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दकियानूसी मानसिकता पर सीधा प्रहार हैं महिलाओं के हित में आवाज उठाती ये बॉलीवुड फिल्में

पिछले कुछ समय से बॉलीवुड एक्ट्रेस की जो नई बेल्ट आई है उसने फिल्मों के जरिए महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. तापसी पन्नू, स्वरा भास्कर, कंगना रनौत और भूमि पेडनेकर जैसी एक्ट्रेस आज लड़कियों के लिए एक रोल मॉडल के तौर पर सामने आई हैं.

तापसी पन्नू, स्वरा भास्कर तापसी पन्नू, स्वरा भास्कर
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 08 मार्च 2021,
  • अपडेटेड 11:13 AM IST

देशभर में महिलाओं की समानता और उनके अधिकारों के लिए खूब सारे जागरूकता अभियान चलाए जाते हैं और भी ज्यादा ऐसे अभियानों को चलाए जाने की जरूरत है ताकि लोगों के बीच गलत तरह से परिभाषित हुई महिलाओं की छवि को बदला जा सके. इस क्रम में फिल्में भी अहम रोल प्ले करती हैं. महिलाओं के हित में वक्त-वक्त पर बॉलीवुड में शानदार फिल्में बनती आई हैं. मगर पिछले कुछ समय से बॉलीवुड एक्ट्रेस की जो नई बेल्ट आई है उसने फिल्मों के जरिए महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

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तापसी पन्नू, स्वरा भास्कर, कंगना रनौत और भूमि पेडनेकर जैसी एक्ट्रेस आज लड़कियों के लिए एक रोल मॉडल के तौर पर सामने आई हैं. 

इंटरनेशनल वुमन डे के मौके पर हम बता रहे हैं बॉलीवुड में बनी उन फिल्मों के बारे में जिन्होंने महिलाओं के प्रति समाज में फैली दकियानूसी मानसिकता को कम करने में अहम रोल प्ले किया है. 

अनारकली ऑफ आरा- हमारे देश में जब महिलाओं को आम घरों में इतनी सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है तो जरा सोचिए कि एक नाचनेवाली के जीवन में क्या चुनैतियां होंगी जिसे समाज हमेशा से एक नीची दृष्टि से देखता आया है. उसे हर रोज अपना प्रोफेशन लोगों को जस्टिफाई करना पड़ता है ताकि समाज में उसकी छवि सुधर सके. और ये समाज पहले तो नाचने वाली महिलाओं के मनोरंजन का आनंद उठाता है उसके बाद उसके साथ शोषण करता है. स्वारा भास्कर की इस फिल्म में भी एक नाचने वाली महिला के जीवन के संघर्ष के बारे में बताया गया है.

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पिंक- कहने को तो हमारा समाज काफी फॉर्वर्ड हो गया है मगर इसके बाद भी लड़कियों को और लड़कों को अलग-अलग तरह से तमीज में रहना सिखाया जाता है. लड़कियों पर इतनी पाबंदी लगाने का ही नतीजा है कि आज समाज में उनका लड़कों के साथ पार्टी करना, साथ घूमना और एंजॉय करना भी लोगों को अकरता है. साथ ही लड़कों के मन में भी गलत धारणा घर कर गई है कि अगर लड़की आपके साथ थोड़ा सा फ्रैंक है तो आप जो चाहें उसके साथ कर सकते हैं. इसी नासमझी की वजह से मिसअंडरस्टेंडिंग पैदा होती है जो पिंक फिल्म में दिखाई गई. असहमति के बाद की जबरदस्ती एक बड़ी भूल ना बन जाए इसलिए अमिताभ बच्चन फिल्म में कहते हैं नो का मतलब नो होता है.

लिपिस्टक अंडर माई बुर्का- चार अलग अलग किरदारों के माध्यम से इस फिल्म के जरिए ये बताने की कोशिश की गई है कि खुली हवा में सांस लेने का पूरा हक महिलाओं को है. वे भी अपनी मर्जी के कपड़े पहन सकती हैं अपनी मर्जी से अपने लिए जीवनसाथी चुन सकती हैं और उम्र चाहें जो भी हो अपनी चाह को संवार सकती हैं अपने आकर्षण के उपजे बीज को प्यार से सींच सकती हैं. मगर एकतरफा समाज की दृष्टि को थोड़ा और विस्तार की जरूरत है ताकि बात बराबरी की हो सके. 

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लिपिस्टिक अंडर माई बुर्का

थप्पड़- तापसी पन्नू अधिकतर महिला प्रधान फिल्में करने के लिए जानी जाती हैं. उनकी फिल्म थप्पड़ उस समाज के मुंह पर एक जोरदार तमाचा है जिसने लंबे समय से घरेलू हिंसा पर चुप्पी साधी है. घरेलू हिंसा बेहद खतरनाक है और थप्पड़ की कहानी किसी भी घर की कहानी हो सकती है. फिल्म से तापसी के किरदार ने ये बताने की कोशिश की है कि एक महिला का अपना आत्मसम्मान होता है. अगर वो खुद को ही तवज्जो देना शुरू नहीं करेगी तो ये समाज उसे शोषित करने के लिए ही है. 

मदर इंडिया- मदर इंडिया फिल्म कई मायने में देश की सबसे बड़ी फिल्म मानी जाती है. ये फिल्म उस दौर की है जब फिल्मों में महिलाओं को समाज ओछी दृष्टि से देखता था. उस दौर में नरगिस की मदर इंडिया महिला सशक्तिकरण का एक दमदार उदाहरण प्रस्तुत किया था. फिल्म में समस्याओं से परेशान होकर महिला का पति घर छोड़ कर चला जाता है. बाढ़ में महिला लगभग अपना सबकुछ गवां देती है. बावजूद इसके वो अपने बच्चों का पालन-पोषण करती है और अपना पेट भरती है. फिल्म 60 के दशक से भी पहले की है. यानी कि इस फिल्म को बने 6 दशक से भी ज्यादा का समय बीत चुका है और देश में ऐसा संघर्ष करने वाली महिलाओं की तादात बहुतायत मात्रा में है. यानी कोई बड़ा सुधार अभी तक देखने को नहीं मिला है. 

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मिर्च मसाला- अन्याय के खिलाफ जब-जब महिलाओं ने आवाज उठाई है अत्याचार और दुराचार को नष्ट कर के ही दम लिया है. मिर्च मिसाला फिल्म के जरिए स्मिता पाटिल के किरदार के माध्यम से ऐसा ही कुछ दिखाने की कोशिश की गई थी. अपने मालिक की हरकतों से परेशान होकर और सिस्टम में फैले भ्रष्टाचार से तंग आकर आखिरकार महिलाओं को अपनी सुरक्षा का जिम्मा खुद ही उठाना पड़ जाता है और मालिक को घुटने टेकने पड़ते हैं. 

स्मिता पाटिल

क्वीन- अपने अभिनय से सभी को इंप्रेस करने वाली कंगना रनौत के करियर की टर्निंग प्वाइंट थी फिल्म क्वीन. फिल्म के जरिए ये दिखाया गया था कि एक बाप के लिए कितनी मुश्किल होती है एक बेटी की शादी और किसी शख्स के लिए कितना आसान होता है रिजेक्ट कर देना. देश में जिस तरह से शादी का कल्चर रहा है उस हिसाब से लड़की की शादी का टूटना समाज में एक बड़ी बदनामी माना जाता है. फिल्म में कंगना के किरदार को भी इस बात का बहुत बुरा लगता है. वो अपने घर से, समाज से और खुद से भागना चाहती है. भागते-भागते वो एक अलग ही दुनिया में पहुंचती है जहां उसके कई सारे भ्रम दूर होते हैं. वो अपना महत्व समझती है और जीना सीखती है.

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