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100 साल पहले गाया जा चुका है 'हीरामंडी' का ये गीत, इसे गाने वाली रसूलन बाई की कहानी है दिलचस्प

'हीरामंडी' के एल्बम में सारे ही गाने अपनी-अपनी जगह बेहद खूबसूरत बन पड़े हैं. मगर एक बहुत खास गाना है जो हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक की विरासत है और नए अंदाज में इस शो में आया है. इसका सबसे पुराना रिकॉर्ड जिस सिंगर की आवाज में है, उनकी अपनी कहानी 'हीरामंडी' की थीम के बहुत करीब है.

रसूलन बाई, 'हीरामंडी' में ऋचा चड्ढा रसूलन बाई, 'हीरामंडी' में ऋचा चड्ढा
सुबोध मिश्रा
  • नई दिल्ली ,
  • 02 मई 2024,
  • अपडेटेड 7:45 PM IST

डायरेक्टर संजय लीला भंसाली की डेब्यू वेब सीरीज 'हीरामंडी' नेटफ्लिक्स पर आ चुकी है. 1940 के दशक में सेट इस पीरियड ड्रामा के फर्स्ट लुक से ही भंसाली की सिग्नेचर डिटेलिंग, ग्रैंड सेट्स, एक्ट्रेसेज के खूबसूरत आउटफिट और उनपर सज रहे आंखें चौंधिया देने वाले गहने दर्शकों को अपनी तरफ खींच रहे थे. लेकिन भंसाली जो जादूई संसार क्रिएट करते हैं, वो केवल विजुअल चकाचौंध और खूबसूरती से ही नहीं बनता. उसमें साउंड का भी बहुत बड़ा हाथ रहता है, खासकर गानों का. 

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जहां फिल्ममेकर भंसाली के बारे में लोग खूब चर्चा करते हैं, वहीं म्यूजिक डायरेक्टर भंसाली भी कम दिलचस्प नहीं हैं. भंसाली ने 2010 में आई अपनी फिल्म 'गुजारिश' से बतौर म्यूजिक डायरेक्टर डेब्यू किया था, मगर इससे पहले की उनकी फिल्मों के गाने और म्यूजिक में भी आपको भंसाली का म्यूजिक सेन्स दिख जाएगा. 'गुजारिश' के बाद से ही भंसाली ने अपनी डायरेक्ट की हुई हर फिल्म का म्यूजिक खुद कम्पोज किया है. ये कोई बताने की बात ही नहीं है कि 'राम लीला', 'बाजीराव मस्तानी', 'पद्मावत' और 'गंगूबाई काठियावाड़ी' के गाने कितने पॉपुलर और यादगार हैं. 

'हीरामंडी' में भी म्यूजिक कम्पोजर भंसाली का कमाल दिख रहा है. आपने अभी तक शो नहीं भी देखा हो तो अलग-अलग ऑडियो प्लेटफॉर्म्स पर 'हीरामंडी' का एल्बम आपको मिल जाएगा. वैसे तो इसमें सारे ही गाने अपनी-अपनी जगह बेहद खूबसूरत बन पड़े हैं. मगर 'हीरामंडी' में एक बहुत खास गाना है जो हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक की विरासत है. और इसका सबसे पुराना रिकॉर्ड जिस सिंगर की आवाज में है, उनकी अपनी कहानी 'हीरामंडी' की थीम के बहुत करीब है. 

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'हीरामंडी' का 100 साल पुराना गाना 
भंसाली की वेब सीरीज में एक गाना है- 'फूल गेंदवा न मारो'. बरनाली ठाकुर ने भंसाली के म्यूजिक के साथ इस गाने को बड़ी खूबसूरती के साथ गाया है. हाल ही में सोशल मीडिया पर ये चर्चा चली कि ये गाना 1964 में आई अशोक कुमार और राज कुमार की फिल्म 'दूज का चांद' के एक गाने का रीमेक है, जिसे आर डी बर्मन ने कम्पोज किया था. इस गाने का टाइटल भी 'फूल गेंदवा न मारो' ही था. मगर ऐसा नहीं है कि भंसाली ने इसे रीमेक किया है. 

इसी टाइटल का एक गाना आपको 1956 में आई देव आनंद की फिल्म 'फंटूश' में भी मिल जाएगा. लेकिन इसका ये भी मतलब नहीं है कि आर डी बर्मन ने 'फंटूश' वाले गाने को रीमेक किया था. दरअसल, 'फूल गेंदवा न मारो' हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक की एक पारंपरिक कम्पोजीशन है. ये राग भैरवी में गाई गई एक आइकॉनिक ठुमरी है. और इस ठुमरी की जो सबसे पुरानी अवेलेबल रिकॉर्डिंग है, वो साल 1935 की है, जिसे गाया है रसूलन बाई ने. 'हीरामंडी' में ये गाना ऋचा चड्ढा पर फिल्माया गया है.

रसूलन बाई (क्रेडिट: इंडिया टुडे आर्काइव)

रसूलन बाई ने इस रिकॉर्डिंग से पहले भी कई बार ये ठुमरी गाई है. यानी ये कम्पोजीशन बड़े आराम से लगभग 100 साल पुरानी है. रसूलन बाई की ये ठुमरी, हिंदुस्तानी क्लासिकल संगीत में दिलचस्पी रखने वालों के लिए, ठुमरी गायकी का ऐसा मुकाम है जिसे कोई दूसरा सिंगर कभी छू ही नहीं सकता. रसूलन बाई की आवाज, उनकी गायकी और उनकी अदायगी ने इस गीत को अप्रतिम बना दिया था. लेकिन क्या आपको इन रसूलन बाई की कहानी पता है? उनकी जिंदगी, भंसाली के शो 'हीरामंडी' की थीम से बहुत गहराई से जुड़ती है और उन्हें जानने के बाद वेब सीरीज में ये गीत सुनना आपके लिए और भी गहरा अनुभव बन जाएगा. 

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रसूलन- वो बाई जो 'देवी' न बन सकीं 
बनारस घराने से आने वालीं रसूलन बाई ने पांच दशक तक, हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक में अपना नाम बनाए रखा. रसूलन वैसे की वैसे तो कई तरह की गायकी पर मजबूत पकड़ थी मगर 'पूरब अंग टप्पा की ठुमरी' की वो पक्की उस्ताद थीं. उन्हें अपनी मां से संगीत विरासत में मिला था और वो ठुमरी, दादरा, पूरबी गीत, होरी कजरी और चैती जैसे पारम्परिक गीतों की मास्टर थीं.

5 साल की उम्र में रसूलन की पकड़ क्लासिकल रागों पर बहुत अच्छी होने लगी थी और इसे समझते हुए उन्हें उस्ताद शम्मू खान से संगीत की शिक्षा दिलाई गई. मगर ये जानना कई लोगों को चौंका सकता है कि संगीत नाटक अवॉर्ड से हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक में सम्मानित रसूलन, मुजरे की विरासत से आती थीं. यहां ये समझना जरूरी हो जाता है कि पॉपुलर कल्चर में जो 'कोठा' सेक्स वर्क से जोड़कर देखा जाने लगा, उसका हिंदुस्तानी क्लासिकल संगीत को सहेजने में एक बहुत बड़ा रोल रहा है. 

तहलका की एक रिपोर्ट में इतिहासकार कैथरीन बटलर ब्राउन ने बताया था कि 'तवायफ' शब्द का इस्तेमाल पहली बार दरगाह कुली खान की 'मुरक्का-ए-देहली' में किया गया था. इसे गायिकाओं और नर्तकियों की कम्युनिटी के लिए इस्तेमाल किया गया था. नवाबों और राजाओं के दौर में जो तवायफें, कला और शिष्टाचार का स्कूल रहीं, उन्हें ब्रिटिश क्राउन लॉ लागू होने के बाद अपराधियों की तरह देखा जाने लगा. 
ब्राउन ने बताया, 'विक्टोरियन सोच से प्रभावित और कोलोनियल कानूनों के बल पर' मिडल क्लास ने तवायफों को 'अनैतिक' और 'गिरा हुआ' मानना शुरू कर दिया. मिडल क्लास ने हिंदुस्तानी संगीत को तवायफों से अपने कनेक्शन को हटाते हुए इसका 'शुद्धिकरण' शुरू कर दिया. नतीजा ये हुआ कि मुजरे से जुड़े रहे संगीतकारों और गायक-गायिकाओं ने मेनस्ट्रीम में आना शुरू कर दिया. देश की आजादी के आगे-पीछे के सालों में इसका असर अपने चरम पर था. 

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एक बहुत बड़ा उदाहरण है अख्तरी बाई फैजाबादी का बेगम अख्तर बन जाना. नई पहचान मिलने के बाद उन्होंने अपने पास्ट की तरफ झांकना भी बंद कर दिया. ऑल इंडिया रेडियो की पोर्ट्रेट गैलरी में ऐसी गायिकाओं की तस्वीरें देखते हुए रसूलन बाई ने एक बार कहा था- 'बाकी सब 'देवी' बन गई हैं, मैं ही अकेली बाई बची हूं.' 

रसूलन ने खुद 1948 में कोठा छोड़ दिया था और बनारस की एक गली में रहने लगी थीं. उन्होंने बनारसी साड़ी के एक डीलर से शादी की थी. वो अक्सर लखनऊ और इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के ऑल इंडिया रेडियो स्टेशन्स पर गाती थीं. उनके गानों को यहीं पर विनायल रिकॉर्ड्स की शक्ल भी मिली और ग्रामोफोन पर उनकी आवाज घर-घर गूंजने लगी. रसूलन कुछ साल सूरत में भी रहीं, मगर 1969 में गुजरात के कम्युनल दंगों में उनका घर भी जला दिया गया.

इसके बाद वो वापस इलाहाबाद लौट आईं और जिस रेडियो स्टेशन सड़ कभी वो गाया करती थीं, उसी के बाहर उन्होंने चाय की दुकान खोली. उम्र के ढलते पड़ाव पर जब उनकी आवाज वैसे दमदार नहीं रही, तो उनकी जिंदगी भी गरीबी में धंसती चली गई. 15 दिसंबर 1974 को, 72 साल की उम्र में रसूलन ने अपनी आखिरी सांस ली थी. 

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रसूलन ने अपनी मशहूर ठुमरी 'फूल गेंदवा ना मारो' का एक और वर्जन भी कभी गाया था, जिसमें 'लागत करेजवा पे चोट' की जगह 'लागत जोबनवा पे चोट' था. जानी-मानी डाक्यूमेंट्री फिल्ममेकर सबा दीवान ने इसी खोयी हुई रिकॉर्डिंग को खोजते हुए, रसूलन और बनारस की तवायफों पर, 2009 में एक डाक्यूमेंट्री बनाई थी 'द अदर सॉंग (The Other Song)'.

संजय लीला भंसाली ने 'हीरामंडी' में ऋचा चड्ढा के किरदार के एक ट्रैजिक सीक्वेंस में 'फूल गेंदवा न मारो' को यूज किया है. उनकी ये सीरीज आजादी से पहले लाहौर की तवायफों की जिंदगी पर बेस्ड है. और ऐसे में रसूलन बाई की कम्पोजीशन से इंस्पायर एक गीत का 'हीरामंडी' में आना, अपने आप में एक सर्कल पूरा करता है.

वैसे, 'हीरामंडी' जब खत्म होने को आता है तो क्लाइमेक्स में एक गाना सुनाई देता है, जिसके शुरुआती बोल हैं 'हमें देखनी है आजादी'. ये गाना काफी हद तक आइकॉनिक शायर फैज के लिखे 'हम देखेंगे' से इंस्पायर लगता है. 'आजादी' की धुन भी 'हम देखेंगे' से बहुत मिलती जुलती लगती है. भंसाली ने जो सीक्वेंस तैयार किया है, उसकी थीम देशभक्ति पर है और ऐसे में कोई हैरानी की बात नहीं होगी अगर उन्होंने 'हम देखेंगे' से इंस्पायर होकर अपने शो के लिए ये गाना तैयार किया हो. 

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