तर प्रदेश में सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखता है, वह सामाजिक आर्थिक ढांचे में कहां खड़ा है? दलितों के लिए आज की तारीख में बड़ा नेता कौन है? और दलितों के लिए जमीन पर चुनावी मुद्दे क्या हैं? यह समझने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर की स्थिति पर नजर डालते हैं, जहां एक बड़ी आबादी दलित समुदाय की है.
उत्तर प्रदेश के 22 फ़ीसदी दलित मतदाता किसी की भी कुर्सी पलटने की क्षमता रखते हैं. किसी की भी सरकार बना सकते हैं. दलित वोट बैंक पर सभी पार्टियों की नजर है. यह वोट बैंक कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा इस बात से लगा लीजिए कि खुद उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य कई मौकों पर यह कह चुके हैं कि 100 में से 60 हमारा है और 40 में भी बंटवारा है. दरअसल इस 40% वोट बैंक में यादव और जाटव अहम हैं. यादव अगर समाजवादी पार्टी का वोट बैंक माना जाता है तो बीजेपी की नजर एकमुश्त जाटव वोट बैंक पर है, जो कभी बहुजन समाज पार्टी का वोट बैंक था.
उत्तर प्रदेश में जब दलित वोट बैंक की बात आती है तो उनके नेता के तौर पर हमेशा मायावती को ही राजनीतिक दृष्टिकोण से देखा जाता है. काशीराम की राजनीतिक विरासत को आगे ले जातीं मायावती दलितों को अपना नेता और चेहरा नजर आईं. यह दलितों का एकमुश्त समर्थन ही था, जिसके बलबूते ही मायावती ने 1995 में हाथी पर सवार होकर लखनऊ की सत्ता का सफर तय किया. उसके बाद 2002 और 2007 में भी मायावती को उनके दलित वोट बैंक ने विजय दिलवाई.
यूपी के 49 जिलों में हैं सबसे ज्यादा दलित
उत्तर प्रदेश में 49 जिले ऐसे हैं, जहां सबसे ज्यादा संख्या दलित मतदाताओं की है. कुछ जिले छोड़ दें तो बाकी जगहों पर दलित दूसरा सबसे बड़ा वोट बैंक है. देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में दलित मतदाताओं की संख्या 22 फीसदी है. इनमें 12 फ़ीसदी जाटव हैं तो वहीं 10% गैर जाटव दलित हैं, जिनमें पासी वाल्मीकि और दूसरी 50 उपजातियां शामिल हैं. दलित समुदाय में भी कई उपजातियां हैं, जिसमें उनके कुल वोट बैंक का 54% जाटव हैं तो 16% पासी हैं. 6 फ़ीसदी धोबी हैं तो 6 फ़ीसदी कोरी भी हैं. वहीं 3% वाल्मीकि समुदाय भी है.
प्रदेश में करीब चार करोड़ दलित मतदाता
चुनावी डाटा विशेषज्ञ आशीष रंजन कहते हैं कि दलितों की आबादी के लिहाज से उत्तर प्रदेश देश में चौथे नंबर पर है, जहां 2011 की जनगणना के मुताबिक लगभग चार करोड़ दलित मतदाता हैं. 403 विधानसभाओं में से 211 विधानसभा पर वो निर्णायक भूमिका अदा करते हैं.
2017 में किसे मिली थीं कितनी सीटें
2017 में भाजपा को 85 दलित आरक्षित सीटों में से 69 सीटों पर जीत मिली थी. 39 फीसदी वोट मिले थे, जबकि सपा को इनमें से सात सीटें मिली थीं. बसपा को सिर्फ दो सीटें हीं मिल पाई थीं. 2014 के बाद से लोकसभा और विधानसभा चुनाव में बहुजन समाजवादी पार्टी का वोट लगातार धराशाई होता रहा. बीजेपी की बढ़ती सीटों से विशेषज्ञ आकलन लगाते हैं कि दरअसल मायावती का 4 वोट बैंक अब बसपा से टक्कर बीजेपी के हाथ चला गया है. चुनाव विशेषज्ञों की माने तो पिछले 3 दशक में बहुजन समाज पार्टी ही दलितों की पहली पसंद रही है.
आशीष रंजन के मुताबिक, 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद परिस्थितियों में कुछ बदलाव आया जब गैर जाटव दलित का एक बड़ा वर्ग बीजेपी के पक्ष में चला गया और लगभग 48% गैर जाटव दलित ने बीजेपी के लिए 2019 में भी मतदान किया, जबकि सपा बसप महागठबंधन को सिर्फ 42% गैर जाट और दलित वोट मिला. आशीष रंजन के मुताबिक बीएसपी का जनाधार अपने 4 वोट बैंक में लगातार गिरता दिखा है.
सहारनपुर में हो चुकी हैं कई हिंसा की घटनाएं
हाल फिलहाल के सालों में सहारनपुर ने जातीय हिंसा की कई घटनाएं देखी हैं. दलितों के लिए सामाजिक आंदोलन की एक तस्वीर सहारनपुर के घडकौली गांव में दिखाई पड़ती है, जहां से न सिर्फ एक आंदोलन बल्कि एक नेता का भी जन्म हुआ. लंबे संघर्ष के बाद दलितों ने अपनी जाति को गर्व से अपनी पहचान के प्रतीक के रूप में खड़ा कर दिया है. द ग्रेट चमार विलेज के नाम से घडकौली की पहचान बन गई. इसी गांव की जातीय हिंसा के बाद पहली बार खुद को दलितों का मसीहा कहने वाली भीम आर्मी और उसके नेता चंद्रशेखर रावण का चेहरा सामने आया था.
घडकौली के रहने मदन कहते हैं कि जब जाति प्रमाण पत्र पर चमार लिखा जा सकता है तो हम अपनी जाति का बोर्ड गांव में क्यों नहीं लगा सकते. आखिरकार हमें अपनी जाति पर फख्र है. मदन कहते हैं कि जब हम तहसीलदार के पास जाति प्रमाण पत्र बनाएंगे तो वह भी चमार लिखेगा, जब उन्होंने हमारे लिए यह चुना है तो हमने इसे सम्मानित मान लिया और हमारे लिए ग्रेट चमार है.
लोग बोले: जहां फायदा होगा, वहीं वोट देंगे
गांव के ज्यादातर लोगों की राय है कि राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता अक्सर दलितों को वोट बैंक समझते हैं, लेकिन अब दलित और उनकी अगली पीढ़ी जागरूक हो गई है जो अपने अधिकारों को समझती है. इसलिए अब वह वोट बैंक कहलाना पसंद नहीं करते. मास्टर प्रवीण कुमार कहते हैं, जो सालों से वोट बैंक की तरह देखा जा रहा था, हमेशा वैसा नहीं होता और अब हम जानते हैं कि हमारे अधिकार क्या हैं. इसलिए जो हमारे लिए काम करेगा, हम उसको ही वोट देंगे, जहां उनका फायदा होगा वहां वोट देंगे.
युवाओं के लिए बेरोजगारी है अहम मुद्दा
घडकौली गांव के दलितों के लिए गरीबी और बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा है. खासकर युवा बेरोजगारी से बेहद परेशान हैं और इस सरकार से नाराज भी. गांव के युवा टिंकू बौद्ध कहते हैं कि युवाओं में पहले के मुकाबले काफी जागरूकता आई है, क्योंकि उन्हें पता है सरकार किसके लए क्या कर रही है. प्रवीण कहते हैं कि वोट बैंक तो फिर भी बना हुआ है और हम मान सम्मान सबका करेंगे, लेकिन वक्त ही बताएगा कि हम खुलकर किसे वोट देंगे.
'पांच सालों से दलितों की जिंदगी में नहीं आया कोई बदलाव'
दिलीप कुमार कहते हैं कि दलितों की जिंदगी में इन 5 सालों में कोई बदलाव नहीं आया, क्योंकि जो युवा पढ़ लिखकर नौकरी की तैयारी करते हैं, उन्हें कोई नौकरी नहीं मिलती. कोई रोजगार नहीं मिलता. यहां तक कि गांव में वकालत किया हुआ युवा तसला उठाकर मजदूरी कर रहा है. गांव के लोगों का कहना है कि 2012 के पहले जब मायावती की सरकार थी, तब सहारनपुर में कांशीराम मेडिकल कॉलेज बना था. जब अखिलेश की सरकार आई तो उन्होंने नाम बदल दिया, लेकिन कोई सुधार नहीं हुआ और अब योगी सरकार ने गेहूं चावल तो बांट रहे हैं, लेकिन इसके अलावा और कुछ नहीं मिलता.
'सिलेंडर महंगा हो गया तो अब लकड़ी जलाते हैं'
मास्टर प्रवीण कुमार कहते हैं कि सिलेंडर हजार रुपये का हो गया है. ऐसे में दलित चूल्हा कैसे जलाएगा और पेट कैसे पालेगा. जब रोजगार ही नहीं है. गांव वाले कहते हैं कि अब लोग फिर से चूल्हे पर लौट रहे हैं. टिंकू कहते हैं कि इस चुनाव में दलित युवाओं के लिए रोजगार सबसे बड़ा मुद्दा है, क्योंकि लोगों के पास कमाई का जरिया नहीं है. जिसके पास कारोबार भी था, वह भी ठप पड़ने लगा है.
सूरज कहते हैं कि कि दलित आगे बढ़ने की बजाय पीछे चले गए हैं, क्योंकि अब उनके पास मौके ही नहीं है. गांव के दूसरे लोग भी मानते हैं कि चुनावी मुद्दा आज की तारीख में रोजगार है, जिससे घर में चार पैसे आए और दलितों की आर्थिक स्थिति बेहतर हो. मदन कुमार कहते हैं कि इस गांव से पिछले 5 सालों में किसी एक को भी नौकरी नहीं मिली.
2017 में इस गांव में हुई थी हिंसा
2017 में योगी सरकार बनने के बाद मई के महीने में सहारनपुर जिले में एक जातीय हिंसा हुई. घटना का केंद्र था सहारनपुर का शब्बीरपुर गांव. महाराणा प्रताप जयंती के उपलक्ष्य में राजपूत समाज के लोग रैली निकालना चाहते थे और उसी रैली के दौरान राजपूत और दलितों के बीच पत्थरबाजी हुई और हिंसा आगजनी में बदल गई.
इसी घटना के विरोध में भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर उर्फ रावण ने सहारनपुर में एक महापंचायत बुलवाई. इस महापंचायत के दौरान हिंसा हुई आगजनी हुई और जांच में पुलिस ने भीम आर्मी को आरोपी बनाया. चंद्रशेखर आजाद को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार करके जेल भेज दिया. जेल से रिहा होते होते चंद्रशेखर दलित युवाओं के लिए नेता बन चुके थे और अब विधानसभा चुनाव में आजाद समाज पार्टी लेकर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं.
हिंसा का दंश झेल चुके शब्बीरपुर में क्या बदला?
गंदे नाले टूटी फूटी सड़कें और दीवारों पर जाति धर्म के नाम पर न लड़ने की अपील के पोस्टर शब्बीरपुर में चारों ओर दिखाई देते हैं. यहां रहने वालों के जेहन में आज भी दो हजार सत्रह के जातीय हिंसा की तस्वीरें जिंदा हैं.
श्रीकांत उन दलित परिवारों में से एक हैं, जिनकी दुकान में आगजनी भी हुई और पुलिस जांच के दौरान जो आरोपी भी बनाए गए. श्रीकांत ने जब हमें अपनी दुकान दिखाई तो आज भी आगजनी के चिन्ह पाए गए. श्रीकांत कहते हैं कि भले ही भाईचारे के पोस्टर चारों ओर लगाए गए हों, लेकिन आज भी सवर्णों और दलितों के बीच मन में कड़वाहट जिंदा है और तो और दलित परिवार मुकदमे की फांस भी झेल रहे हैं. श्रीकांत और उनके साथी कहते हैं आज भी वह बराबरी का हक और सामाजिक न्याय चाहते हैं और यही उनके लिए सबसे बड़ा मुद्दा है, साथ ही बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा और रोजगार के इंतजाम हो जो दलितों की सबसे बड़ी जरूरत है.
गांव की कुछ महिलाओं ने बताया कि डर के मारे उन्होंने अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए बाहर भेजना बंद कर दिया. बहुत कम लड़कियों को आगे शिक्षा का मौका मिल रहा है. ज्यादातर ना पढ़ पा रही हैं ना बढ़ पा रही हैं. कपूरपुर गांव के रहने वाले दलित समुदाय के वेदपाल कहते हैं कि अब माहौल ठीक है और सरकार का काम अच्छा है.