
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने मंगलवार को स्पष्ट तौर से कहा कि संघ आरक्षण का 'पुरजोर समर्थक' है और जब तक समाज का एक खास वर्ग 'असमानता' का अनुभव करता है, तब तक आरक्षण जारी रखा जाना चाहिए. आरएसएस का बयान ऐसे समय में आया है जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 को लेकर सियासी सरगर्मियां तेज हैं और बीजेपी का फोकस ओबीसी और दलित वोटों पर हैं. ऐसे में होसबाले ने आरक्षण पर बयान देकर सूबे के दलित और ओबीसी को क्या सियासी संदेश देने की कवायद की है.
दरअसल, मंडल कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद से उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति दलित और ओबीसी केंद्रित हो गई है. साल 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के वक्त आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा करने बयान दिया था, उससे सियासी तौर पर काफी बवाल मचा था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मोहन भागवत के बयान पर सफाई देनी पड़ी थी. भागवत के बयान का खामियाजा भी बीजेपी को चुनाव में भी उठाना पड़ा था.
बिहार से सबक लेते हुए आरएसएस यूपी में किसी तरह का कोई जोखिम नहीं उठाना चाहता है. 15 साल के बाद 2017 में सत्ता में लौटी बीजेपी के साथ-साथ आरएसएस के लिए भी 2022 का यूपी चुनाव काफी अहम है. होसबाले का केंद्र लखनऊ है. ऐसे में उनके ऊपर ही बीजेपी की सत्ता में वापसी के लिए जमीनी आधार तैयार करने का है. होसबाले ने आरक्षण पर बयान देकर बीजेपी के लिए यूपी में सियासी समीकरण साधने का बड़ा दांव चल दिया है.
यूपी में बीजेपी का फोकस
उत्तर प्रदेश में 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर बीजेपी नए सियासी समीकरण को बनाने में बीजेपी जुटी है. पार्टी 2014 से जुड़े पिछड़े और दलित वोट बैंक को सहेजने की लगातार कवायद में है. 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव हो या 2017 का विधानसभा चुनाव, गैर यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित मतदाताओं ने बीजेपी की राह को यूपी में आसान बनाया. बीजेपी इन्हीं मतदाताओं के सहारे 2022 के चुनाव की जंग को भी फतह करना चाहती है.
नरेंद्र मोदी सरकार एक के बाद एक ओबीसी के हितों में फैसले ले रही है. नीट में ओबीसी आरक्षण का मामला रहा हो या फिर राज्यों को ओबीसी आरक्षण की सूची तैयार करने का अधिकार देने का हो. इतना ही नहीं पीएम मोदी ने अपनी कैबिनेट विस्तार में भी बड़ी संख्या में ओबीसी समुदाय से आने वाले नेताओं को शामिल किया है. यूपी कोटे से सात मंत्री बनाए गए हैं, जिनमें तीन दलित और तीन ओबीसी समुदाय से हैं जबकि महज एक ब्राह्मण समुदाय से है.
बीजेपी और आरएसएस को विपक्षी दल पिछड़ा और दलित विरोधी बता रहे हैं. ऐसे में दत्तात्रेय होसबाले ने आरक्षण पर बयान देकर संघ के नजरिए को रखने के साथ-साथ यह भी बताने की कोशिश की कि न तो वो और न ही आरएसएस आरक्षण के विरोधी हैं बल्कि आरक्षण के प्रबल समर्थक हैं.
होसबाले ने कहा कि सामाजिक सौहार्द और सामाजिक न्याय हमारे लिए राजनीतिक रणनीति नहीं हैं बल्कि ये दोनों हमारे लिए आस्था की वस्तु हैं. उन्होंने आरक्षण को एक 'ऐतिहासिक जरूरत' और आरक्षण को 'सकारात्मक कार्रवाई' का साधन बताया. कहा कि आरक्षण और समन्वय (समाज के सभी वर्गों के बीच) साथ-साथ चलना चाहिए.
होसबाले ने कहा, जब हम समाज के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्गों के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करते हैं तो निश्चित रूप से आरक्षण जैसे कुछ पहलू सामने आते हैं. मेरा संगठन और मैं दशकों से आरक्षण के प्रबल समर्थक हैं. जब कई परिसरों में आरक्षण विरोधी प्रदर्शन हो रहे थे, तब हमने पटना में आरक्षण के समर्थन में एक प्रस्ताव पारित किया और एक संगोष्ठी आयोजित की थी. इस तरह से होसबाले ने दलित और पिछड़ों को यह बताने की कवायद की है कि संघ आरक्षण का विरोधी नहीं बल्कि हितैषी है.
वहीं, यूथ फॉर इक्वलिटी के शुभम शर्मा कहते हैं कि आरएसएस का बयान यह पूरी तरह से राजनीतिक है और यूपी के चुनाव लिहाज से दिया गया है. आरएसएस एक समय आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात करता रहा है, लेकिन मंडल कमीशन के बाद से बीजेपी सोशल इंजीनियरिंग एजेंडे पर काम कर रही है, जिसमें सिर्फ दलित और ओबीसी ही उसे नजर आते हैं. संघ जानता है कि बिना बीजेपी के सत्ता में रहे, उसके गोल पूरे नहीं हो सकते हैं. इसीलिए संघ वही काम कर रहा है जो बीजेपी को सियासी तौर पर फायदा पहुंचाने का काम करते हैं. जातीय आधार पर आरक्षण का समर्थन कर संघ यही संदेश देने की कोशिश कर रहा है.
आरक्षण विरोधी आंदोलन के संयोजक यूएस राणा भी कहते हैं कि संघ अब बीजेपी की बी-टीम के तौर पर काम कर रहा है और अगले साल पांच राज्यों में चुनाव होने हैं. संघ वैचारिक तौर पर बदल गया है और उसके लिए दलित और ओबीसी ही सबसे अहम है. इसके पीछे एक वजह यह भी है कि दलित और ओबीसी की आबादी भी काफी है. इसी वोटबैंक के चक्कर में संघ और बीजेपी दोनों ही सवर्णों के हितों से खेल रहे हैं. दत्तात्रेय होसबाले का ही नहीं बल्कि संघ प्रमुख मोहन भागवत भी अब जातीय आधारित आरक्षण की वकालत कर रहे हैं.
उत्तर प्रदेश में ओबीसी वोटबैंक की संख्या करीब 50 फीसदी है. इनमें सबसे ज्यादा यादव 8 फीसदी हैं. इसके बाद कुशवाहा, लोध, सैनी, कुर्मी, कुशवाहा, जाट, गुर्जर, पाल, मल्लाह की संख्या अधिक है. वहीं, सूबे में करीब 22 फीसदी दलित मतदाता है, जिनमें 12 फीसदी जाटव और 10 फीसदी गैर-जाटव हैं. 2017 के चुनाव में बीजेपी ने गैर-यादव ओबीसी जातियों के 148 उम्मीदवारों को टिकट दिया था और 85 टिकट दलित समुदाय के उम्मीदवारों को दिए थे. बीजेपी इन जातियों को अपने वोटबैंक में जोड़ने में सफल रही है.
बीजेपी, सपा, कांग्रेस और बसपा जैसी मुख्य पार्टियों के प्रदेश प्रदेश अध्यक्ष पिछड़ी जाति से आते हैं. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह कुर्मी जाति से आते हैं जबकि इसी जाति के नरेश उत्तम को सपा ने प्रदेश अध्यक्ष बना रखा है. वहीं, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू अति पिछड़ी कही जाने वाली कानू जाति आते हैं और ऐसे ही बसपा के प्रदेश अध्यक्ष भीम राजभर अति पिछड़े समुदाय के राजभर समाज से आते हैं.
उत्तर प्रदेश वरिष्ठ पत्रकार सैय्यद कासिम कहते हैं कि ओबीसी और दलित समुदाय सूबे के चुनाव में अपना वोट जाति के आधार पर तय करता रहा है. यही वजह है कि छोटे हों या फिर बड़े दल, सभी की निगाहें इस वोट बैंक पर रहती है. संघ ने इसी मद्देनजर आरक्षण के समर्थन में बयान दिया है, उसे पता है कि अगर दलित और ओबीसी चुनाव में बीजेपी से छिटके तो सत्ता हाथों से निकल जाएगी. इसीलिए संघ खुलकर अब बीजेपी के समर्थन में उतर आया है और सियासी संदेश देने की कवायद भी शुरू कर दी है.