Advertisement

यूपी में सियासी जमीन तलाशने के लिए साइकिल से सड़कें नापेंगे चंद्रशेखर, पकड़ी अखिलेश की राह

उत्तर प्रदेश में दलित समुदाय के बीच बसपा प्रमुख मायावती के विकल्प के तौर आजाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने खुद के स्थापित करने की हरसंभव कोशिश में जुट गए हैं. सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने दस साल पहले जिस तरह से साइकिल यात्रा की थी, उसी तर्ज पर अब चंद्रशेखर भी प्रदेश में साइकिल यात्रा कर अपनी सियासी जमीन तलाशने की कवायद में है.

आजाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद (फाइल फोटो) आजाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद (फाइल फोटो)
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली ,
  • 30 जून 2021,
  • अपडेटेड 2:34 PM IST
  • चंद्रशेखर एक से 21 जुलाई तक साइकिल यात्रा
  • कांशीराम के सहारे सियासत पिच पर उतरे चंद्रशेखर
  • क्या यूपी का दलित वोटर मायावती को छोड़ देगा

उत्तर प्रदेश में अगले साल शुरू में होने वाले विधानसभा चुनाव की सियासी सरगर्मियां तेज हो रही हैं. सूबे के दलित समुदाय के बीच बसपा प्रमुख मायावती के विकल्प के तौर आजाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने खुद के स्थापित करने की हरसंभव कोशिश में जुट गए हैं. सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने दस साल पहले जिस तरह से साइकिल यात्रा की थी, उसी तर्ज पर अब चंद्रशेखर भी प्रदेश में साइकिल यात्रा कर अपनी सियासी जमीन तलाशने और दलितों के दिल में जगह बनाने की रणनीति बनाई है. 

Advertisement

चंद्रशेखर की साइकिल यात्रा

आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर एक जुलाई से 21 तक साइकिल यात्रा शुरू कर रहे हैं, जिसमें जरिए उत्तर प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाने का काम करेंगे. उन्होंने इसे 'बहुजन साइकिल यात्रा' का नाम दिया है, जिसका रोड तैयार कर लिया गया है. उन्होंने कहा कि परिवर्तन यात्रा से जाति तोड़ो समाज जोड़ो अभियान से प्रदेश की राजनीति में नया मोड़ आएगा. वह स्वयं जनता के बीच जाकर सरकार की पोल खोलने का काम करेंगे. इस साइकिल यात्रा के माध्यम से जनता को बीजेपी सरकार की नाकामियों के बारे में अवगत कराने का काम करेंगे. 

कांशीराम के सहारे चंद्रशेखर

आजाद समाज पार्टी साइकिल यात्रा के जरिए एससी-एसटी और ओबीसी को शिक्षा और नौकरियों का मुद्दा उठाने का काम करेगी. इसी के साथ चंद्रशेखर ने नारा दिया, 'मा. काशीराम का मिशन अधूरा हम सब मिलकर करेंगे पूरा.' हालांकि, एक दौर में बसपा संस्थापक कांशीराम ऐसे ही नारा दिया था, जिसमें उन्होंने कहा था, 'बाबा साहब तेरा मिशन अधूरा, हम सब मिलकर करेंगे पूरा.' बसपा इस नारे को गांव-गांव लेकर गई थी. वहीं, अब चंद्रशेखर ने बसपा के इस नारे में बाबा साहब की जगह कांशीराम को शामिल किया है.  

Advertisement

बसपा का विकल्प बनने की कवायद

बता दें कि उत्तर प्रदेश की सियासत में 2012 के बाद से बसपा का ग्राफ नीचे गिरना शुरू हुआ. 2017 के चुनाव में बसपा ने सबसे निराशाजनक प्रदर्शन किया था. हालांकि, 2019 लोकसभा चुनाव नतीजे के बाद लग रहा था कि सपा को यूपी में नंबर दो से बेदखल कर बसपा मुख्य विपक्षी दल की जगह लेगी, लेकिन मायावती न तो सड़क पर उतरीं और न बीजेपी सरकार के खिलाफ उनके वो तेवर नजर आए जिनके लिए वो जानी जाती हैं. ऐसे में मायावती के सक्रिय न होने के चलते उनके दलित वोटबैंक को उन्हीं के जाटव समाज से निकले चंद्रशेखर की नजर है. 

बसपा समर्थक

पिछले दिनों चंद्रशेखर ने बसपा सुप्रीमो पर बड़ा आरोप लगाते हुए कहा था, 'मायावती ने बहुजनों का नेतृत्व ब्राह्मणों को सौंप दिया है. दलित अब उनके लिए सिर्फ वोटर बनकर रह गए हैं. मायावती जिनसे वोट मांगती हैं, जिन्हें अपना मानती हैं, उनके ऊपर अत्याचार होता है तो चुप क्यों रहती हैं? सड़क पर उतरकर आंदोलन क्यों नहीं करतीं? एक समय तो उन्होंने ही कहा था कि वोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा, लेकिन लोकसभा में रितेश पांडेय और राज्यसभा में सतीश मिश्रा बसपा के नेता हैं.' इससे साफ है कि चंद्रशेकर अब मायावती के विकल्प के तौर पर दलितों के बीच खुद को स्थापित करना चाहते हैं. 

Advertisement

यूपी में दलित वोटों की राजनीति 

उत्तर प्रदेश में दलित मतदाता करीब 22 फीसदी हैं. अस्सी के दशक तक कांग्रेस के साथ दलित मतदाता मजबूती के साथ जुड़ा रहा, लेकिन बसपा के उदय के साथ ही ये वोट उससे छिटकता ही गया. इसके बावजूद बसपा का दलित कोर वोटबैंक है. यूपी का 22 फीसदी दलित समाज दो हिस्सों में बंटा है. एक, जाटव जिनकी आबादी करीब 12 फीसदी है और दूसरा गैर जाटव दलित है. जाटव वोट बसपा का हार्डकोर वोटर माना जाता है, जिस पर भीम आर्मी के जरिए सियासत शुरू करने वाले चंद्रशेखर आजाद की नजर लगी हुआ है. 

वहीं, सूबे में गैर-जाटव दलित वोटों की आबादी तकरीबन 10 फीसदी है. इनमें 50-60 जातियां और उप-जातियां हैं और यह वोट विभाजित होता है. हाल के कुछ वर्षों के चुनाव में देखा गया है कि गैर- जाटव दलितों का उत्तर प्रदेश में बीएसपी से मोहभंग हुआ. गैर-जाटव दलित मायावती का साथ छोड़ चुका है. लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में गैर-जाटव वोट बीजेपी के पाले में खड़ा दिखा है, लेकिन यह वोटबैंक किसी भी पार्टी के साथ स्थिर नहीं रहता है. इसीलिए गैर-जाटव दलितों को साधने के लिए तमाम कोशिशें विपक्षी राजनीतिक दलों के द्वारा की जा रही हैं. 

चंद्रशेखर आजाद

सपा प्रमुख अखिलेश यादव सूबे में बीजेपी से चुनावी मुकाबला करने के लिए कई राजनीतिक प्रयोग कर चुके हैं. कांग्रेस से लेकर बसपा तक से गठबंधन किया, लेकिन बीजेपी को मात नहीं दे सके. मायावती की बजाय खुद दलित वोटों को साधने के साथ-साथ अपनी पार्टी के सियासी समीकरण को मजबूत करने की कवायद में जुटे हैं. इसी कड़ी में अखिलेश यादव और दलित नेता चंद्रशेखर के बीच गठबंधन की चर्चाएं भी चल रही है, लेकिन अभी तक तस्वीर साफ नहीं हो सकी है. वहीं, यूपी में कांग्रेस की कमान प्रियंका गांधी के हाथों में आने के बाद से वह अपने पुराने दलित वोट बैंक को फिर से जोड़ने की रणनीति पर काम कर रही हैं. दलितों के मुद्दे पर कांग्रेस और प्रियंका गांधी लगातार सक्रिय हैं.

Advertisement

सुरक्षित सीटों पर जीत का मतलब सत्ता 

उत्तरप्रदेश में मुस्लिम वोटरों के बाद सबसे ज्यादा दलित वोटर हैं. वैसे तो इस वर्ग का हर सीट पर महत्व है, पर इनके लिए राज्य की 403 में से 87 सीटें सुरक्षित घोषित हैं. हर विधानसभा चुनाव में उसी पार्टी की सरकार बनती है, जो इन सीटों पर बहुमत हासिल करती है. पिछले तीन साल से इन पर कब्जे के लिए पार्टियां दांव चलती रही हैं. 

राज्य में 2017 में आरक्षित 87 सीटों में 85 एससी और 2 एसटी के लिए हैं. पिछले चुनाव में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 85 सीटों में से बीजेपी को 69 सीटें मिलीं थी. इससे पहले साल 2007 में बसपा ने 62 और 2012 में समाजवादी पार्टी ने 58 सीटें जीती थी. इस तरह से दलित सीटों पर जीत का परचम फहराने वाली पार्टी ही सूबे की सत्ता पर काबिज होती रही है. ऐसे में दलित सियासत यूपी में काफी अहम मानी जाती है. 

 

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement