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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की घोषणा भले ही अभी नहीं हुई, लेकिन राजनीतिक रस्साकसी जोरों पर है. सूबे में जातीय आधार वाले छोटे दलों के साथ गठबंधन कर राजनीतिक दल अपने-अपने सियासी समीकरण दुरुस्त करने में जुटे हैं तो टिकट को लेकर जोड़-तोड़ भी जोरों पर है. इन सबके बीच 2022 के चुनाव में यूपी के कई दिग्गज नेता नजर नहीं आएंगे, जो पिछले पांच दशक से ज्यादा से यूपी की सियासत के धुरी बने हुए थे.
आरएलडी के संस्थापक चौधरी अजित सिंह, बीजेपी नेता व यूपी के पूर्व सीएम कल्याण सिंह, लालजी टंडन, बसपा नेता रहे सुखदेव राजभर और सपा के संस्थापक और मुस्लिम चेहरा माने जाने वाले आजम खान इस बार के चुनाव में नहीं नजर आएंगे. आजम खान फिलहाल जेल में बंद हैं, जिसकी वजह से चुनावी रण में नहीं दिखेंगे, जबकि बाकी उपरोक्त चार नेताओं का निधन हो चुका है. ऐसे में यूपी की राजनीति में इन पांचों ही नेताओं के सियासी सफर का जिक्र करेंगे और उनके बगैर कैस होगा 2022 का चुनाव?
चौधरी अजित सिंह
राष्ट्रीय लोकदल के संस्थापक चौधरी अजित सिंह भले ही अपने पिता चौधरी चरण सिंह की तरह देश के पीएम और यूपी के सीएम नहीं बन सके, लेकिन पश्चिमी यूपी की सियासत के धुरी जरूर बने रहे हैं. चार दशक के सियासी इतिहास में पहली बार होगा कि 2022 के यूपी चुनाव में चौधरी अजित सिंह नहीं दिखेंगे. इसी साल मई में अजित सिंह का निधन हो गया है, जिसकी वजह से 40 साल में पहली बार उनके आवाज की गूंज सुनाई नहीं देगी.
सूबे के सियासी मिजाज को समझने वाले और जाट वोटों के दम पर अजित सिंह पश्चिमी यूपी की राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी माने जाते थे. जनता दल से लेकर संयुक्त मोर्चा, बीजेपी और कांग्रेस की सरकार में अजित खुद केंद्रीय मंत्री रहे हैं तो साल 2004 में सपा को समर्थन कर मुलायम सिंह यादव की सरकार बनवाने में अहम भूमिका अदा की. बीजेपी से लेकर सपा, बसपा और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर यूपी के चुनाव लड़े, लेकिन मुजफ्फरनगर दंगे से उनका सियासी आधार खिसक गया था. किसान आंदोलन से आरएलडी को दूसरी बार सियासी संजीवनी मिली हैं, लेकिन 2022 के चुनाव में उसके नतीजे को देख नहीं पाएंगे. चौधरी अजित सिंह की विरासत उनके बेटे जयंत चौधरी संभाल रहे हैं और सपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने का दम भर रहे हैं. ऐसे में देखना होगा कि अजित सिंह के बगैर जयंत क्या सियासी करिश्मा दिखाते हैं?
कल्याण सिंह
देश में बीजेपी का चेहरा भले ही अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी रहे हों, लेकिन पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग और हिंदुत्व का चेहरा कल्याण सिंह हुआ करते थे. उत्तर प्रदेश में ओबीसी को बीजेपी के साथ जोड़ने में कल्याण सिंह की अहम भूमिका रही है, जिसकी बदौलत नब्बे के दशक में यूपी में सरकार बनी. कल्याण सिंह लोधी समुदाय से थे, जिनकी आबादी सेंट्रल यूपी से पश्चिम यूपी तक फैली हुई है. पिछड़ों की आबादी में यादवों और कुर्मी के बाद तीसरे नंबर पर इस समाज की संख्या बताई जाती थी और बीजेपी का परंपरागत वोटर माना जाता है.
पांच दशक तक कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश की सियासत के केंद्र में रहे हैं. बीजेपी के कई नेता उनका सानिध्य पाकर पनपे हैं और उनका पूरा सियासी करियर काफी उतार-चढ़ाव का साक्षी रहा है. कल्याण सिंह यूपी में दो बार मुख्यमंत्री रहे हैं और बाबरी विध्वंस के बाद उनकी सरकार भंग हो गई थी. राम मंदिर के लिए जेल जाने वाले बीजेपी के एकलौते नेता थे. सूबे में बीजेपी को मजबूत किया तो पार्टी से बगावत भी की, लेकिन जुलाई 2021 में उन्होंने अंतिम सांस बीजेपी के सदस्य के तौर पर ली. ऐसे में पचास साल में पहली बार होगा कि उनके बगैर चुनाव होंगे, जिसमें कल्याण सिंह की आवाज नहीं गूंजेगी, लेकिन चर्चा जरूर होगी.
लालजी टंडन
उत्तर प्रदेश की सियासत में लालजी टंडन बड़ा नाम हुआ करते थे और अटल बिहारी वाजपेयी के करीबी नेता माने जाते थे. छह दशक में पहली बार होगा जब वो यूपी चुनाव में नहीं नजर आएंगे. जुलाई 2020 में लालजी टंडन का निधन हो गया है, ऐसे में बीजेपी को उनकी कमी जरूर खलेगी. आरएसएस की राजनीतिक प्रयोगशाला से लालजी टंडन निकले थे और 2017 से पहले बीजेपी की सभी सरकारों में वो मंत्री रहे.
लालजी टंडन ने पार्षदी से लेकर कैबिनेट मंत्री और सांसद तक का 6 दशक तक सामाजिक एवं सियासी सफर तय किया और लखनऊ की सियासत में मंझे हुए खिलाड़ी रहे. बसपा और बीजेपी की सरकार बनवाने में उनकी अहम भूमिका रही और मायावती को अपनी बहन मानते थे. लालजी टंडन बिहार और मध्य प्रदेश के गवर्नर भी रहे, लेकिन यूपी की सियासत में उनका दखल जरूर रहा. ऐसे में 2022 के चुनाव में उनकी कमी बीजेपी को और सूबे के लोगों महसूस होगी.
सुखदेव राजभर
पूर्वांचल में ओबीसी समाज के बड़े नेता और कांशीराम के साथ कंधे से कंधा मिलाकर बसपा को मजबूत करने वाले सुखदेव राजभर इस बार के चुनाव में नजर नहीं आएंगे. सुखदेव राजभर का इसी साल अक्टूबर में निधन हो गया. 1991 से लेकर 2017 तक पांच बार विधायक रहे. राजभर ने अपना सियासी सफर बसपा से शुरू किया था और अंतिम सांस भी बसपा में ली. हालांकि, आखिरी दिनों में बसपा से उनका मोहभंग हो गया था, लेकिन पार्टी नहीं छोड़ी.
पूर्वांचल में राजभर समाज के बड़े नेता माने जाते थे. मायावती की सभी सरकारों में मंत्री रहे तो कल्याण सिंह से लेकर मुलायम कैबिनेट का भी हिस्सा रहे और विधानसभा अध्यक्ष के पद पर भी पांच साल तक रहे. बसपा के अतिपिछड़ा समाज के कद्दावर नेता माने जाते थे और आजमगढ़ से चुनाव लड़ा करते थे. सुखदेव राजभर जमीनी नेता और अंबेडकरवादी विचाराधार के मानने वाले थे. 2022 के चुनाव में बसपा को जहां उनकी कमी महसूस होगी.
आजम खान
सपा के संस्थापक सदस्य और मुस्लिम चेहरा माने जाने वाले आजम खान जेल में हैं, जिनके बाहर आने की अभी कोई संभावना नहीं दिख रही है. आजम खान यूपी की सियासत में चार दशक से सक्रिय हैं और मुलायम सिंह यादव के सबसे करीबी नेता माने जाते हैं. ऐसे में यूपी के चुनाव में सपा के लिए मुस्लिम वोटों को साधने का जिम्मा आजम खान पर हुआ करता था, लेकिन अब उनके जेल में जाने से 2022 के चुनाव में न तो उनके जज्बाती भाषण सुनाई देंगे और न ही विवाद खड़ा होगा. महज एक बार आजम खान को रामपुर में सियासी मात खानी पड़ी थी, इसके अलावा उनके सामने कोई चुनौती नहीं दे सका.
आजम खान सिर्फ रामपुर ही नहीं बल्कि रुहेलखंड और पश्चिमी यूपी की तमाम मुस्लिम बहुल सीटों पर असर रखते थे. आजम खान सपा के बेबाक और साफगोई से अपनी बात को रखते थे, जिसके चलते वे विवादों में खूब रहे. मुस्लिम सियासत की नब्ज को बेहतर तरीके से समझते थे, जिसके आधार पर अपना भाषण दिया करते थे. मुस्लिमों के दिल में सपा की जगह बनाने का काम आजम खान ने ही किया था, लेकिन इस बार के चुनाव में उनकी कमी सूबे में जरूर खल रही है. हालांकि, राजनीतिक चर्चा के केंद्र में जरूर आजम खान बने रहेंगे, चाहे वो भले ही सत्तापक्ष और विपक्ष के नेताओं के जिक्र में ही आएं.