
देश के पहाड़ी राज्य उत्तराखंड की राजनीति काफी उतार-चढ़ाव वाली रही है. यहां पर राष्ट्रवाद के नाम पर वोट पड़ जाते हैं, धर्म के नाम पर हार-जीत तय हो जाती है और कई मौकों पर सीटों पर सोशल इंजीनियरिंग ऐसी सेट की जाती है कि कोई पार्टी मैच को एकतरफा बना देती है. लेकिन इन सभी पहलुओं के अलावा उत्तराखंड में 'चेहरों की लड़ाई' निर्णायक साबित होती है. कई मौकों पर मुद्दों से ज्यादा जनता 'चेहरों' पर अपना विश्वास जताती है और उसी आधार पर उसका वोट तय हो जाता है.
2017 के विधानसभा चुनाव में भी पीएम मोदी का चेहरा बीजेपी के लिए महत्वपूर्ण रहा था. उन्हीं के नाम पर बिना कोई सीएम उम्मीदवार घोषित किए पार्टी ने 70 विधानसभा सीटों में से 57 पर जीत हासिल कर ली थी. अब 2022 का चुनाव दस्तक देने जा रहा है, इस बार भी ये चेहरों की लड़ाई निर्णायक साबित होने जा रही है.
राहुल-प्रियंका की कम रैलियां, उत्तराखंड में क्या इशारा?
इस चुनाव में बीजेपी सत्ता में आने के लिए पूरा दमखम लगा रही है. लेकिन उसकी सबसे बड़ी चुनौती है हरीश रावत से पार पाना. अब कहने को पहाड़ी राज्य में बीजेपी बनाम कांग्रेस का मुकाबला देखने को मिल रहा है. लेकिन कांग्रेस से ज्यादा ये मुकाबला हरीश रावत का बीजेपी के साथ दिख रहा है. जो कमाल 2017 में पीएम मोदी ने अपने चेहरे के दम पर बीजेपी के लिए कर दिखाया था, वैसा ही कुछ कमाल इस बार कांग्रेस हरीश रावत के चेहरे के जरिए करना चाहती है. पार्टी की इस चुनाव में रणनीति भी इस ओर साफ इशारा कर रही है.
दो दिनों बाद उत्तराखंड में वोटिंग होने जा रही है, लेकिन अभी तक इस चुनाव में कांग्रेस हाईकमान सक्रिय नहीं दिखा है. पूरी जिम्मेदारी पूर्व सीएम हरीश रावत के कंधों पर है जो लगातार प्रचार भी कर रहे हैं और कई रैलियों को भी संबोधित कर रहे हैं. उनके अलावा मैदान में खड़े उम्मीदवार और कुछ दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री और पूर्व सीएम पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश कर रहे है. लेकिन जैसा कांग्रेस पार्टी का स्टाइल रहा है, उसको देखते हुए चुनावी मौसम में हाईकमान का सबसे ज्यादा सक्रिय हो जाना आम रहता है. ज्यादातर रैली भी राहुल गांधी द्वारा होती दिख जाती हैं. एक तरीके से वे अपने ही चेहरे पर चुनाव लड़वा जाते हैं. लेकिन इस बार इससे बचा गया है. हरीश रावत पर हाईकमान ने भरोसा जताया है. लोकल लीडर हैं, लंबा अनुभव है और जमीन पर लोगों के बीच लोकप्रिय भी माने जाते हैं. ऐसे में इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस हाईकमान जरूर थोड़ा पीछे खड़ा है, लेकिन हरीश रावत पूरी मजबूती के साथ बीजेपी का मुकाबला कर रहे हैं.
अभी तक उत्तराखंड चुनाव में राहुल गांधी द्वारा पांच रैलियां संबोधित की गई हैं, वहीं प्रियंका गांधी ने भी तीन रैलियों के जरिए माहौल बनाया है. लेकिन जब तुलना 2017 से की जाती है तब राहुल गांधी ने पहाड़ी राज्य में 7 से 8 रैलियां संबोधित की थीं. ऐसे में इस बार पहाड़ी राज्य में उनकी उपस्थिति कम रही है लेकिन हरीश रावत की काफी ज्यादा बढ़ गई है.
बीजेपी का निशाना कांग्रेस से ज्यादा हरीश रावत
बीजेपी का चुनाव प्रचार भी ऐसा रहा है कि उनके ज्यादातर हमले हरीश रावत पर ही केंद्रित रहे हैं. या तो उनकी पिछली सरकार की किसी योजना पर निशाना है या फिर सीधे रावत को ही कठघरे में खड़ा करने का काम हुआ है. कुछ दिन पहले ही गृह मंत्री अमित शाह ने एक जनसभा को संबोधत करते हुए कहा था कि हरीश रावत बड़े-बड़े भाषण दे रहे हैं. वादे कर रहे हैं. लेकिन जब इस वीरभूमि के युवा अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते थे, तब इन पर गोलियां किसने चलवाई थीं. तब अमित शाह ने यहां तक कह दिया था कि हरीश रावत ने उत्तराखंड के लिए बहुत कर लिया है, अब बीजेपी के युवा सीएम को मौका मिलना चाहिए.
अमित शाह का ये बयान ही बताने को काफी है कि उत्तराखंड चुनाव में हरीश रावत खुद एक बड़ा मुद्दा हैं. अगर बीजेपी को कांग्रेस पर निशाना भी साधना है तो सहारा हरीश रावत के चेहरे का लिया जा रहा है क्योंकि मैदान में पूरी ताकत के साथ वे खड़े हैं. इस बार हरीश रावत उत्तराखंड की लालकुंआ सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. पहले वे रामनगर सीट से उम्मीदवार बनाए गए थे लेकिन फिर 24 घंटे के भीतर ही उनकी सीट बदल दी गई और वे लालकुंआ से उम्मीदवार बन गए. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि रामनगर सीट से कांग्रेस के ही दिग्गज नेता रंजीत सिंह यादव उम्मीदवार बनना चाहते थे. उनकी हरीश रावत संग खटपट पुरानी थी, लिहाजा उन्हें हरीश रावत की उम्मीदवारी स्वीकार नहीं हुई. बताया जाता है कि उन्होंने निर्दलीय तक जाने का मन बना लिया था. लेकिन बाद में हरीश रावत को लालकुंआ शिफ्ट कर दिया गया और रणजीत को भी रामनगर की जगह साल्ट से प्रत्याशी बनाया गया.
उत्तराखंड कांग्रेस के सबसे बड़े नेता कैसे बने हरीश रावत?
वैसे उत्तराखंड के चुनाव में हरीश रावत इतना बड़ा नाम इसलिए भी बन गए हैं क्योंकि हर बड़ा फैसला या कह लीजिए हर बड़े फैसले में सबसे ज्यादा भागीदारी उन्हीं की देखने को मिल रही है. इसकी शुरुआत तो पिछले साल तभी हो गई थी जब कांग्रेस हाईकमान ने उत्तराखंड चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष हरीश रावत को बना दिया था. उस पद पर उनका आना ये साफ कर गया था उत्तराखंड कांग्रेस में आगे की रणनीति हरीश रावत ही तय करने वाले हैं और कई अहम फैसलों में उनकी अहम भूमिका रहने वाली है. अब उस समय जिन बातों की अटकलें लगाई जा रही थीं, आज सभी सच साबित होती दिख रही हैं. जब हरीश रावत को चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था, उसके कुछ समय बाद ही उन्हीं के खासम-खास माने जाने वाले गणेश गोदियाल को उत्तराखंड कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया गया.
इसके बाद जब उम्मीदवार चुनने की बारी आई, तब फिर हरीश रावत ने ऐसी राजनीतिक बिसात बिछाई कि कई उन्हीं के पसंदीदा उम्मीदवारों को मैदान में उतारा गया. इस सब के ऊपर कांग्रेस ने जो एक फैमिली एक टिकट' का फॉर्मूला तैयार किया था, हरीश रावत के लिए उसमें भी बदलाव कर दिए दए. नतीजा ये निकला कि हरीश रावत की बेटी अनुपमा रावत उस हरिद्वार ग्रामीण सीट से उम्मीदवार बना दी गईं जहां पर 2017 में उनके पिता को हार का सामना करना पड़ा था. ऐसे में अगर हरीश रावत के लिए उनकी सीट का बदलना झटका था तो वहीं उनकी बेटी को टिकट मिलना उतनी बड़ी जीत भी.
Modi Vs All के बाद Rawat Vs All?
अब बीजेपी की नजरों से समझे तो चुनाव संचालन समिति के अध्यक्ष को ही अमूमन तौर पर मुख्यमंत्री का चेहरा माना जाता रहा है, इसी वजह से पार्टी के लिए कांग्रेस से ज्यादा बड़ी चुनौती हरीश रावत हैं. पार्टी कांग्रेस से ज्यादा हरीश रावत से चुनाव लड़ रही है. अब कांग्रेस के लिए ये एक कारगर रणनीति भी साबित हो सकती है. अगर पिछले कुछ चुनावों पर नजर डालें तो कई बार बीजेपी ने हमेशा यही नैरेटिव सेट करने की कोशिश की है कि Modi Vs All. पीएम की छवि सशक्त करने का प्रयास रहता है, उन्हें वन मैन आर्मी बताया जाता है और उन्हीं चेहरे के दम पर वोट लाए जाते हैं. इस बार उत्तराखंड चुनाव में कांग्रेस भी यही रणनीति अपनाती दिख रही है. कहने को पार्टी के पास अब सबसे बड़े दलित नेता यशपाल आर्य वापस आ चुके हैं, हरक सिंह रावत ने भी घर वापसी की है, लेकिन फिर भी कांग्रेस का चुनाव में नैरेटिव यही है- Harish Rawat Vs All. मतलब एक तरफ बीजेपी की बड़े-बड़े मंत्रियों की और खुद पीएम की फौज खड़ी है, तो दूसरी तरफ अपने दम पर अकेले मुकाबला कर रहे हैं हरीश रावत.
प्रत्याशियों से ज्यादा बड़े नेताओं पर दांव
वैसे जिस रणनीति पर कांग्रेस काम कर रही है, वहीं काम उत्तराखंड में बीजेपी और आम आदमी पार्टी भी करती दिख रही है. इन दोनों दलों ने भी 'चेहरों की लड़ाई' को पूरी अहमियत दी है. एक तरफ बीजेपी के पास अगर सबसे युवा सीएम पुष्कर सिंह धामी हैं तो दूसरी तरफ उनके सबसे लोकप्रिय नेता नरेंद्र मोदी भी चुनावी मैदान में सक्रिय हैं. आम आदमी पार्टी भी पहली बार उत्तराखंड में चुनावी किस्मत आजमा रही है, लेकिन पार्टी का सारा फोकस उनके सीएम उम्मीदवार कर्नल अजय कोठियाल पर है. आप संयोजक अरविंद केजरीवाल भी कह गए कि जनता को एक फौजी को सेवा करने का मौका देना चाहिए. ऐसे में दोनों ही पार्टियों ने अपने प्रत्याशियों से ज्यादा इन चेहरों पर दांव चला है. उम्मीद की जा रही कि इन चेहरों के दम पर ही प्रत्याशियों की सीट भी निकाल ली जाएगी. अब चुनावी मौसम में चेहरों की लड़ाई में असल में बाजी कौन मारता है, ये 10 मार्च को साफ हो जाएगा.