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Imran Masood: इमरान मसूद ने चुनावी राजनीति में मात खाकर भी कैसे जमाई अपनी सियासत?

Imran Masood political career: इमरान मसूद एक पॉलिटिकल घराने के नेता हैं. बचपन से ही उन्होंने घर में नेतागीरी के समीकरण बनते बिगड़ते देखे हैं. उनके चाचा काजी रशीद मसूद एक बड़े कद्दावर नेता रहे हैं, जिनके सहारे चलते हुए इमरान मसूद ने सहारनपुर के इलाके में अपना रसूख कायम किया है.

इमरान मसूद इमरान मसूद
जावेद अख़्तर
  • नई दिल्ली,
  • 11 जनवरी 2022,
  • अपडेटेड 6:57 PM IST
  • 2007 में निर्दलीय विधायक बने थे इमरान मसूद
  • 2012 से लगातार चुनाव हार रहे हैं इमरान मसूद
  • इमरान के चाचा रशीद मसूद रहे हैं कद्दावर नेता

उत्तर प्रदेश की राजनीति में जब मुस्लिम नेताओं का जिक्र आता है तो आजम खान जैसे चर्चित चेहरों के साथ इमरान मसूद का नाम भी लिया जाता है. खासकर, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लीडरशिप में इमरान मसूद के वजूद को कोई दरकिनार नहीं कर पाता.

अच्छा चुनावी रिकॉर्ड न होने के बावजूद इमरान मसूद प्रदेश और देश की राजनीति में अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहे हैं. हालांकि, इस पहचान के पीछे विवादित बयान की भूमिका तो रही, लेकिन एक बड़ी वजह सियासी विरासत भी है.

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इमरान मसूद ने सहारनपुर के गंगोह में जिस परिवार में जन्म लिया वो इलाके का एक प्रभावशाली परिवार रहा है. ये परिवार इमरान के दादा काज़ी मसूद के नाम से अपनी धाक रखता था. परिवार को गंगोह घराना भी कहा जाता है. इलाके का ये इकलौता मुस्लिम राजनीतिक घराना था और इमरान के चाचा काज़ी रशीद मसूद ने दशकों तक इस परिवार की सियासत को अपने नाम से आगे बढ़ाया.

1971 में इमरान मसूद का जब जन्म हुआ तब उनके चाचा रशीद मसूद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करके राजनीति में उतर चुके थे. इमरान जैसे-जैसे बड़े हो रहे थे, उनके चाचा रशीद मसूद का सियासी कद भी बढ़ता जा रहा था. 

1977 में जनता पार्टी के टिकट पर लोकसभा सांसद बनकर काजी रशीद मसूद की जो सियासी पारी शुरू हुई वो केंद्र में मंत्री बनने तक चली. वो भारतीय लोकदल से लेकर जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस जैसे दलों में रहे. जीवन के आखिरी वक्त में वो बसपा में भी रहे. उनके इस पूरे राजनीतिक सफर को इमरान ने अपने घर की दहलीज पर देखा और उसे आत्मसात भी किया. रशीद मसूद का सियासी कवच भविष्य में इमरान के काम भी आया.

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राहुल गांधी के साथ एक कार्यक्रम के दौरान इमरान मसूद

इमरान ने ज्यादा पढ़ाई नहीं की, वो सिर्फ 12वीं क्लास तक पढ़े. लेकिन कम उम्र में ही राजनीति में इमरान मसूद की सक्रियता काफी बढ़ गई थी. एक इंटरव्यू में इमरान मसूद ने बताया था कि जब उनकी उम्र 20 साल थी, तब वो अपने पारिवारिक प्रतिद्वंदी चौधरी यशपाल सिंह के बेटे की मौत के बाद उनके घर चले गए. इमरान के इस कदम से हर कोई हैरान रह गया. लेकिन बाद में उनके इस फैसले को सराहा भी गया, जिसका नतीजा ये हुआ कि दोनों राजनीतिक परिवार के बीच दूरियां भी कम हुईं.

इस तरह इमरान न सिर्फ जनता के बीच, बल्कि राजनीतिक परिवारों के बीच भी सक्रिय होते गए. कहा जाता है कि मसूद परिवार की राजनीति को सहारनपुर की जनता के बीच इमरान मसूद ने ही संभाला. रशीद मसूद राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ा मुकाम हासिल कर चुके थे और इसका सीधा-सीधा फायदा इमरान मसूद को भी हुआ. अपने चाचा की छत्रछाया में इमरान मसूद जब खुद चुनावी राजनीति में उतरे तो उनकी शुरुआत भी शानदार रही.

सहारनपुर नगर पालिका के चेयरमैन बने

इमरान मसूद ने लोकल पॉलिटिक्स से अपनी राजनीति का आगाज किया. 2006 में वो सहारनपुर नगर पालिका के चेयरमैन बने. इसके बाद 2007 के विधानसभा चुनाव में इमरान मसूद ने समाजवादी पार्टी से टिकट मांगा लेकिन उन्हें टिकट नहीं दिया गया. बता दें कि ये वो वक्त था, जब इमरान के चाचा रशीद मसूद खुद सहारनपुर लोकसभा सीट से सपा के सांसद थे और उन्हें उपराष्ट्रपति का चुनाव भी लड़वाया गया था.

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बहरहाल, सपा ने जगदीश राणा को टिकट दिया तो इमरान मसूद ने सपा से बगावत करते हुए निर्दलीय चुनाव लड़ लिया. मसूद परिवार का राजनीतिक रसूख इमरान के काम आया और उन्होंने ये चुनाव सपा उम्मीदवार को हरा दिया और विधायक बन गए. इस तरह पहले ही चुनाव में इमरान ने अपनी ताकत का अहसास करा दिया. हालांकि, इसके बाद वो सपा में वापस चले गए.

एक तरफ इमरान मसूद का राजनीतिक कद बढ़ता जा रहा था तो दूसरी तरफ उनके चाचा रशीद मसूद उम्र और करियर के ढलान पर थे. लिहाजा, वो अपने इकलौते बेटे शाजान मसूद को मसूद परिवार की सियासी विरासत सौंपना चाहते थे. इसी मकसद से उन्होंने शाजान को 2009 में कैराना लोकसभा सीट से सपा का टिकट दिलाया, लेकिन वो हार गए. इसी चुनाव में रशीद मसूद भी सहारनपुर सीट से हार गए. रशीद मसूद और उनके पुत्र चुनाव हार गए. हालांकि, मुलायम सिंह ने रशीद मसूद को राज्यसभा भेज दिया.

इमरान ने कांग्रेस के टिकट पर लड़ा चुनाव

2012 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले रशीद मसूद ने सपा छोड़कर कांग्रेस ज्वाइन कर ली. इमरान मसूद ने भी चाचा का साथ दिया और वो भी कांग्रेस में चले गए. इमरान मसूद ने 2012 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के टिकट पर नकुड़ विधानसभा से लड़ा. लेकिन वो ये चुनाव हार गए. इमरान मसूद दूसरे नंबर पर रहे, बसपा प्रत्याशी धर्म सिंह सैनी ने उन्हें करीब 5 हजार वोटों के अंतर से हराया. बताया जाता है कि इस चुनाव में मसूद परिवार के दिलों में भी फर्क आ गया. उधर, प्रदेश में अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बन गई. 

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चाचा से खराब हो गए रिश्ते

2014 का लोकसभा चुनाव आया तो मुलायम सिंह यादव ने रशीद मसूद को सपा में बुला लिया. इमरान मसूद भी सपा में आ गए. इमरान मसूद को सपा ने सहारनपुर लोकसभा सीट से टिकट दे दिया, लेकिन चाचा ने उनका टिकट कटवाकर अपने बेटे शाजान को दिला दिया. परिवार में तलवारें खिंच गईं. इमरान मसूद ने कांग्रेस से टिकट ले लिया.

एक तरफ मोदी लहर थी और दूसरी तरफ परिवार आमने-सामने आ गया. इसी चुनाव के दौरान मोदी के खिलाफ दिया गया इमरान मसूद का विवादित बयान भी चर्चा में आ गया.  इमरान राष्ट्रीय मीडिया का केंद्र बन गए. मुस्लिम प्रभाव वाले पश्चिमी यूपी और अपने खुद के क्षेत्र में इमरान मसूद काफी पॉपुलर भी हो गए. शायद यही वजह रही कि  मोदी लहर के बावजूद 2014 के लोकसभा चुनाव में सहारनपुर सीट से इमरान मसूद को 4 लाख से ज्यादा वोट मिले. वो बीजेपी के राघव लखनपाल से करीब 65 हजार वोटों से हारे. उनकी इस हार में चचेरे भाई शाजान मसूद भी अहम फैक्टर रहे. शाजान ने ये चुनाव सपा के टिकट पर लड़ा, लेकिन वो महज 52 हजार वोट पा सके.

प्रियंका गांधी के साथ इमरान मसूद

इस तरह इमरान ने एक बार फिर अपना कद दिखा दिया. बता दें कि इमरान जिस जाति से आते हैं, उसके वोटर की संख्या अधिक नहीं है बावजूद इसके इमरान मसूद के साथ एक बड़ा जनाधार जुड़ा रहा.

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जनता के बीच इमरान की स्वीकार्यता

इस तरह इमरान मसूद ने चुनाव हारकर भी खुद को परिवार और जनता के एक मजबूत नेता के रूप में स्थापित कर दिया. कांग्रेस को भी इसका एहसास हुआ और इमरान के कद को पार्टी ने संगठन में बढ़ाया. राहुल गांधी से उनकी नजदीकियां बढ़ गईं. वो कांग्रेस के लिए लगातार मेहनत करते रहे. 2017 का विधानसभा चुनाव आया तो उसमें भी इमरान ने पार्टी के लिए मेहनत की. हालांकि, इस चुनाव में भी वो खुद नकुड़ सीट से हार गए. इस चुनाव में धर्म सिंह सैनी ने उन्हें भाजपा के टिकट पर लड़कर हराया. जीत का अंतर इस बार 5 हजार से कम ही रहा. 

इसके बाद जब 2019 लोकसभा चुनाव की बारी आई तो इमरान मसूद ने इस चुनाव में भी हाथ आजमाया. कांग्रेस ने उन्हें टिकट दिया. प्रियंका गांधी को यूपी चुनाव में उतारा गया. प्रियंका ने इमरान पर भरोसा तो जताया ही, साथ ही उनके बिखरे हुए परिवार को भी एक कराया. 

इमरान मसूद और शाजान मसूद इस चुनाव में एक हो गए. काजी परिवार एकजुट हो गया. लेकिन दूसरी तरफ, सपा और बसपा भी एक हो चुकी थी. महागठबंधन की ऐसी लहर चली कि बसपा कोटे के उम्मीदवार हाजी फजलुर्रहमान ने भाजपा और कांग्रेस दोनों को परास्त कर दिया. दलित-मुस्लिम के गठजोड़ ने हाजी फजलुर्रहमान को बंपर वोट दिया, जबकि दूसरे नंबर पर बीजेपी के राघव लखनपाल रहे. इमरान मसूद 2 लाख से ज्यादा वोट पाकर भी तीसरे नंबर पर रह गए. 

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लगातार चुनाव हारने के बाद भी इमरान मसूद का कांग्रेस में कद नहीं घटा. पार्टी ने उन्हें सहारनपुर से निकालकर दिल्ली का प्रभारी भी बनाया. साथ ही इलाके के टिकट तय करने में भी उनकी भूमिका हमेशा अहम रही. 

उधर, 2007 में निर्दलीय चुनाव जीतकर अपनी ताकत का दम दिखाने वाले इमरान मसूद का गुजरते वक्त के साथ नाम और रसूख तो बढ़ता गया, लेकिन चुनावी राजनीति में वो लगातार फेल होते रहे. कभी उन्हें कांग्रेस से लड़कर खामियाजा भुगतना पड़ा तो कभी परिवार का टकराव हार का कारण बन गया. चाचा रशीद मसूद से रिश्तों की खटास का खामियाजा भी उन्हें लगातार चुनाव में चुकाना पड़ा.

हालांकि, चुनावी राजनीति पर इमरान मसूद का कहना है कि हारने या जीतने से कोई नेता नहीं बनता है, सिर्फ सांसद या विधायक बन सकता है. इमरान मसूद खुद को जनता लीडर बताते हैं और कहते हैं कि आज भी सहारनपुर में अगर काम कराने वाला कोई नेता है तो वो इमरान मसूद ही है चाहे सांसद और विधायक कोई भी हो. 

बहरहाल, एक अब मसूद परिवार के सर्वेसर्वा इमरान मसूद ही हैं. उनके चाचा का 2020 में इंतेकाल हो चुका है. चाचा के जिस बेटे शाजान से उनका विरोध था, अब उनके बेटे शायान से इमरान मसूद ने अपनी बेटी की शादी भी कर दी है. पारिवारिक रिश्तों को मजबूत करते हुए इमरान मसूद अब अपनी पुरानी पार्टी सपा की तरफ लौट आए हैं. इमरान का कहना है कि सपा में ही उनका जम्न हुआ था और मुलायम सिंह उनके नेता रहे हैं. हालांकि, अब सपा अखिलेश यादव की है, ऐसे में देखना दिलचस्प रहेगा कि 2022 का चुनाव उनके चुनावी शनि को टाल पाता है या नहीं. 

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