
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब सहित पांच राज्यों के चुनाव की तारीख का औपचारिक ऐलान (State Assembly Elections 2022) हो चुका है. चुनाव आयोग ने कोरोना संकट को देखते हुए कई अहम दिशानिर्देश जारी किए हैं. इसके तहत पांचों चुनावी राज्यों में 15 जनवरी तक रोड शो, पदयात्रा, साइकिल या वाहन रैली पर रोक लगा दी गई है. पार्टी नेताओं की चुनावी रैलियों पर 15 जनवरी तक कैंपेन कर्फ्यू लागू रहेगा.
कोरोना की हालत में अगर सुधार नहीं हुआ और कैंपेन कर्फ्यू ऐसे ही चुनाव आयोग लागू रखता है तो बसपा सुप्रीमो मायावती और उनकी पार्टी को सबसे ज्यादा दिक्कतों का सामना करना होगा. मायावती के दर्शन से उनके समर्थक महरूम रह जाएंगे, क्योंकि वह क्षेत्रों में जाकर फिजिकल रैली नहीं कर सकेंगी. ऐसे में बसपा प्रमुख को अपनी बातों को जनता तक पहुंचाने के लिए वर्चुअल रैली का सहारा लेना होगा. लेकिन बसपा कार्यकर्ता डिजिटल प्लेटफॉर्म पर ज्यादा सक्रिय नहीं है.
कैंपेन कर्फ्यू के बीच चुनाव
मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा ने बताया कि पांचों चुनाव राज्यों में 15 जनवरी तक रैली, रोड शो आदि की इजाजत नहीं दी जाएगी. किसी भी राजनीतिक दल या उम्मीदवार को फिजिकल चुनावी रैलियों की इजाजत नहीं होगी. किसी भी नुक्कड़ सभा का आयोजन भी नहीं किया जा सकेगा. इसके अलावा चुनाव में जीत के बाद भी जुलूस निकालने पर प्रतिबंध लगाया गया है. डोर टू डोर कैंपेन के लिए केवल 5 लोग ही जा सकते हैं. 15 जनवरी के बाद हालात का जायजा लेकर चुनाव आयोग फैसला लेगा.
3 महीने पहले हुई थी मायावती की फिजिकल रैली
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो चुनाव आयोग के कैंपेन कर्फ्यू का सबसे ज्यादा असर बसपा पर पड़ेगा, क्योंकि पार्टी के समर्थक वर्चुअली साउंड नहीं है. मायावती खुद भी ट्वीटर पर साल 2018 के आखिर में जुड़ी थी और उनके पार्टी के नेता भी काफी देर में सोशल मीडिया पर आए हैं. मायावती की अभी तक यूपी में महज एक रैली ही कर सकी हैं. वो भी तीन महीने पहले लखनऊ में 9 अक्टूबर को कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस पर. इसके अलावा न तो मायावती की कोई रैली हुई है और न ही कोई दौरा.
वहीं, विपक्षी दल चुनाव प्रचार अभियान को देखे तो बसपा कहीं भी नजर नहीं आ रही. बीजेपी, कांग्रेस और सपा के तमाम शीर्ष नेताओं ने तो आचार संहिता लागू होने से पहले यूपी के अलग-अलग हिस्सों में अपनी कई रैलियां कर चुके हैं और रथ यात्रा के जरिए माहौल बना चुके हैं. ऐसे में अब चुनाव की घोषणा के साथ ही प्रचार अभियान पर कैंपेन कर्फ्यू लगा दिया गया है, जिसके चलते फिलहाल वर्चुअल रैली करनी होगी.
बिना प्रचार कैसे एजेंडा सेट करेंगी मायावती
हालांकि, मायावती यूपी चुनाव में जनवरी के तीसरी तीसरे सप्ताह से अपनी रैली शुरू करने वाली थी, लेकिन कोरोना संकट के चलते चुनाव आयोग ने बड़ी रैलियों और जनसभाओं पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया है. इससे मायावती और उनकी पार्टी के लिए सबसे ज्यादा दिक्कतें खड़ी हो गई हैं, क्योंकि 2022 का चुनाव बसपा के साथ-साथ दलित सियासत के लिए काफी अहम माना जा रहा है. ऐसे में मायावती किस तरह से अपने समर्थकों के बीच अपनी बातें पहुचाएंगी और सियासी एजेंडा सेट करेंगी.
बसपा के प्रवक्ता फैजान खान कहते हैं कि पहली बार कोरोना संकट के बीच चुनाव हो रहा है. चुनाव आयोग के निर्देशों का पालन बसपा करेगी. कैंपेन कर्फ्यू की वजह से मायावती की फिजकली रैली न होने से निश्चित तौर पर असर पड़ेगा, लेकिन दूसरे माध्यमें के जरिए बहनजी की बातों को लोगों तक पहुंचाने की रूपरेखा बना रहे हैं. बसपा कैडर आधारित पार्टी है और हमारा संगठन जमीनी स्तर तक है.
डोर टू डोर प्रचार पर रहेगा जोर
हालांकि, बसपा प्रवक्ता का कहना है कि चुनावी रैलियों पर 15 जनवरी तक ही प्रतिबंध है, लेकिन अगर उसे बढ़ाया जाता तो चिंता की बात है. वर्चुअली रैली में बीजेपी के बराबर हमारे पास संसाधन नहीं है. ऐसे में हम अपनी बात को पहुंचाने के लिए अपने कैडर के जरिए डोर-टू-डोर प्रचार करेंगे. इसके अलावा मायावती की रैली भले ही नहीं हुई है, लेकिन सतीष चंद्र मिश्रा दो बार यूपी के जिलों में जनसभाएं कर चुके हैं. बसपा अध्यक्ष मायावती की बात को लोगों तक पहुंचाने के लिए प्लानिंग कर रहे हैं, क्योंकि वही हमारी नेता हैं.
मायावती के नाम है भीड़ जुटाने का रिकॉर्ड
उत्तर प्रदेश में मायावती को बड़ी चुनावी रैलियों के लिए पहचाना जाता है. यूपी की रैलियों में सबसे ज्यादा भीड़ जुटाने का रिकार्ड मायावती के नाम है, जिन्हें सुनने के लिए लाखों की संख्या में लोग जुटते हैं. 2007 के बाद से मायावती सिर्फ चुनाव के दौरान ही जनता के बीच नजर आती हैं. 2017 के चुनाव में मेरठ और अलीगढ़ से मायावती ने प्रचार की शुरुआत की थी और फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने सहारनपुर से शुरू किया था. लोकसभा चुनाव के बाद मायावती न तो जमीन पर उतरीं और न ही किसी तरह की कोई जनसभा किया.
2022 के चुनाव सरगर्मियों के बीच मायावती ने पिछले साल 9 अक्टूबर को कांशीराम स्मारक स्थल पर परिनिर्वाण दिवस मनाया था. इसमें बड़ी संख्या में लोग पहुंचे थे. इस दौरान मायावती ने मंच से अपने समर्थकों और दलित वोटबैंक को सियासी संदेश देने के साथ-साथ चुनावी एजेंडा सेट करने की कवायद की थी. हालांकि, इस रैली के बाद उन्होंने न तो कोई भी रैली नहीं की है और न ही सूबे में किसी इलाका का दौरा किया है.
मायावती की खामोशी पर विपक्ष के सवाल
मायावती की चुनावी खामोशी पर अखिलेश यादव सवाल खड़े करते रहे हैं तो केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भी चुटकी ली थी. मुरादाबाद की रैली में अमित शाह ने कहा था 'बहनजी की तो अभी ठंड ही नहीं गई है. ये भयभीत हैं. बहनजी, चुनाव आ गए हैं. थोड़ा बाहर निकलिए, बाद में ये न कहिएगा. मैंने प्रचार नहीं किया था.' वहीं, अखिलेश यादव ने कहा कि बसपा चुनाव से बाहर है, जिसके वजह से प्रचार नहीं कर रहीं.
वहीं. चुनाव आयोग ने अब चुनावी कैंपेन पर ही पूरी तरह से रोक लगा दी है, जिसके मायावती के चुनाव में प्रचार करने की बची-कुची संभावनाओं पर भी ग्रहण लग गया है. हालांकि, चार बार की मुख्यमंत्री रह चुकी मायावती के सियासी भविष्य के लिए यह चुनाव काफी अहम है. इसके बावजूद मायावती चुनावी अभियान में नहीं उतर चुकी हैं जबकि 2012 के चुनाव से लगातार बसपा का सियासी ग्राफ गिरता जा रहा है और पार्टी के नेता साथ छोड़ रहे हैं.
साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में मायावती ने 19 सीटें जीती थीं. दलित कोर वोटबैंक के साथ ओबीसी के सहारे चुनावों में तेवर दिखाने वाली मायावती के लिए ये चुनाव थोड़ा मुश्किल भी है. बसपा के कई बड़े चेहरे हाथी से उतरकर साइकिल पर सवार हैं. इंद्रजीत सरोज, रामअचल राजभर, आरके चौधरी और लालजी वर्मा ने बसपा का साथ छोड़ अखिलेश के साथ खड़े हैं.
बसपा को भुगतना पड़ सकता है खमियाजा
राजनीतिक विश्लेषक सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि चुनाव प्रचार पर रोक का खामियाजा बसपा को भुगतना पड़ेगा, क्योंकि बसपा के लोग सोशल मीडिया से दूर रहे हैं. इसके अलावा बसपा का वोटर ज्यादातर ग्रामीण इलाके में रहता है, जो रैलियों में मायावती की बातों को सुनकर उसे गांठ बांधकर रखता था. रैलियां न होने से मायावती की बात उनके समर्थकों तक पहुंचना मुश्किल हैं, क्योंकि वो मीडिया और सोशल मीडिया से दूर हैं. ऐसे में बसपा का दलित वोटर है, वो न तो मायावती को अपने बीच देख सकेगा और न ही मायावती उन पर अपना व्यापक असर डाल पाएंगी.
वह कहते हैं कि बसपा सुप्रीमो मायावती का मानना रहा है कि उनके लिए प्रतिबद्ध मतदाता उनके अलावा कहीं नहीं जाएंगे. लंबे समय तक यह सही भी साबित होता रहा, लेकिन 2014 के बाद से यह भ्रम टूटा है. पिछले तीन चुनाव से दलित समाज का एक तबगा बसपा से छिटका है, जो बीजेपी और सपा के साथ गया है. बुरी हार के बाद मजबूरन मायावती को भी 2018 में ट्विटर पर अकाउंट बनाना पड़ा, जिसके बाद उन्होंने सोशल मीडिया तक ही खुद को सीमित रखा है. चुनावी रैलियां न होने से बसपा के समर्थक हैं, वो मायावती को देखने से महरूम रह जाएंगे?