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आजादी के 75 सालः इन डायरेक्टर ने बदली भारतीय सिनेमा की तस्वीर, जानिए कैसे

भारत अपनी आजादी के 75 साल पूरे कर रहा है. इन 75 सालों में अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़ी आइकॉनिक शख्सियतों के अलावा, जिस एक चीज से दुनिया हमें पहचानती है, वो है सिनेमा. भारत में सिनेमा 20वीं सदी की शुरुआत में आया. लेकिन आजादी के कुछ साल पहले से ही हमारे फिल्म मेकर्स का काम दुनिया में पहुंचने लगा और इसे तारीफ मिली. और 75 साल बाद ये सिलसिला आज भी बना हुआ है.

एसएस राजामौली और सत्यजित रे एसएस राजामौली और सत्यजित रे
सुबोध मिश्रा
  • नई दिल्ली ,
  • 14 अगस्त 2022,
  • अपडेटेड 11:53 AM IST

सिनेमा क्या है? इस सवाल का सबसे सादा जवाब है- दौड़ती इमेज और आवाज के कॉम्बिनेशन वाला एक माध्यम. इस माध्यम से एक फिल्म मेकर दर्शकों को कहानियां सुनाता है. एंटरटेनमेंट के उद्देश्य से बनीं ये कहानियां कितना कुछ समेटे हुए रहती हैं, उससे तय होता है कि सिनेमा कितना जानदार है. आज जब भारत अपनी आजादी के 75 सालों का जश्न मना रहा है, तो हर खुशी-हर गम में साथ रही फिल्मों को कैसे भूला जा सकता है. 

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भारत में सिनेमा आजादी से कुछ साल पहले ही रंग में आया. लेकिन इस माध्यम को हमने इस तरह अपनाया, कि हमारा सिनेमा भी दुनिया में हमारी एक अलहदा पहचान है. बीते महीनों में एस एस राजामौली की फिल्म RRR ने जिस तरह दुनिया भर से तारीफ बटोरी है, वो हमारे लिए एक प्राउड होने का मोमेंट तो है ही, लेकिन ये पहली बार नहीं हो रहा है. हमारा सिनेमा और हमारे फिल्म मेकर काफी पहले भी दुनिया भर में सेलिब्रेट किए जाते रहे हैं. 

आइए आपको बताते हैं उन कुछ फिल्म मेकर्स के बारे में जिनके काम ने इंडियन सिनेमा को दुनिया भर में पहचान दिलाई:

1. सत्यजित रे

सत्यजित रे (क्रेडिट: Getty Images)

सत्यजित रे ने 1952 में जब 'पथेर पांचाली' का शूट शुरू किया तो उनके पास एक ऐसा क्रू था जिसमें से अधिकतर को फिल्म मेकिंग का कोई अनुभव नहीं था. फिल्म बनाने के लिए फंड भी नहीं था और अपने निजी खर्च पर उन्होंने फिल्म शुरू की. लोग फंड देते तो स्क्रिप्ट में बदलाव चाहते. इस स्ट्रगल के बाद जो फाइनल प्रोडक्ट बना वो सिर्फ एक फिल्म नहीं थी. ह्यूमन बिहेवियर और भावनाओं का एक ग्रंथ था.

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इस फिल्म में ऐसा क्या था उसे यूं समझिए- जिस फिल्म के दुनिया भर के इंटरनेशनल फिल्ममेकर कसीदे पढ़ रहे थे, जिसके बारे में लिखने के लिए लोगों को शब्द नहीं मिल रहे थे. उसके बारे में एक बड़े फ्रेंच फिल्म मेकर ने कहा 'मैं हाथ से खाना खाते किसानों के लिए फिल्म नहीं देखना चाहता.' इसी से समझा जा सकता है कि पर्दे पर चीजों को रियल रखने वाले सिनेमा को सत्यजित रे ने कितना इंस्पायर किया होगा. 

रे के सिनेमा संसार में नायक नहीं खड़े होते थे. उनकी कहानियों और किरदारों की इमोशनल, साइकोलॉजिकल जर्नी कोई नायक नहीं खड़ा करती थी. लेकिन इस बेहद व्यक्तिगत सफर से दर्शक को दुनिया देखने की एक नजर मिलती थी. रे से पहले भी समाज की बुराइयों और कुरीतियों पर फिल्में बन रही थीं, मगर उनके सिनेमा में कहानी कहने की तकनीक, उसका फॉर्म मेनस्ट्रीम सिनेमा से बहुत अलग था. उनकी फिल्में न पॉलिटिक्स पर कमेंट्री थीं, न उसके खिलाफ कोई विद्रोह.

मगर इनमें पॉलिटिक्स का सबसे आम आदमी, समाज की चेन में सबसे आखिरी आदमी पर ऐसा असर दिखता था, जो बदलाव के विचार को जन्म देता था. वो सिर्फ इंसानी भावनाओं के ही नहीं फैंटेसी, साइंस फिक्शन और डिटेक्टिव कहानियों के भी पायनियर थे. उनकी एक स्क्रिप्ट 'द एलियन' के बारे में माना जाता है कि इससे कई हॉलीवुड और देसी फिल्मों ने इंस्पिरेशन ली. 

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रे की अपू ट्राइलॉजी (पथेर पांचाली, अपराजितो और अपुर संसार) ही नहीं, 'चारुलता' 'द म्यूजिक रूम' 'जलसाघर' 'देवी' 'महानगर' जैसी फिल्मों को फिल्म मेकर्स सिनेमा की टेक्स्टबुक की तरह देखते हैं. अनुराग बसु, दीपा मेहता, मीरा नायर, शूजित सरकार, दिबाकर बनर्जी जैसे कितने ही नामी फिल्म मेकर रे के काम से इंस्पिरेशन लेने की बात कह चुके हैं.

2. बिमल रॉय

बिमल रॉय (क्रेडिट: IMDB)

बिमल रॉय का सिनेमा सोशलिस्ट आईडिया को अपनी मेनस्ट्रीम फिल्म मेकिंग के साथ लाया. यहां जितनी आर्ट थी उतना ही कॉमर्स भी. लेकिन वो जो दिखाना चाहते थे उसमें सेंसिटिविटी कम हुई हो, या मैसेज चूका हो, ऐसा भी नहीं. जहां एक तरफ वो 'दो बीघा जमीन' 'सुजाता' 'बंदिनी' बना रहे थे. तो वहीं 'देवदास' और 'मधुमती' भी. 'दो बीघा जमीन' जहां कान्स फिल्म फेस्टिवल में इंटरनेशनल अवॉर्ड जीत रही थी, वहीं 'मधुमती' ने पुनर्जन्म की थीम इंडियन सिनेमा को दी जिसमें आगे चलकर 'कर्ज' और फिर 'ओम शांति ओम' जैसी फिल्में भी बनीं.

भारत ही नहीं, ढेरों इंटरनेशनल फिल्म मेकर्स ने बिमल रॉय के सिनेमा से इंस्पिरेशन ली. उनकी फिल्मों के गाने तो गोल्ड स्टैण्डर्ड थे. ''मधुमति' का पूरा एल्बम, 'परख' का 'ओ सजना बरखा बहार', 'सुजाता' का 'जलते हैं जिसके लिए' जैसे कई आइकॉनिक हिंदी गाने रॉय की फिल्मों से आए. 

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3. वी शांताराम 

वी. शांताराम (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

फिल्म मेकिंग की तकनीकों से लगातार एक्सपरिमेंट करना हो या फिर सामाजिक बुराइयों के खिलाफ बागी किरदार खड़े करना हो, वी शांताराम ने फिल्म मेकिंग को बहुत बदला और मराठी सिनेमा से लेकर हिंदी सिनेमा तक को एक क्लास दिया. शांताराम उन शुरुआती फिल्म मेकर्स में से थे जिन्होंने महिला किरदारों को फिल्म में आगे रखा.

उनके महिला किरदार सामाजिक कुरीतियों के सामने डटकर खड़े हो जाते थे. उनके पुरुष किरदार भी उस दौर में जो कर रहे थे, उसे अभी के समय में फिल्म में दिखाना भी बोल्ड माना जाता है. 'मानूस' में जहां रेड लाइट एरिया के एक पुलिस अफसर को प्रॉस्टीटयूट से प्यार हो जाता है, वहीं 'दुनिया ना माने' में एक लड़की, अपने बूढ़े पति के साथ संबंध बनाने से इनकार कर देती है. शांताराम की फिल्में ये कंटेंट 1930 के दशक में ला रही थीं. 'मानूस' की तारीफ तो चार्ली चैपलिन ने भी खूब की थी. 

'दो आंखें बारह हाथ' में 6 कैदियों को सुधार कर, उनके मोरल सुधार की कोशिश करते वार्डन की कहानी, इंसानियत के धागों में बुनी हुई थी. वहीं 'झनक झनक पायल बाजे' (1955) नेशनल अवार्ड विनिंग फिल्म थी जो डांस की थीम पर थी. एक ऐसी थीम जिसपर आज भी हिंदी फिल्म मेकर्स एक जोरदार कहानी खोजने में बहुत मेहनत कर रहे हैं. कवि, उसकी कल्पना और पत्नी पर बनी कहानी 'नवरंग' एक आइकॉनिक फिल्म थी, जिसे एडिटिंग के लिए उस टाइम पर बहुत नोट किया गया.

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4. राज कपूर

राज कपूर (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

इंडियन सिनेमा के 'ग्रेटेस्ट शोमैन' कहे गए राज कपूर ने, 24 साल की उम्र में जब अपनी पहली फिल्म 'आग' (1948) बनाई तो उनके साथ सिनेमा को एक रोमांटिसिज्म मिला. आजादी के बाद वाले एक दशक में, देश का हर आम आदमी लाइफ में स्ट्रगल कर रहा था. और ऐसे में राज कपूर की फिल्में वो एक ठिकाना थीं, जिसे देखते हुए सपनों में खोया जा सकता था. असली 'एस्केपिस्ट' सिनेमा, यानी सबकुछ भुला कर कहानी में खो जाने वाला सिनेमा.

समाज की दिक्कतें, देशभक्ति और राजनीति उनकी फिल्मों में भी थी मगर इनका ट्रीटमेंट मूड को सुकून देने वाला था. 'आह' 'बरसात' 'श्री 420' 'आवारा' जैसी उनकी फिल्में एक पूरा पैकेज थीं जिनमें बड़ा कैनवास था. इस कैनवास पर राज कपूर रोमांस भी कर रहे थे, डांस भी, गा भी रहे थे और चार्ली चैपलिन के आइकॉनिक किरदार 'द ट्रैम्प' को स्क्रीन पर भारतीय फ्लेवर में पेश भी कर रहे थे.

बाद की फिल्मों 'संगम' 'बॉबी' 'सत्यम शिवम सुन्दरम' 'प्रेम रोग' और 'राम तेरी गंगा मैली' में जब वो प्रेम कहानियां लेकर आए, तो वो भी सामाजिक बंधनों को तोड़ती हुई थीं. मगर फिल्मों का कुल गणित सुन्दरता के इर्द-गिर्द बुना गया था.

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5. मृणाल सेन

मृणाल सेन (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

जहां रे अपनी आर्ट और फिल्म मेकिंग के फॉर्म को लेकर बहुत बारीक थे और 'सटल' होने पर उनका जोर खूब था. वहीं उनके साथ न्यू इंडियन सिनेमा के 3 पायनियर फिल्म मेकर्स में गिने जाने वाले मृणाल सेन हार्ड हिटिंग. उनके सिनेमा का फॉर्म और कंटेंट दोनों बहुत रॉ, डार्क और बहुत उकसाने वाला था. सेन अपनी फिल्मों में राजनीति की परतें उधेड़ने से भी नहीं चूकते थे.

उनका स्टाइल इतना 'इन द फेस' था कि उनकी 'नील आकाशेर नीचे' (1958) आजाद भारत में बैन होने वाली पहली फिल्म थी. बंगाल के विभाजन और वहां पड़े अकाल का बुरा हाल सेन की फिल्मों में खूब उतरा. 1960 में आई उनकी फिल्म 'बैशे श्रवण' (Baishey Shravan ) में भीषण अकाल में बिना खाने के जूझ रहे एक कपल की कहानी ने लोगों को अंदर तक झिंझोड़ दिया. कहानी में एक हिस्सा ऐसा आता है जब भूख से लड़ते किरदारों की डार्क साइड दिखने लगती है. ये लंदन फिल्म फेस्टिवल में भेजी गयी पहली भारतीय फिल्म बनी.

सेन के बारे में ये बात मशहूर है कि उनका कहना था 'सिनेमा इज अ गन' यानी सिनेमा एक बंदूक है. इस बंदूक को फायर करते रहने के साथ ही उन्होंने 'भुवन शोम' (1969) जैसी आइकॉनिक फिल्म भी बनाई जिसे 'न्यू सिनेमा' की शुरुआत करने वाला माना जाता है. एक ऐसी फिल्म जिसने अकेलेपन, दया, करुणा जैसे नैतिक पैमानों के साथ-साथ शहरी और ग्रामीण जीवन के बीच की खाई को भी एक नई नजर से दिखाया. (दिलचस्प फैक्ट- इस फिल्म में अमिताभ बच्चन की आवाज बतौर नैरेटर आपको सुनाई देगी. ये उनके एक्टिंग डेब्यू से पहले की बात है.)

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6. गुरु दत्त

गुरु दत्त

1951 में देव आनंद की 'बाजी' के रिलीज होने के साथ ही सिनेमा को एक जीनियस मिला. गुरु दत्त की पर्सनल लाइफ से निकल कर सामने आने वाले किस्सों ने उन्हें अंदर से नितांत अकेले व्यक्ति के तौर पर दिखाया. लेकिन इन सब बातों से अलग गुरु दत्त का सिनेमा एक ऐसा खजाना है जिससे पिछले 70 साल से लोग इंस्पिरेशन ले रहे हैं. सिनेमा का आर्ट और क्राफ्ट बदलने वाले सीन, चेहरे पर एक्सट्रीम क्लोजअप, कहानी के नैरेटिव में म्यूजिक का लिमिटेड मगर इफेक्टिव इस्तेमाल, मेटाफर में इमोशन जताने का हुनर.

गुरु दत्त की फिल्मों से इंडियन ही नहीं इंटरनेशनल फिल्म मेकर्स ने भी ये चीज सीखी. 'प्यासा' (1957) 'कागज के फूल' (1959) और 'साहिब बीवी और गुलाम' (1962) से पूरी दुनिया के फिल्म मेकर्स फैसिनेट रहते हैं. 'मिस्टर एंड मिसेज 55' 'आर पार' और 'चौहदवीं का चांद' भी फिल्म लवर्स की पसंदीदा फिल्में हैं.

7. मनमोहन देसाई

मनमोहन देसाई (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

मनमोहन देसाई ने सिनेमा को जो दिया उसे स्टाइल से ज्यादा टशन कहना सही रहेगा. फिल्मों के कट्टर प्रेमी मनमोहन की आलोचना करते हुए उन्हें 'बेतुकी' कहानियां लाने के लिए याद रखते हैं. मगर जब एक कुली (कुली, 1983) कॉरपोरेट और पॉलिटिकल करप्शन से लड़ रहा हो, तो थिएटर में ताली पीटते आदमी को जो फीलिंग आई होगी, उसके बड़ी कोई खुशी नहीं होती. उसे स्क्रीन पर एक हीरो दिखता है और वो अपनी लाइफ में हीरो बन जाता है. मनमोहन देसाई मसाला और मेलोड्रामा फिल्मों के उस्ताद थे.

'रोटी' 'परवरिश' 'अमर अकबर एंथनी' 'नसीब' 'मर्द' जैसी जबरदस्त हिट्स बनाने वाले देसाई ने बॉक्स ऑफिस को जमकर हरियाली दी. अमिताभ बच्चन को सुपरस्टार बनाने वाले फिल्ममेकर्स में देसाई का बहुत बड़ा योगदान रहा.  

8. ऋषिकेश मुखर्जी

ऋषिकेश मुखर्जी (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

जिसे 'स्लाइस ऑफ लाइफ' सिनेमा कहा जाता है यानी छोटी सी कहानी में बड़ा सा दिल रखने वाली कहानियां, ऋषिकेश मुखर्जी ने इंडियन सिनेमा को दीं. उन्हें मिडल सिनेमा की शुरुआत करने वालों में गिना जाता है. मिडल सिनेमा यानी ऐसी जिनमें कमर्शियल सिनेमा की शो-शां और तामझाम नहीं था और आर्ट फिल्मों की गंभीरता भी नहीं.

'अनुपमा' 'सत्यकाम' 'मंझली दीदी' जैसी गंभीर फिल्में बनाने वाले डायरेक्टर ने, 'चुपके चुपके' 'गोल माल' 'बावर्ची' और 'खूबसूरत' जैसी फिल्में बनाईं जो अपनी बेहतरीन कॉमेडी के लिए याद की जाती हैं. लेकिन मुखर्जी की सबसे बड़ी खासियत थी बिना ग्लैमर, बिना मसाले के जिंदगी के छोटे-छोटे मुद्दे बड़ी सफाई से, बिना शोर शराबे के छू जाना. 'गोल माल' भले कॉमेडी थी, मगर उसके सेंटर में बेरोजगारी थी. 'चुपके चुपके' में परफेक्शन के भूत से बचने का मैसेज था. फिल्म मेकिंग सीखने वालों को ऋषि दा की फिल्मों की एडिटिंग जरूर देखनी चाहिए.  

9. श्याम बेनेगल

श्याम बेनेगल (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

70 के दौर में एक तरफ बॉलीवुड मसालेदार ब्लॉकबस्टर बनाने में उस्ताद हो रहा था, तो दूसरी तरफ आए श्याम बेनेगल और पैरेलल सिनेमा की एक नई लहर. इस सिनेमा में रियलिटी का कड़वा डोज था, आंखें खोल देने वाला. जहां 'अंकुर' (1974) में दलित लड़की की जमींदार से प्रेम कहानी थी, वहीं अलग जाति के कारण होने वाले भेदभाव का असर हर दूसरे सीन में दिखता था.

सेक्स वर्कर्स की जिंदगियों पर बनी 'मंडी' (1983) में कैमरे ने लड़कियों को जिस तरह सिर्फ एक इन्सान के तौर पर देखा वो कभी नहीं भूला जा सकता. 'आरोहण' 'त्रिकाल' और 'मम्मो' जैसी नेशनल अवार्ड जीतने वाली फिल्मों से बेनेगल ने अपना काम जारी रखा और उनके काम से इंस्पायर होकर, सोशल समस्याओं पर नजर रखने वाला सिनेमा और फलने फूलने लगा. 

10. अपर्णा सेन

अपर्णा सेन (इंडिया टुडे)

जानी मानी एक्ट्रेस रहीं अपर्णा सेन ने 1981 में बतौर डायरेक्टर फिल्म बनाई '36 चौरंघी लेन'. नेशनल अवार्ड जीतने वाली इस फिल्म में वायलेट (जेनिफर केंडल) का किरदार अकेलेपन के उन शेड्स को दिखाता है जिसे पर्दे पर देखना दिल तोड़ देने वाला था. 1989 में उनकी फिल्म 'सती' में शबाना आजमी ने एक बोल न पाने वाली  लड़की का किरदार निभाया, जिसकी जन्मपत्री में लिखा है कि वो विधवा हो जाएगी.

इसके बाद उसके साथ जो कुछ होता है उसे फिल्म में देखकर आज भी आप भावुक हो सकते हैं. 'युगांत', 'पारोमा' और 'मिस्टर एंड मिसेज अय्यर' जैसी फिल्मों में अपर्णा ने जो फेमिनिस्ट विजन रखा उसने सिनेमा को बदला और मजबूत महिला किरदारों, महिला फिल्म मेकर्स के लिए रास्ता बनना शुरू हुआ. 

11. गोविंद निहलानी 

गोविंद निहलानी (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

पैरेलल सिनेमा के सबसे बेहतरीन डायरेक्टर्स में से एक थे गोविंद निहलानी. 6 नेशनल अवार्ड जीतने वाले निहलानी ने आक्रोश (1980), अर्ध सत्य (1983), द्रोहकाल (1994) और हजार चौरासी की मां (1994) जैसी कई फिल्में बनाईं. उनके काम को देश में ही नहीं, इंटरनेशनल स्तर पर भी तारीफ मिली. अपनी इन्टेंस फिल्मों में उन्होंने लाइट और क्लोज-अप के इस्तेमाल से जो शानदार सीन क्रिएट किए उन्हें फिल्म मेकिंग की क्लास में पढ़ाया जाता है.

12. सई परांजपे

सई परांजपे

स्पर्श (1980), चश्मे बद्दूर (1981), कथा (1983) जैसी आइकॉनिक फिल्में बनाने वालीं सई उस दौर में ये फ़िल्में बना रही थीं जब सिनेमा स्क्रीन्स पर मसाला फिल्मों और सुपर-मैन टाइप के नायकों का राज था. उनकी फिल्मों में एक सादगी थी और भारत में तैयार हो रहे मिडल क्लास के बड़े रियल पोर्ट्रेट थे. उनके सिनेमा में एंटरटेनमेंट एक जरूरी एलिमेंट था जो मैसेज को मारक बनाता था. 

13. सुभाष घई

सुभाष घई (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

राज कपूर के बाद 'शो मैन' का तमगा पाने वाले सुभाष घई ने सिनेमा को वो सारे गुण दिए जिनके बिना आज बॉलीवुड की परिभाषा ही नहीं हो सकती. ग्रैंड सेट्स, दिल को पिघला देने वाली लव स्टोरी, बेहतरीन गाने, टशन मारता हीरो, डायलॉगबाजी, स्टाइल, एक्शन और क्लास वाले विलेन. 'कर्मा' हो या 'राम लखन' या फिर 'सौदागर' 'खलनायक' और 'ताल', मल्टीस्टारर-मसालेदार फिल्मों के तो सुभाष उस्ताद माने जाते हैं.

उनकी लव स्टोरीज के ट्विस्ट भी जनता को खूब पसंद आए. घई की फिल्मों में किरदारों का ग्रे कैरेक्टर अपने आप में एक दिलचस्प बातचीत का मुद्दा हो सकता है. और 'खलनायक' में तो उन्होंने सीधे-सीधे विलेन वाले किरदार को फिल्म का मुख्य किरदार बना दिया. जनता को ये आईडिया इतना पसंद आया कि हर दूसरा आदमी 'जी हां, मैं हूं खलनायक' मोड में आ गया.   

14. सूरज बड़जात्या

सूरज बड़जात्या (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

90 के दौर में जब थिएटर्स में लगने वाली 5 फिल्मों में से 4 एक्शन मसाला होती थीं, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि बिना मसाले वाली फैमिली ड्रामा फिल्में भी ब्लॉकबस्टर हो सकती हैं. सूरज बड़जात्या की सिर्फ 3 फिल्में 'मैंने प्यार किया' 'हम आपके हैं कौन' और 'हम साथ साथ हैं' सिनेमा के आजमाए हुए हर फॉर्मूले से अलग थीं. प्यार, परिवार और परम्परा को सेलिब्रेट करने वाली ये फिल्में जितनी एक लड़के को पसंद आती थीं, उतनी ही उसके पेरेंट्स को और दादा जी को भी. सूरज बड़जात्या की फिल्में जनता की आम जिंदगी में इतना घुल चुकी हैं कि इनके गानों के बिना तो फैमिली फंक्शन नहीं पूरे होते.   

15. प्रियदर्शन

प्रियदर्शन (क्रेडिट:Getty Images)

मलयालम, हिंदी, तमिल और तेलुगू भाषाओं में फिल्में बना चुके प्रियदर्शन, अपनी 'स्लैपस्टिक' कॉमेडी के लिए जाने जाते हैं. ऐसा नहीं है कि उन्होंने सीरियस फिल्में नहीं बनाईं मगर उनकी कॉमेडी का फ्लेवर बहुत लम्बे समय तक दिमाग पर असर किए रखता है. हिंदी जनता को 'हेराफेरी' 'हंगामा' 'हलचल' 'गरम मसाला' 'भूल भुलैया' जैसी जोरदार कॉमेडी फिल्में देने वाले प्रियदर्शन का स्टाइल ही अलग है.

उनकी फिल्मों की कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, एक अफरातफरी सी मचने लगती है, कहानी के मेन प्लॉट से कई अलग-अलग सब-प्लॉट निकलने लगते हैं, जिनका इमोशन बहुत अपीलिंग होता है. जैसे 'हेरा फेरी' में बाबूराव का खानदानी गैराज, श्याम पर बहनों की शादी के लिए लिया कर्ज, राजू की मां का सपना कि उसका बेटा बड़ी नौकरी करे.

प्रियदर्शन की कहानियों में दसों दिशाओं में फैली ये अफरातफरी अंत में जब सिमटती है तो क्लाइमेक्स में कॉमेडी का धमाका होता है. इससे अलग बात करें तो तकनीकी तौर पर प्रियदर्शन बहुत मजबूत हैं और उनके सीन्स को ब्रेकडाउन कर के फिल्म मेकिंग के कई बड़े सबक लिए जा सकते हैं.

16. मणिरत्नम

मणि रत्नम (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

मणि रत्नम का सिनेमा बारीकियों से भरा होता है. एक ग्रैंड विजन लेकिन डिटेल्स से भरे सीन्स के साथ कहानी कहने में उनका जवाब नहीं है. उनके हीरो के विचार बागी होंगे. उनकी एक्ट्रेस का किरदार सिर्फ हीरो के साथ नजर आने का नहीं होगा, बल्कि वो कहानी में कुछ बड़ा योगदान देगी. मणि रत्नम की फिल्म में एक लव स्टोरी होगी जो एपिक लेवल की होगी. और कहानी के बीच में उस दौर का कोई बड़ा मुद्दा भी होगा. 

'नायकन' 'रोजा' 'बॉम्बे' 'दिल से' या फिर 'युवा' मणि रत्नम के सिनेमा की छाप बहुत यूनीक है. जल्द ही वो 'पोन्नियिन सेल्वन' लेकर आ रहे हैं जिसका ट्रेलर देख कर ही लोग बहुत एक्साइटेड हैं.

17. अदूर गोपालकृष्णन

अदूर गोपालकृष्णन (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

सिर्फ 12 फीचर फिल्में बनाने वाले अदूर बालाकृष्णन की लगभग हर फिल्म वेनिस, कान्स, या टोरंटो फिल्म फेस्टिवल में प्रीमियर हुई है. 1972 में उनकी फिल्म 'स्वयंवरम' से मलयालम सिनेमा में 'न्यू वेव' मूवमेंट शुरू हुआ. सत्यजित रे और मृणाल सेन जैसे डायरेक्टर्स की तरह अदूर दुनिया में सबसे ज्यादा पहचाने जाने वाले फिल्म मेकर्स में गिने जाते हैं. 16 बार नेशनल फिल्म अवॉर्ड जीतने वाले अदूर की फिल्मों में केरल के गावों का अद्भुत चित्र देखने को मिलता है.

उनकी कहानियों की थीम ऊपर से तो सादी लगती है मगर सोच के लेवल पर जटिलताओं से भरी है, जिन्हें वो अपने बेहतरी सिनेमेटिक भाषा में बताते चलते हैं. जहां 'स्वयंवरम' में एक ऐसे कपल की कहानी थी, जिनकी शादी उनकी मर्जी के खिलाफ कर दी जाती है. वहीं 'अनंतरम' में एक यंग आदमी की कहानी है जिसका बाइपोलर कैरेक्टर है. 'विधेयन' में मालिक और नौकर के रिश्ते की एक कहानी है.

18. राजामौली

एसएस राजामौली (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

एस एस राजामौली ने पिछले 10 साल में इंडियन सिनेमा की पहचान ही बदल दी है. एक मक्खी की कहानी दिखाकर दर्शकों को इमोशनल कर देने की बात पर वो आदमी कभी यकीन ही नहीं कर सकता जिसने राजामौली की फिल्म न देखी हो. लेकिन फिर वो एक 'मगधीरा' या 'बाहुबली' जैसी एपिक भी बना देते हैं. राजामौली का विजन  इतना ग्रैंड है कि उसके लिए बड़ी से बड़ी सिनेमा स्क्रीन भी छोटी लगती है. लेकिन उनका इमोशन बहुत बारीक. 

'बाहुबली 2' और 'RRR' से वर्ल्डवाइड बॉक्स ऑफिस पर 1000 करोड़ का मार्क छूने वाले राजामौली ने इंडियन सिनेमा को दिखाया कि सिनेमा की आर्ट वाली साइड को पूरा बचाते हुए भी कमर्शियल कामयाबी हासिल की जा सकती है.   

19. अनुराग कश्यप

अनुराग कश्यप (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

किरदार की साइकोलॉजी में घुसकर उसके अंदर का सबसे डार्क कोना खोजकर स्क्रीन पर रख देने वाले अनुराग ने, इंडिया में नॉएर सिनेमा को बदल डाला. उनका नाम बिना हिचक 21वीं सदी के सबसे प्रभावशाली फिल्म मेकर्स में गिना जा सकता है. अनुराग बॉक्स ऑफिस की टेंशन साइड रखते हैं. कम बजट में ऐसी फिल्में बनाते हैं जिनके सब्जेक्ट आपको हैरान कर देंगे, मगर गौर करने पर उनके किरदारों जैसी सोच आपको आपके आसपास भी मिल सकती है.

साथ में अनुराग अपने दौर की पॉलिटिक्स को सिनेमा में रजिस्टर करने से बिल्कुल नहीं चूकते. बल्कि कभी कभी तो उनकी फिल्मों में राजनीति एक सपोर्टिंग कैरेक्टर में दिखती है. 'ब्लैक फ्राइडे' 'देव डी', 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' 'चोक्ड' 'मुक्काबाज' जैसी उनकी फिल्में इंसानी सोच-बर्ताव के अलग-अलग शेड्स के साथ, तकनीक में भी बेहतरीन हैं. नए तरह के कैमरा एंगल, लाइट्स और एडिटिंग के एक्सपरिमेंट उनकी फिल्मों की पहचान हैं. 

20. बासु चैटर्जी

बासु चैटर्जी (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

अमोल पालेकर के साथ 'रजनीगंधा' (1974), 'चितचोर' (1976), 'खट्टा मीठा' (1978) और 'बातों बातों में' (1979) जैसी आइकॉनिक फिल्में बनाने वाले बासु चैटर्जी, 'मिडल सिनेमा' के उस्तादों में से एक थे. उन्होंने अपनी फिल्म मेकिंग के साथ जो एक्स्परिमेंट किए उसके सबूत के तौर पर 'एक रुका हुआ फैसला' (1989) और 'कमला की मौत' (1989) देखी जा सकती हैं. फिल्मों में मिडल क्लास की दुनिया को दिखाने वालों में चैटर्जी के नाम ऋषिकेश मुखर्जी के साथ ही लिया जाता है. उनके हीरोज की एक छाप उन किरदारों में देखी जा सकती है जैसे नए दौर में आयुष्मान खुराना खूब निभा चुके हैं. 

21. यश चोपड़ा

यश चोपड़ा (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

'किंग ऑफ रोमांस' के नाम से पहचाने जाने वाले यश चोपड़ा ने लव स्टोरीज को जितना खूबसूरत बनाया उतना ही कॉम्पलेक्स भी. उनके किरदारों का रियल होना तो थोड़ा मुश्किल था, लेकिन इन किरदारों का इमोशन बहुत सच्चा था. इतना सच्चा कि हर किसी को महसूस होता. 'कभी कभी' 'सिलसिला' 'चांदनी' 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' या फिर 'मोहब्बतें', सभी लव स्टोरीज में जो पंगे थे उनसे जनता ने रिलेट किया.

यश चोपड़ा ने प्यार को खूबसूरत बनाया. एक यंग ऑडियंस के लिए प्यार में होने का मतलब वैसा होना था, जैसे यश चोपड़ा के किरदार होते थे. लेकिन ऐसा नहीं है कि वो स्क्रीन पर सिर्फ रोमांस दिखाने के ही एक्सपर्ट थे. अमिताभ बच्चन के 'एंग्री यंगमैन' वाले दौर की तीन फिल्में- दीवार, त्रिशूल और काला पत्थर भी उन्होंने बनाई. गिनती करने पर चोपड़ा साहब की बाकी फिल्मों के मुकाबले रोमांटिक फिल्में, बाकी फिल्मों से कम ही निकलेंगी. लेकिन रोमांस को उन्होंने एक ऐसे ख्वाबीदा लेवल पर दिखाया जिसमें खुली आंखों से लोग खो जाते थे. 

22. संजय लीला भंसाली

संजय लीला भंसाली

'लार्जर दैन लाइफ' कैसा होना चाहिए, इसकी परिभाषा हैं संजय लीला भंसाली की फिल्में. एक एक फ्रेम में भरपूर डिटेल रखने वाले भंसाली की फ़िल्में स्क्रीन पर किसी पेंटिंग जैसी लगती हैं. इंडियन सिनेमा को सेलिब्रेट करने वाले सबसे बेहतरीन फिल्म मेकर्स में भंसाली का नाम लिया जाता है. उनके ग्रैंड सेट, शानदार कॉस्टयूम, बेहतरीन गाने और डांस तो एक फीचर हैं ही. लेकिन उनकी फिल्मों में महिला किरदार अपने आप में एक स्टडी हैं.

'हम दिल दे चुके सनम' और 'गुजारिश' की ऐश्वर्या से लेकर 'पद्मावत' की दीपिका पादुकोण और 'गंगूबाई काठियावाड़ी' की आलिया भट्ट तक, भंसाली ने एक्ट्रेसेज को जो रोल दिए वो दिमाग पर छप जाने वाले हैं. और ऐसा नहीं है कि इसके लिए उन्हें अपने हीरो को कभी पीछे रखना पड़ा हो. 'बाजीराव मस्तानी' से लेकर 'राम लीला' में रणवीर सिंह की एंट्री देखने लायक थी.  

23. राम गोपाल वर्मा

राम गोपाल वर्मा (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

इंडिया में नॉएर सिनेमा की बात राम गोपाल वर्मा के बिना हो ही नहीं सकती. एक बहुत नए किस्म के कैमरा एंगल, लाइटिंग और एडिटिंग के साथ आईं इन फिल्मों ने सिनेमा में बॉम्बे नॉएर स्टाइल को एक नए स्टाइल में स्क्रीन पर पेश किया. 'शिवा' 'रंगीला' 'सत्या' 'कम्पनी' 'रोड' और 'डी' से वर्मा ने जनता को क्राइम ड्रामा का फैन बना दिया. 2000s के बाद वर्मा के अलावा कई और फिल्म मेकर भी इस तरह की फिल्में बनाने लगे मगर उन्हें छू पाना मुश्किल था.

जब ऐसा लगा कि शायद वो अपना टच खो रहे हैं, तब उन्होंने सरकार रिलीज कर के एक बार फिर सबको हैरान कर दिया. इस फिल्म में वो फिर से अपने उसी गैंगस्टर ड्रामा पर लौटे जिसके वो एक्सपर्ट माने जाते हैं. 

24. राजकुमार हिरानी

राज कुमार हिरानी (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

मेलोड्रामा, रोमांस, गैंगस्टर और थ्रिलर फिल्मों की हर साल आती बाढ़ में 2003 में राजकुमार हिरानी 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' लेकर आए. इस फील गुड फिल्म ने जनता को भरपूर एंटरटेनमेंट और मजेदार कॉमेडी के साथ 'जादू की झप्पी' भी दी और जमकर कमाई भी की. लेकिन हिरानी यहीं नहीं रुके. उन्होंने 'लगे रहो मुन्नाभाई' '3 इडियट्स' और 'पीके' भी बनाईं, जो एंटरटेनमेंट के साथ-साथ मैसेज भी देती थीं और इन फिल्मों का जोरदार बिजनेस बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्डतोड़ रहा. हिरानी ने अभी तक सिनेमा में पक्के हो चुके एक किरदार विलेन को अपनी फिल्मों से गायब कर दिया.  

25. शेखर कपूर

शेखर कपूर (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

शेखर कपूर की पहली फिल्म 'मासूम' में एक बच्चे की कहानी ने जनता को खूब इमोशनल किया. लेकिन उनकी अगली फिल्म 'मिस्टर इंडिया' भारतीय सिनेमा का एक चमकता मोमेंट है. 1987 में जब ये फिल्म बनी तो किसी ने भी नहीं सोचा था कि ये आईडिया काम करेगा. तब VFX की एडवांस तकनीक भी नहीं थी और न भारत में फिल्म मेकिंग इतनी एडवांस थी कि एक गायब हो जाने वाले किरदार की कहानी कही जा सके.

ऐसे में शेखर ने अपने क्रू के साथ जो किया, वो फिल्म में अनिल कपूर के गायब हो जाने से बड़ा जादू था. भारत को एक शानदार सुपरहीरो फिल्म मिली. इन्हीं शेखर कपूर ने अपनी अगली फिल्म 1994 में बनाई 'बैंडिट क्वीन'. फूलन देवी की कहानी को स्क्रीन पर देखकर आज भी लोग सन्न रह जाते हैं. इस फिल्म का एक एक फ्रेम ऑथेंटिक कहानी कहने और सिनेमा के आर्ट को समझने के लिए देखा जा सकता है. 

26. प्रकाश मेहरा

प्रकाश मेहरा (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

1973 में प्रकाश मेहरा ने सलीम जावेद की लिखी स्क्रिप्ट के साथ अमिताभ बच्चन को लीड रोल में कास्ट किया और फिल्म बनाई 'जंजीर'. ये मोमेंट इंडियन सिनेमा का एक आइकॉनिक मोमेंट बन गया. यहां से हिन्दुस्तान को एक एंग्री यंगमैन मिला. अमिताभ के साथ प्रकाश मेहरा का साथ 7 और फिल्मों में रहा जिनमें से 6 ब्लॉकबस्टर थीं- हेरा फेरी, खून पसीना, मुकद्दर का सिकंदर, लावारिस, नमक हलाल और शराबी. अमिताभ और प्रकाश की जोड़ी ने 10 साल में लगभग ये फिल्में बनाईं. मसाला फिल्मों के बिना भारतीय सिनेमा की बात करना अधूरा है तो प्रकाश मेहरा के बिना मसाला फिल्में अधूरी हैं.  

27. दीपा मेहता

दीपा मेहता (क्रेडिट: इंडिया टुडे)

कनाडा में जन्मीं भारतीय मूल की फिल्म मेकर दीपा मेहता को सबसे ज्यादा उनकी एलिमेंट ट्राइलॉजी फिल्मों के लिए जाना जाता है. फायर (1996), 1947 अर्थ (1998) और वॉटर (2005) में दीपा ने ऐसी कहानियां दिखाईं जिनकी क्रिटिक्स ने बहुत तारीफ की.

8 साल की बच्ची का एक पारम्परिक समाज में विधवा हो जाना हो, भारत-पाकिस्तान बंटवारे में एक परिवार के उजड़ने की कहानी या फिर दो बहनों का लव अफेयर. दीपा की कहानियों में कल्चरल पहचान का मुद्दा बहुत बड़ा रहा. सेम-सेक्स रिलेशनशिप जैसा विवादित मुद्दा चुनने के लिए लोग उनसे नाराज भी हुए, लेकिन दीपा की फिल्मों में पहचान के मुद्दे के साथ पॉलिटिक्स के धागे उधेड़ने की कला देखने लायक है. 

28. टी एस नागाभरना

टी एस नागाभरना

कन्नड़ सिनेमा से आने वाले नागाभरना 10 बार नेशनल अवार्ड जीत चुके हैं. उनकी फिल्म 'मैसूर मल्लिगे' से इंस्पिरेशन लेकर हिंदी फिल्म '1942: अ लव स्टोरी' बनाई गई थी. शाहरुख खान की फिल्म 'परदेस', उनकी फिल्म 'चिगुरिदा कानासु' से इंस्पायर है. नागाभरना को कन्नड़ इंडस्ट्री में पैरेलल सिनेमा मूवमेंट शुरू करने वाले फिल्म मेकर्स में गिना जाता है. उनके बिनाका थिएटर ग्रुप ने कन्नड़ फिल्म इंडस्ट्री को कई जाने माने एक्टर्स दिए हैं. 'KGF' स्टार यश भी इन्हीं में से एक हैं. 

29. लीजो जोस पेल्लिसरी

लीजो जोस पेल्लिसरी

अपनी हर फिल्म के साथ एक नया एक्स्परिमेंट करने वाले पेल्लिसरी मलयालम सिनेमा से जुड़े हैं. उनके काम को कई बार इंटरनेशनल सराहना मिल चुकी है. 'डबल बैरल' 'अंगमाली डायरीज' को खूब सराहना मिली है. 'अंगमाली डायरीज' में तो पेल्लिसरी ने पूरी नई कास्ट के साथ काम किया था. 'नायकन' 'सिटी ऑफ गॉड' और 'जल्लीकट्टू' जैसी उनकी फिल्मों को फिल्म मेकिंग की तकनीक के लिए उदाहरण के तौर पर लिया जाता है. 

30. पा रंजीत

पा रंजीत

तमिल सिनेमा से जुड़े पा रंजीत लगातार अपनी फिल्मों में एंटी कास्ट स्टैंड लेने के लिए जाने जाते हैं. मेनस्ट्रीम मसाला फिल्मों में इस तरह के मैसेज के लिए पा रंजीत की तारीफ की जाती है. रजनीकांत के साथ 'काबाली' और 'काला' जैसी मेनस्ट्रीम फिल्मों में रंजीत ने जाति के मुद्दे को उठाया. कई यंग फिल्म मेकर्स रंजीत के इस स्टैंड को अपनी फिल्मों में फॉलो कर रहे हैं.

जाति के गणित के बीच एक बॉक्सर की कहानी दिखाने वाली उनकी फिल्म 'सारपट्टा परम्बरै' को भी पसंद किया गया था. रिपोर्ट्स कहती हैं कि तमिल सिनेमा में छाप छोड़ चुके रंजीत जल्द ही बिरसा मुंडा पर एक फिल्म के साथ बॉलीवुड डेब्यू भी करने वाले हैं.

 

 

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