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UP ELECTION: क्या ये हार मायावती के राजनीतिक पतन की शुरुआत है?

हालांकि मायावती का आरोप है कि बीजेपी ने ईवीएम मशीनों को 'फिक्स' किया जिसके चलते उनकी पार्टी की ये हालत हुई. लेकिन बारीकी से देखें तो चूक उनकी चुनावी रणनीति में भी हुई है. उन्होंने इस बार फिर दलित-मुस्लिम-अगड़ी जातियों के समीकरण पर दांव लगाया था. इसी फॉर्मूले ने 2007 में उन्हें सत्ता दिलाई थी. बीएसपी ने कुल 99 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों को उतारा. लेकिन आखिर में इससे मुस्लिम वोटों का विभाजन हुआ और फायदा बीजेपी को पहुंचा.

क्या इस हार से उबर पाएंगी मायावती? क्या इस हार से उबर पाएंगी मायावती?
अनुग्रह मिश्र
  • नई दिल्ली,
  • 12 मार्च 2017,
  • अपडेटेड 3:52 PM IST

अगर 2014 में मोदी की लहर में हाथी डगमगाया था तो अबकी बार उसके पैर उखड़ गए लगते हैं. महज 19 सीटों पर जीत इस बात में कोई शुबहा नहीं छोड़ती कि यूपी की जनता ने बहुजन समाज पार्टी को नकारा है. ऐसे में सवाल उठने लगा है कि क्या मायावती के सियासी सफर के अंत की शुरुआत हो चुकी है?

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हार ने घटाया मायावती का कद
सत्ता से लंबे वक्त तक दूरी किसी भी सियासी पार्टी के लिए घातक साबित होती है. ऐसी स्थिति में पार्टी कार्यकर्ताओं का जोश ठंडा पड़ने लगता है और नेता छिटकने लगते हैं. लखनऊ की सत्ता से लगातार एक दशक से दूर मायावती को अब 5 साल तक और इंतजार करना होगा. कभी विधानसभा में बीएसपी की तूती बोलती थी लेकिन इस बार विपक्ष का नेता भी पार्टी को नसीब नहीं होगा.

इस हार का असर राष्ट्रीय पटल भी मायावती का कद घटाने जा रहा है. नई विधानसभा में उनकी पार्टी को राज्यसभा में 1 से ज्यादा सीट मिलने की उम्मीद नहीं है. लोकसभा में पहले ही बीएसपी की कोई नुमाइंदगी नहीं है. ऐसे में केंद्र की सियासत में मायावती के लिए प्रासंगिकता बनाए रखना बेहद कठिन होगा.

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अब ये साफ है कि 2014 के आम चुनाव में प्रदेश से साफ होने के बाद भी मायावती अपनी पार्टी के सियासी नसीब को बदल नहीं पाई. ऐसे में पार्टी के भीतर एकछत्र नेता के तौर पर उनकी विश्वसनीयता को चोट पहुंचना लाजिमी है.

हाथी का ये हश्र क्यों?

हालांकि मायावती का आरोप है कि बीजेपी ने ईवीएम मशीनों को 'फिक्स' किया जिसके चलते उनकी पार्टी की ये हालत हुई. लेकिन बारीकी से देखें तो चूक उनकी चुनावी रणनीति में भी हुई है. उन्होंने इस बार फिर दलित-मुस्लिम-अगड़ी जातियों के समीकरण पर दांव लगाया था. इसी फॉर्मूले ने 2007 में उन्हें सत्ता दिलाई थी. बीएसपी ने कुल 99 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों को उतारा. लेकिन आखिर में इससे मुस्लिम वोटों का विभाजन हुआ और फायदा बीजेपी को पहुंचा.

मायावती के लिए जरुरी था कि वो गैर-जाटव दलित और गैर-यादव ओबीसी वोट को अपने खेमे में लाती. 2014 में दोनों तबकों ने बीजेपी को समर्थन दिया था. बीएसपी ने पिछले साल अगस्त में बाकी पार्टियों से पहले चुनाव का बिगुल फूंका था. अपने प्रचार में उन्होंने दलितों और मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचारों के मसले पर बीजेपी को घेरने की कोशिश की. दूसरी तरफ, समाजवादी पार्टी को खराब कानून व्यवस्था और अंदरूनी कलह के मुद्दों पर शह और मात देने की कोशिश की.

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प्रचार के क्लाइमेक्स तक आते-आते उन्होंने मुस्लिमों को आगाह किया कि वो समाजवादी पार्टी-कांग्रेस के गठबंधन पर वोट बर्बाद ना करें. लेकिन महज रैलियों में ये मसले उठाना दलितों और पिछड़ों के बीच आरएसएस कैडर की मुहिम का मुकाबला करने के लिए काफी नहीं था. करीब 22.2 फीसदी का वोट प्रतिशत बताता है कि मायावती का कोर वोट बैंक अब भी उनसे छिटका नहीं है. लेकिन उनके सोशल इंजीनियरिंग के आजमाए हुए फॉर्मूले में दूसरी पार्टियों की सेंध लग चुकी है.

इस पर रही-सही कसर चुनावों से ऐन पहले स्वामी प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक जैसे नेताओं की दगाबाजी ने पूरी कर दी. जहां मौर्य के पार्टी छोड़ने से ओबीसी तबके के बीच गलत संदेश गया, वहीं ब्रजेश पाठक के तौर पर बीएसपी ने बड़ा ब्राह्मण चेहरा गंवाया.

मायावती के सामने चुनौतियां
ये तो साफ है कि अब महज दलितों के सहारे हाथी साइकिल और कमल के फूल का मुकाबला नहीं कर सकता. लिहाजा उन्हें जाति के अलावा आर्थिक आधार पर भी अलग-अलग वर्गों के लिए एजेंडा सामने रखना होगा. 61 साल की उम्र में वक्त ज्यादा देर तक मायावती के साथ नहीं रहेगा. खासकर ऐसे वक्त में जब समाजवादी पार्टी के पास अखिलेश यादव जैसे युवा नेता हैं. लिहाजा उन्हें अपने बाद भी ऐसे नेता तैयार करने होंगे जो विपरीत लहर में भी पार्टी की नैया पार लगा सकें. ठीक उसी तरह जैसा कांशीराम ने मायावती के साथ किया था.

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जीत के कई वारिस होते हैं लेकिन हार का कोई नहीं. लिहाजा मायावती के सामने एक और चुनौती मौजूदा हालात में पार्टी को एकजुट बनाए रखने की होगी. ये देखना बाकी है कि वो अपने कैडर का हौसला बनाए रखने के लिए क्या करती हैं.

तेजी से बढ़ते मध्यम वर्ग के इस दौर में मायावती को युवाओं के सरोकार से जुड़ने की भी जरुरत है. महिला होने के नाते उन्हें आधी आबादी के वोट बैंक पर भी तवज्जो देनी होगी. मोदी यही काम अपनी कई योजनाओं के जरिये कामयाबी से कर चुके हैं.

भले ही मायावती का अंदाज ऐसा ना हो जो उन्हें देश की राजधानी की चकाचौंध मीडिया का दुलारा बनाए लेकिन जहां तक सवाल समाज के सबसे आखिरी पायदान पर खड़े दलितों का है, एक मजबूत हाथी आज भी सियासत की जरुरत है. सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या मायावती सत्ता और राजनीति के दांवपेंचों से ऊपर उठकर इस बात को समझेंगी? बीजेपी का सामना एक कैडर आधारित पार्टी ही कर सकती है लिहाजा बीएसपी सुप्रीमो को चाहिए कि वो लखनऊ की चौड़ी सड़कों को छोड़कर अब गांवों की तंग गलियों का भी रुख करें.

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