
वो शायद किसी और दौर-वक्त-हालात की बात थी जब फिल्ममेकर्स धीमी आंच पर, फिल्म-मेकिंग के सारे साजोसामान के साथ आपके सामने पर्दे पर एक लबाबदार डिश तैयार करते थे- सिनेमा. कहानी को लच्छेदार, परतदार बनाने पर फोकस होता था. इस डिश में जब एक सीक्रेट इंग्रीडिएंट मिल जाता था तो क्या कहने… ज़ायका ही अद्भुत-अद्वितीय-अकल्पनीय हो जाता था. और ये सीक्रेट इंग्रीडिएंट होता था- राजनीति. और ‘पिच्चर’ की कहानी में ये पॉलिटिक्स डिकोड कर लेने वाले खुद को बड़े गर्व के साथ ‘सिनेमा का कीड़ा’ मान लेते थे.
फिर एक दिन धीमी आंच पर पकती हुई कहानी का स्वाद ले रहे एक चस्केबाज प्रेमी से पॉलिटिक्स करते हुए दीपिका पादुकोण ने कहा- ‘जरा शॉर्ट में बतलाओ न, सीधे पॉइंट पे आओ न’. बस… फिर वन लाइनर्स के दौर में कहानी कहने की कला, ‘सो आउटडेटेड’ हो गई. पॉलिटिकल फिल्मों की वो लबाबदार डिश यूं बदली कि वेस्ट दिल्ली के तमाम ढाबों की तरह, एक ही ग्रेवी को 'स्पेशल इंग्रीडिएंट' बताकर हर डिश का बेस बना दिया गया. अब बॉलीवुड उसमें आवश्यकता-स्वाद-डिमांड अनुसार, सब्जी-चाप-पनीर के टुकड़े मिलाकर परोस देता है.
हां, तो अगर पिक्चर में पॉलिटिक्स दिखाने के सौंदर्यशास्त्र की बात करें तो जहां एक कोने पर ‘आर्टिकल 370’ और ‘उरी’ ठहरती हैं, वहीं एक सौ अस्सी डिग्री पर दूसरे कोने पर बैठेगी ‘बस्तर: द नक्सल स्टोरी’.
प्रोपेगैंडा की चुहिया
डायरेक्टर सुदिप्तो सेन की इस फिल्म के ट्रेलर में, सोशल मीडिया पर रोजाना पकने वाली राजनीति की मात्रा देखते हुए ये बहस छिड़ गई कि 'बस्तर: द नक्सल स्टोरी एक प्रोपेगैंडा फिल्म है. सवाल ये है कि क्या आपको इस बारे में चिंता करने की जरूरत है?
पहली बात, अगर मेकर्स ने इसे किसी छिपे हित या प्रोपेगैंडा के लिए बनाया है तो उन्हें ये समझना पड़ेगा कि सी ग्रेड स्टाइल की अजीबोगरीब, बचकाना और बोरिंग फिल्म से दुनिया में कभी भी, किसी को भी प्रभावित नहीं किया जा सकता. और दूसरी बात, अगर इसमें ऐसा कोई हित नहीं है तो इसका सीधा मतलब है कि मेकर्स को सड़क पर नोटों से भरे बोरे मिले थे, जो उन्होंने एक पूरी टीम को फिल्म मेकिंग सिखा कर उनका भविष्य उज्जवल बनाने पर खर्च किए हैं. हालांकि ऐसी आला दर्जे की उबाऊ फिल्म बनाने वालों का भविष्य उज्जवल तो शायद न हो, मगर मेकर्स अपनी इस जेनुइन कोशिश के लिए बधाई के पात्र हैं! क्यों? तो सुनिए...
हाल ही में रिलीज हुई 'आर्टिकल 370' को देखिए, फिल्म का मकसद था एक चर्चित राजनीतिक घटना में पर्दे के पीछे घटी चीजों को दिखाना. जबकि 'द कश्मीर फाइल्स' का दावा कश्मीरी पंडितों के साथ हुई हिंसा को दिखाना था. वो बात अलग है कि उसमें जो दिखाया गया, उसके बहाने जो नहीं दिख रहा उसे तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया था. पॉइंट ये है कि दोनों फिल्मों ने कहानी में जो परोसने का दावा किया, वो पर्दे पर दिखाया.
'बस्तर' इस मामले में बेहद कन्फ्यूज फिल्म है. फिल्म के अंत में आपको बताया गया है कि 2014 के बाद नक्सली घटनाओं में 70% तक की कमी आ गई. नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्र अब सिमटकर बहुत कम रह गया है. और नक्सलियों के कारण जिन इलाकों तक सड़क बनाना मुश्किल था, अब वहां भी सड़कें पहुंच चुकी हैं और टूरिज्म बढ़ गया है. मतलब निचोड़ ये है कि पिछले 10 साल में नक्सलवाद की जड़ें खोद दी गई हैं. यानी कायदे से फिल्म में आपको ऐसा होता दिखने की उम्मीद होनी चाहिए, लेकिन ये बिल्कुल नहीं होता. कैसे? ये भी सुनिए...
कहां गई कहानी?
फिल्म शुरू होती है छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले से. रियलिटी से फिल्म की कहानी का ये एकमात्र कनेक्शन है कि राज्य और जिले का नाम रियल है. नक्सली इस गांव में तिरंगा फहरा रहे एक शख्स को जान से मार देते हैं और उसके बेटे को अपने साथ ले जाते हैं. इस हत्या की वीभत्सता को दिखाने में डायरेक्टर ने जितना रस लिया है, ऐसा लगा कि वो शायद संदीप रेड्डी वांगा की 'एनिमल' को पीछे छोड़ना चाह रहे हैं.
इसके बाद कहानी शिफ्ट हो जाती है बस्तर में नक्सलियों को टक्कर दे रहीं कॉप नीरजा माधवन (अदा शर्मा) पर. नीरजा नक्सलियों को खत्म करने को लेकर काफी एग्रेसिव हैं. उन्होंने नक्सलियों से लड़ने के लिए बस्तर के आदिवासियों की एक सेना बनाई है जिसका नाम सलवा जुडूम है. तो गांव में जिस व्यक्ति के हत्या हुई थी, उसकी पत्नी रत्ना (इंदिरा तिवारी) सलवा जुडूम जॉइन कर लेती है.
मगर फिर कहानी एक कोर्ट केस पर शिफ्ट हो जाती है, जिसमें एक प्रोफेसर और कुछ सोशल वर्कर्स पर नक्सलियों की मदद करने का आरोप है. फिर ये केस फैलता ही जाता है और सलवा जुडूम को अवैध बताने पर फोकस करने लगता है. इधर बस्तर में नक्सली हमले में सी.आर.पी.एफ के 76 जवान मारे जाते हैं. नक्सलियों का एक लीडर है जिसे फिल्म में मार्क्सवादी क्रन्तिकारी चे ग्वेरा का लुक दिया गया है.
फिल्म में सलवा जुडूम के फाउंडर का किरदार है राजेंद्र कर्मा (किशोर कदम), जो रियल लाइफ कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा की याद दिलाता है. किरदार पर हुआ भयानक नक्सली हमला भी उसी तरह है जैसे महेंद्र कर्मा पर रियल लाइफ अटैक हुआ था. डायरेक्टर ने इसे भी भरपूर खौफनाक तरीके से दिखाया है.
इन सबके बीच नीरजा का ऑपरेशन जारी रहता है, मगर क्लाइमेक्स से ठीक पहले कहानी में एक थ्रिल डेवलप करने के लिए उन्हें एकदम से साइड कर दिया गया है. और नक्सली मास्टरमाइंड से बदले का पूरा सीन रत्ना पर फोकस हो जाता है. फिल्म के अंत में एक नीरजा को एक बॉलीवुड हीरो नुमा मोनोलॉग डिलीवर करने का मौका दिया गया है. इस मोनोलॉग और अपने पहले के सीन्स में भी नीरजा पॉलिटिकल सिस्टम से सपोर्ट न मिलने पर भड़कती नजर आती हैं और बार-बार नेताओं और लेफ्ट विंग पॉलिटिक्स को कोसती नजर आती हैं.
'बस्तर' आपको नक्सली आंदोलन पर कुछ नहीं बताती, न ही नक्सलियों को लेकर चल रहे पॉलिटिकल दांव पेंच दिखाती है. यहां कहानी में बस नीरजा माधवन हीरो हैं और वो अपने दम पर नक्सलियों का सफाया कर रही हैं, जिनकी गिनती फिल्म के सारे फ्रेम्स मिलाकर शायद ही सौ पार दिखे. यानी सारा फोकस बस एक गांव के पीड़ितों तक लिमिटेड है. 15 मिनट बाद ही फिल्म ये भूल जाती है कि कहानी में दिखाना क्या है? क्योंकि पॉलिटिकल एक्शन तो दिखाया ही नहीं.
नक्सलवाद से लड़ रहे जवानों को फिल्म ने इस तरह दिखाया कि जिन लोगों ने असल में इसके खिलाफ जमीन पर काम किया है, वो देख लें तो आहत हो जाएं. अगर फिल्म को अंत में यही कहना था कि 2014 के बाद चीजें बहुत बदल गईं, तो कम से कम ऐसा होते हुए तो दिखाया जा सकता था. लेकिन इस फिल्म से अगर आप लॉजिक की उम्मीद में हैं, तो पहले आपको खुद पर खेद जताना चाहिए!
तकनीकी कुपोषण
'बस्तर' में कई जगह डबिंग की क्वालिटी हिली हुई है. कैमरा वर्क जैसी बेसिक चीज एवरेज से भी कमजोर है. हाल फिलहाल की किसी भी फिल्म में आपको शायद ही इतने फेक सेट दिखें जितने 'बस्तर' में दिखते हैं. जंगल के विजुअल्स भी कितने बोरिंग बनाए जा सकते हैं, इसका कोर्स मैटेरियल इस फिल्म की टीम डिजाईन कर सकती है.
फिल्म की लीड एक्ट्रेस अदा शर्मा, अपनी भौहें तानकर बिना पलक झपकाए जल्द से जल्द डायलॉग बोल देने के किसी कॉम्पिटीशन में विनर बन सकती हैं. यशपाल शर्मा, शिल्पा शुक्ला और राइमा सेन जैसे दमदार साबित हो चुके एक्टर्स से इतना बुरा काम करवा लेना शायद 'बस्तर' के मेकर्स की सबसे बड़ी अचीवमेंट है. फिल्म में नक्सली दिखाने के लिए एक्टर्स जिस तरह के एक्सप्रेशन दे रहे हैं, जैसी उनकी बॉडी लैंग्वेज है और जैसा मेकअप है... अगर नक्सली सच में ऐसे होते, तो शायद देश को टेंशन लेने की जरूरत ही नहीं होती. क्योंकि वो डर से ज्यादा कॉमेडी क्रिएट करते!
कुल मिलाकर 'बस्तर' नक्सलवाद जैसे सेंसिटिव और गंभीर टॉपिक पर बनी एक बिना मोटिवेशन, बिना कहानी, बिना सर-पैर की अजीब सी फिल्म है. इसे बचकाना कहना भी उन तमाम फिल्ममेकर्स का अपमान होगा जिन्होंने हैंडीकैम और मोबाइल फोन्स पर अपनी पहली फिल्में बनाकर दुनिया को अपना टैलेंट दिखाया.