
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पांचवें चरण में सभी की निगाहें प्रतापगढ़ जिले की कुंडा सीट पर लगी हैं, जहां से रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया अपनी जनसत्ता पार्टी से मैदान में हैं. कुंडा सीट पर रघुराज के सियासी तिलस्म को तोड़ने के लिए सपा ने गुलशन यादव को मैदान में उतारा है. कुंडा में अभी तक राजा के साथ रहने वाली जातीय समीकरण भी इस बार बिखरती नजर आ रही है, जिससे उन्हें कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा. ऐसे में देखना है कि राजा भैया क्या सियासी दलों के चक्रव्यूह को तोड़कर अपना राजनीतिक वर्चस्व बचाए रख पाते हैं?
प्रतापगढ़ जिले में सात विधानसभा सीटें हैं, लेकिन इस बार सबकी नजर दो विधानसभा सीट कुंडा और बाबागंज पर टिकी है. कुंडा सीट से राजा भैया खुद चुनावी मैदान में हैं तो बाबागंज सीट पर उनके करीबी विनोद सरोज जनसत्ता दल से चुनाव लड़ रहे हैं. इस तरह राजा भैया के लिए अपने प्रभाव वाली दोनों ही सीटों पर सियासी वर्चस्व को बनाए रखने का चैलेंज है.
तीन दशक में पहली बार राजा भैया को चुनौती
राजा भैया 1993 से लगातार कुंडा सीट से निर्दलीय चुनाव जीतकर विधायक बनते आ रहे हैं. सपा-बीजेपी के सहयोग से मंत्री बने, लेकिन डेढ़ दशक के बाद सपा ने उनके खिलाफ अपना कैंडिडेट उतारा है. सपा ने गुलशन यादव को प्रत्याशी बनाया है, जो कभी उनके करीबी रहे हैं. बीजेपी ने ब्राह्मण कार्ड खेलते हुए सिंधुजा मिश्रा को उतारा है तो बसपा ने मोहम्मद फहीम के जरिए मुस्लिम दांव खेला है. इस तरह से कुंडा सीट पर तीन दशक में पहली बार विपक्ष ने रघुराज प्रताप सिंह के खिलाफ घेराबंदी की है.
कुंडा में राजा भैया के दबदबे का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यहां कुल पड़ने वाले वोट में 70 फीसदी से लेकर 82 फीसदी तक वोट अलग-अलग चुनावों में उनके हिस्से गए हैं. कंडा सीट पर विपक्षी दल के प्रत्याशी को अपनी जमानत बचाना मुश्किल होता था. लेकिन, तीन दशक में पहली बार उन्हें कुंडा सीट पर अपनी जीत के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है और गांव-गांव जाकर वोट मांगना पड़ा है.
डेढ़ दशक के बाद सपा ने उतारा कैंडिडेट
दरअसल, राजा भैया सूबे में बीजेपी के कल्याण सिंह से लेकर राम प्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह की सरकार में मंत्री रहे तो मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री काल में सत्ता में बन रहे. ऐसे में पिछले डेढ़ दशक से सपा कुंडा में राजा भैया के समर्थन में कोई प्रत्याशी नहीं उतारती रही, जिसके चलते वो आसानी से कुंडा सीट से जीतते रहे हैं. लेकिन, इस बार सपा ने उनके खिलाफ अपना प्रत्याशी गुलशन यादव को उतार दिया है, जिससे राजा की सियासी राह कठिन हो गई है.
अखिलेश यादव के साथ रिश्ते बिगड़ने के बाद राजा भैया ने जनसत्ता दल नाम से अपनी राजनीतिक पार्टी बना ली. 2019 लोकसभा के चुनाव में पार्टी से दो सीटों कौशांबी और प्रतापगढ़ सीट पर उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन दोनों में से कोई भी जीत नहीं सका था. कुंडा क्षेत्र में यादव मतदाताओं का दबदबा है. राजा भैया कुंडा में यादव, पासी, मुस्लिम और ठाकुर वोटरों के सहारे सियासी दबदबा कायम किए थे, क्योंकि ब्राह्मण वोटर यहां उनके खिलाफ शुरू से रहा है.
कुंडा का जातीय समीकरण
कुंडा विधानसभा सीट के सियासी समीकरण को देखें तो सपा के पक्ष में दिख रहा है. यहां पर 75 हजार यादव, 50 हजार ब्राह्मण, 55 हजार मुस्लिम, 30 हजार कुर्मी, 18 हजार ठाकुर, 15 हजार मौर्य, 10 वैश्य और 90 हजार के करीब दलित मतदाता हैं, जिनमें पासी सबसे ज्यादा हैं. बसपा छोड़कर सपा में आए पूर्व मंत्री इंद्रजीत सरोज और गुलशन यादव एकजुट हो गए हैं.
सपा की इस तिकड़ी ने जिला पंचायत चुनाव में राजा भैया के पसीने छुड़ा दिए थे. सपा ने कुंडा क्षेत्र में अपने दो जिला पंचायत सदस्य पासी समुदाय से जिताए थे. कुंडा से सपा प्रत्याशी गुलशन यादव अगर सपा के कोर वोटबैंक यादव और मुस्लिम के साथ-साथ दलित और ब्राह्मण वोटों को अपने पक्ष में करने में कामयाब रहते हैं तो राजा के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं.
यादव-मुस्लिम के छिटकने का डर
गुलशन यादव के उतरने से कुंडा सीट पर यादव वोटों के छिटकने का डर राजा भैया को साफ नजर आ रहा है. बीजेपी से ब्राह्मण कैंडिडेट है और बसपा से मुस्लिम प्रत्याशी. यादव-मुस्लिम वोटरों की प्रभावी तादाद और एसपी मुखिया अखिलेश यादव की दिलचस्पी के चलते सपा ने राजा के खिलाफ पूरी ताकत झोंक रखी है. अखिलेश ने गुरुवार को कुंडा सीट पर सपा प्रत्याशी गुलशन यादव के लिए रैली करके माहौल बनाने की कवायद की है.
बीजेपी ने सिंधुजा मिश्रा को उम्मीदवार बनाया है, उनके पति 2007 में राजा के खिलाफ बीएसपी से लड़ चुके हैं. बीजेपी प्रत्याशी के लिए भले ही योगी आदित्यनाथ प्रचार करने न आए हों, लेकिन पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने जनसभा करके माहौल बनाने की कोशिश की है. कुंडा में ब्राह्मण, ठाकुर के साथ ही यादव, मुस्लिम व दलितों की प्रभावी संख्या है. सपा के साथ होने से अभी तक राजा भैया में जातीय खांचे टूटते थे, लेकिन इस बार उसके प्रत्याशी के उतरने से चुनावी लड़ाई साफ दिख रही है. तीन दशक में पहली बार यहां विपक्ष आक्रामक प्रचार कर रहा है और राजा भैया भी पूरा जोर लगा रहे हैं.