
समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने कभी कहा था कि कमजोर होने के बाद कांग्रेस समाजवादियों की सबसे अच्छी सहयोगी पार्टी साबित होगी. कांग्रेस के हाथ में साइकिल थमाते वक्त चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के जेहन में भी कुछ ऐसी ही उम्मीद रही होगी. लेकिन वोटरों के दिल में कुछ और था और किशोर को अपने करियर की पहली बड़ी हार का स्वाद चखना पड़ा है इस जीत के साथ अमित शाह ने बिहार में मिली हार का हिसाब भी चुकता किया है.
यूपी में 'हाथ' से निकली बाजी
ये शायद पहला मौका था जब कांग्रेस के किसी दिग्गज नेता ने क्षेत्रीय नेता की कमान में प्रचार किया. लेकिन प्रशांत किशोर का ये दांव काम नहीं आया. यूपी में कांग्रेस पहले ही मरणासन्न हालत में थी. प्रशांत किशोर की टीम ने '27 साल, यूपी बेहाल' के नारे के साथ राहुल गांधी की खाट यात्रा निकालकर जोर-शोर से पार्टी के प्रचार अभियान का आगाज किया था. लेकिन यात्रा खत्म होते-होते ही ये साफ था कि कांग्रेस अपने बूते किसी सियासी चमत्कार नहीं कर सकती. नतीजों से साफ है कि प्रचार के बीचों-बीच अपने ही स्लोगन के खिलाफ अखिलेश यादव का दामन थामना वोटरों को रास नहीं आया.
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जब नेतृत्व नहीं तो जीत कैसे?
2014 का आम चुनाव हो या बिहार विधानसभा चुनाव या फिर पंजाब विधानसभा चुनाव के नतीजे, प्रशांत किशोर का जादू तभी चला जब मैदान में दमदार चेहरा मौजूद था. यूपी में पहले-पहल प्रशांत किशोर ने शीला दीक्षित को सीएम उम्मीदवार बनवाया. उनका इरादा दीक्षित के जरिये कांग्रेस के परंपरागत अगड़ी जाति वोट बैंक का दिल जीतना था. जब ये साफ हुआ कि शीला दीक्षित वोटरों पर असर डालने में नाकाम रही हैं तो किशोर और उनकी टीम ने प्रियंका गांधी को प्रचार की कमान देने की हर मुमकिन कोशिश की. लेकिन प्रियंका ने इस रोल को स्वीकार नहीं किया और कांग्रेस अपनी मुहिम के लिए कोई चेहरा ही नहीं जुटा पाई. पार्टी की नैया डुबोने में रही-सही कसर स्थानीय नेताओं ने पूरी की जो प्रशांत किशोर की सुनने को तैयार नहीं थे.
अमित शाह का बदला
प्रशांत किशोर और अमित शाह दोनों ही चुनावी रणनीति के चाणक्य भले ही माने जाते हों लेकिन दोनों के बीच मतभेद 2014 के चुनाव से चले आ रहे हैं. कहा जाता है कि अमित शाह को इन चुनावों में मोदी के साथ किशोर की नजदीकी गवारा नहीं थी. एक वक्त था जब प्रशांत किशोर गुजरात में मोदी के आवास पर ही डेरा जमाते थे और कोई भी बड़ा सियासी फैसला लेने से पहले मोदी उनकी राय लेना नहीं भूलते थे. इसी रंजिश का नतीजा था कि मोदी के दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने के बाद प्रशांत किशोर ने अचानक जेडीयू का साथ देने का फैसला किया. कहा जाता है कि प्रशांत किशोर मोदी की जीत के बाद पार्टी में बड़ी भूमिका चाहते थे लेकिन अमित शाह ने ऐसा होने नहीं दिया.
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बिहार चुनाव में मुकाबला प्रशांत किशोर और अमित शाह के प्रचार मॉडल के बीच था. जहां अमित शाह का स्टाइल पुराने तरीके से पार्टी के वफादार वर्कर्स और नेताओं के जरिये चुनावी वैतरिणी पार लगाने का था, यूएन में काम कर चुके प्रशांत किशोर कॉर्पोरेट स्टाइल के पेशेवर अंदाज में चुनाव मैनेज करने के लिए जाने जाते हैं. चूंकि बिहार में किशोर के पास नीतीश कुमार नाम का तुरुप का इक्का था, यहां अमित शाह की रणनीति को मुंह की खानी पड़ी थी.