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यूपी में चुनाव लड़ेगी JDU, दबाव की राजनीति या जनाधार बढ़ाने की कवायद?

यूपी में अगले साल शुरू में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में जेडीयू सियासी मैदान में उतरने और 200 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है. इससे पहले भी 2015 में नीतीश कुमार ऐसे ही यूपी में सक्रिय हुए थे, लेकिन बाद में 2017 के चुनाव लड़ने से पीछे हट गए थे. ऐसे में इस बार नीतीश क्या वकायी चुनावी मैदान में उतरेंगे या फिर सिर्फ प्रेशर पॉलिटिक्स तो नहीं कर रहे हैं?

नीतीश कुमार नीतीश कुमार
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली ,
  • 28 जून 2021,
  • अपडेटेड 11:22 AM IST
  • जेडीयू यूपी में 200 सीटों पर उतारेगी कैंडिडेट
  • जेडीयू की नजर अपने कोर वोटबैंक कुर्मी पर है
  • नीतीश के उतरने से बीजेपी को लाभ या नुकसान?

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी पार्टी जेडीयू का अब उत्तर प्रदेश में विस्तार करने जा रहे हैं. यूपी में अगले साल शुरू में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में जेडीयू सियासी मैदान में उतरने और 200 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है. ऐसे में सवाल उठता है कि जेडीयू के चुनावी रण में उतरने से बीजेपी के लिए चिंता बढ़ाएगा या फिर सियासी तौर पर फायदा होगा. हालांकि,  2015 में भी नीतीश कुमार ऐसे ही यूपी में सक्रिय हुए थे, लेकिन बाद में 2017 के चुनाव लड़ने से पीछे हट गए थे. ऐसे कहीं इस बार भी नीतीश प्रेशर पालिटिक्स तो नहीं कर रहे हैं. 

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जेडीयू के महासचिव केसी त्यागी ने कहा कि हम एनडीए गठबंधन के साथ हैं. ऐसे में जेडीयू की पहली प्राथमिकता बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव मैदान में उतरने की रहेगी, लेकिन अगर सीटों को लेकर बात बनी तो हम किसी के भी साथ जा सकते हैं. त्यागी ने कहा कि यहां पर किसानों और पिछड़े वर्ग को न्याय नहीं मिल पा रहा है. हम 200 सीट पर उम्मीदवार उतारेंगे जिसमें सबसे ज्यादा किसान और पिछड़े वर्ग के लोग होंगे. किसानों ने ही योगी और मोदी की सरकार बनाई है इसलिए इन्हें अन्य मतदाता नहीं समझना चाहिए.

बता दें कि नीतीश कुमार इससे पहले भी 2015 में जीतकर आए थे, तो बनारस में एक बड़ी रैली कर चुनाव लड़ने की बात कही थी. हालांकि, बाद में जेडीयू ने महागठबंधन से नाता तोड़कर बीजेपी के साथ आ गई थी और यूपी के विस्तार को ठंडे बस्ते में डाल दिया था. वहीं, अब एक बार फिर से यूपी में चुनावी मैदान में जेडीयू ने उतरने का फैसला किया है, जिसकी जिम्मेदारी पार्टी महासचिव केसी त्यागी कौ सौंपी गई है. 
 
यूपी में नीतीश के लिए उम्मीदें

यूपी में जेडीयू को अपने राजनीतिक विस्तार की काफी संभावनाएं दिख रही हैं और सामाजिक समीकरण अनुकूल है. बिहार से सटे यूपी के जिलों में कुर्मी समुदाय की बड़ी आबादी है. सूबे में कुर्सी समुदाय की आबादी यादवों के लगभग बराबर है. इसके अलावा अति पिछड़े समुदाय की भी अच्छी तादाद है. इसके चलते बीजेपी और सपा ने प्रदेश अध्यक्ष कुर्मी समुदाय से ही बना रखा है. बीजेपी की कमान स्वतंत्र देव सिंह के हाथ में तो सपा के अध्यक्ष नरेश उत्तम हैं, जो कुर्मी समुदाय से ही आते हैं. इतना ही नहीं बीजेपी की सहयोगी अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल (एस) का आधार कुर्मी समुदाय का ही माना जाता है. 

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यूपी में जेडीयू के विस्तार की तैयारी के पीछे सूबे की सियासी हालात हैं. बीजेपी के सामने अन्य दलों का राजनीतिक सामर्थ्‍य कमजोर हुआ है. केसी त्यागी के मुताबिक कांशीराम के बाद मायावती के नेतृत्व में बसपा अपनी जमीन खोती जा रही है. ऐसे ही मुलायम सिंह यादव के बाद सपा की कमान जब से अखिलेश ने संभाला है वो भी पस्त होती जा रही है. योगी सरकार में कुर्मी समुदाय को समानुपातिक प्रतिनिधित्व नहीं मिलने से निराशा है. ऐसे में जदयू अपनी जड़ें जमा सकती है. 

जेडीयू न बन जाए कांटा
यूपी में जेडीयू की नजर जिस कुर्मी समुदाय पर है वो फिलहाल बीजेपी के परंपरागत वोटर माने जाते हैं. इसीलिए बीजेपी ने कमान कुर्मी समुदाय से आने वाले स्वतंत्र देव को दे रखा है. नीतीश कुमार यूपी में आते हैं तो बीजेपी के इसी वोटबैंक में सेंधमारी करेंगे. जेडीयू ने पांच साल पहले भी यूपी में चुनाव की तैयारी की थी. नीतीश कुमार ने बनारस, प्रयागराज, गोरखपुर और कानपुर मंडलों में करीब दर्जन भर सभाएं की थीं. भीड़ भी अच्छी जुट रही थी, लेकिन अचानक ही जेडीयू ने चुनाव लड़ने का इरादा त्याग दिया था. 

हालांकि, इस बार जेडीयू नेता केसी त्यागी का कहना है कि पार्टी काफी संजीदगी और पूरे दमखम के साथ चुनावी मैदान में उतरेगी. केसी त्यागी साल 2017 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू के उम्मीदवार न उतारने को गलती बताया. जेडीयू नेता ने कहा कि कोरोना के दौर में काफी लापरवाही बरती है जिसका खामियाजा गांव के लोगों ने भुगता है, जिसके लिए केंद्र और राज्य दोनों ही जिम्मेदार हैं. 

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यूपी में कुर्मी समुदाय की सियासत

यूपी में की करीब तीन दर्जन विधानसभा सीटें और 8 से 10 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जिन पर कुर्मी समुदाय निर्णायक भूमिका निभाते हैं. यूपी में कुर्मी जाति की संत कबीर नगर, मिर्जापुर, सोनभद्र, बरेली, उन्नाव, जालौन, फतेहपुर, प्रतापगढ़, कौशांबी, इलाहाबाद, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थ नगर, बस्ती और बाराबंकी, कानपुर, अकबरपुर, एटा, बरेली और लखीमपुर जिलों में ज्यादा आबादी है. यहां की विधानसभा सीटों पर कुर्मी समुदाय या जीतने की स्थिति में है या फिर किसी को जिताने की स्थिति में. 

मौजूदा समय में यूपी में कुर्मी समाज के बीजेपी के छह सांसद और 26 विधायक हैं. केंद्र की मोदी सरकार में मंत्री संतोष गंगवार इसी समुदाय से आते हैं. इसके अलावा यूपी में योगी सरकार में कुर्मी समुदाय के तीन मंत्री है. इसमें कैबिनेट मंत्री मुकुट बिहारी वर्मा, राज्यमंत्री जय कुमार सिंह 'जैकी' हैं. कुर्मी समुदाय पहले भी बीजेपी के साथ मजबूती से जुड़ा रहा है. इसी का नतीजा था कि स्वतंत्र देव को पार्टी ने कमान दे रखी है, लेकिन जेडीयू के आने से बीजेपी के इस मजबूत वोटबैंक में सेंध लग सकती है.

जेडीयू का लव-कुश सियासी दांव  

वहीं, जेडीयू केंद्र की मोदी सरकार के मंत्रिमंडल में भी शामिल होने का ऐलान कर दिया है. माना जा रहा है कि बिहार की तर्ज पर यूपी की सियासी समीकरण को देखते हुए नीतीश कुमार लव-कुश यानी कुर्मी-कुशवाहा पर दांव खेल सकते हैं. ऐसे में उपेंद्र कुशवाहा की घर वापसी कर चुके हैं और जेडीयू में अहम भूमिका दे रखी है. अब माना जा रहा है कि मंत्रिमंडल में भी कुर्मी आरसीपी सिंह और कुशवाहा संतोष कुशवाहा को शामिल कराने का दांव चल सकते हैं. यूपी की सियासत में यह दोनों ही समुदाय जेडीयू के लिए काफी अहम साबित हो सकते हैं. 

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उत्तरके जातिगत समीकरणों पर नजर डालें तो इस राज्य में सबसे बड़ा वोट बैंक पिछड़ा वर्ग है. प्रदेश में सवर्ण जातियां 18 फीसदी हैं, जिसमें ब्राह्मण 10 फीसदी हैं. पिछड़े वर्ग की संख्या 39 फीसदी है, जिसमें यादव 12 फीसदी, कुर्मी-कुशवाहा, सैथवार 8 फीसदी, जाट 5 फीसदी, मल्लाह 5 फीसदी, विश्वकर्मा 2 फीसदी और अन्य पिछड़ी जातियों की तादाद 7 फीसदी है. इसके अलावा प्रदेश में अनुसूचित जाति 25 फीसदी हैं और मुस्लिम आबादी 18 फीसदी है. 

कुर्मी-कुशवाहा-सैथवार मिलाकर 8 फीसदी वोट हैं, जिस पर बीजेपी अपनी पैनी निगाह रख रही है. पूर्वांचल और अवध के बेल्ट में की करीब 32 विधानसभा सीटें और आठ लोकसभा सीटें ऐसी हैं जिन पर कुर्मी, पटेल, वर्मा और कटियार मतदाता चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं. पूर्वांचल के कम से कम 16 जिलों में कहीं 8 तो कहीं 12 प्रतिशत तक कुर्मी वोटर राजनीतिक समीकरण बदलने की हैसियत रखते हैं. यूपी में रामस्वरुप वर्मा और सोनेलाल पटेल के बाद और इनके नहीं रहने पर देश में कुर्मी के बड़े नेता के तौर पर नीतीश कुमार ही हैं. ऐसे में नीतीश कुमार का यूपी के चुनावी मैदान में उतरने से सियासी उल्टफेर हो सकता है. 

 

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