
1959 में आई वी. शांताराम की फिल्म 'नवरंग' का असर ऐसा है कि होली का त्यौहार इस फिल्म के बिना पूरा ही नहीं होता. हर साल होली पर नए गाने आते हैं, फिल्में इस त्यौहार को सेलिब्रेट करती हैं, मगर 'नवरंग' के गाने 'जा रे हट नटखट' में जिस तरह होली का सेलिब्रेशन है उसे शायद ही कभी कोई फिल्म टक्कर दे सके. 'जा रे हट नटखट' में एक्ट्रेस संध्या का डांस और एक्ट हमेशा हिंदी सिनेमा में एक लैंडमार्क की तरह देखा जाता है.
इस गाने की सिचुएशन क्रिएट करने के लिए डायरेक्टर वी शांताराम, धुन बनाने के लिए म्यूजिक कंपोजर सी. रामचंद्रा और लिरिक्स के लिए भरत व्यास की तारीफें जितनी की जाएं उतनी कम पड़ती हैं. मगर क्या आपको 'नवरंग' के उस हीरो के बारे में पता है, जो हिंदी सिनेमा के लेजेंड एक्टर दिलीप कुमार की पहली फिल्म का लीड एक्टर था?
'नवरंग' में किस सिचुएशन में था 'जा रे हट नटखट' गाना?
शांताराम की फिल्म 'नवरंग' दिवाकर नाम के एक ऐसे कवि की कहानी है जो अपनी अपनी रियल पत्नी में जीवन के रस-रंग और प्रेम की कमी से ऊब रहा है. वो अपनी कल्पनाओं में एक प्रेमिका गढ़ लेता है, जिसका नाम मोहिनी है. मगर इस मोहिनी का चेहरा उसने अपनी पत्नी जैसा ही इमेजिन किया है. मोहिनी को याद करते हुए वो कविताएं लिखता है लेकिन उसकी पत्नी और परिवार को लगता है कि ये मोहिनी कोई असल महिला है जिसके प्यार में दिवाकर डूबा जा रहा है. उसके इस स्वप्नलोक की वजह से घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ी जा रही है.
कहानी ब्रिटिश राज के समय की है और दिवाकर एक राजा के राज्य में रहता है. अपनी कविताई के कारण ही दिवाकर की दोस्ती एक दरबारी गायक लीलू रंगबाज से हो जाती है. राजा ने तय किया है कि वो अपने दरबार में होली सेलिब्रेट करेगा. इसके लिए उसने लीलू को एक खत में लिखवा भेजा है- 'लीलू रंगबाज अपनी मंडली मय साजो-सामान लेकर दरबार में हाजिर हो और इस अवसर की शोभा बढ़े, ऐसा कोई रंगीला गीत सुनावे.'
लीलू ने दिवाकर को प्रपोजल दिया है कि वो होली का गीत लिख दे और राजा के यहां से मिलने वाले ईनाम में से अपना हिस्सा ले ले. लीलू के इस ऑफर से दिवाकर चिढ़ जाता है और कहता है कि वो अपनी कविता तब बेचना शुरू करेगा 'जब मांएं अपने बच्चे बेचने शुरू कर देंगी'. घर की बिगड़ती स्थिति की याद दिवाकर को दिलाते हुए लीलू रंगबाज खड़े-खड़े एक गीत सुनाता है:
कविराजा कविता के मत अब कान मरोड़ो
धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो
शेर शायरी कविराजा न काम आयेगी
कविता की पोथी को दीमक खा जायेगी
इस गीत के बीच में एक लाइन है जो कवियों या आर्टिस्ट्स को अपनी क्रिएटिविटी के साथ-साथ फाइनेंशियल मजबूती पर काम करने का मैसेज देती हैं:
अरे पैसे पर रच काव्य भूख पर गीत बनाओ
गेहूं पर हो गजल, धान के शेर सुनाओ!
'नवरंग' के इस गीत को अक्सर लोग बॉलीवुड का पहला रैप भी कह देते हैं. हालांकि, ऐसा है या नहीं इसपर डिबेट की जा सकती है. मगर दिवाकर उर्फ कविराज नवरंग, लीलू रंगबाज की इस मोटिवेशन पर गाने लिखने के लिए राजी हो जाते हैं. लेकिन घर में उनके गीत लिखने को लेकर क्लेश छिड़ा है इसलिए वो गीत नहीं लिख पा रहे और घर छोड़कर निकल जाते हैं.
रास्ते में लीलू फिर मिलता है, उसे टेंशन है कि गीत नहीं मिला तो राजा गुस्से में जान ले सकता है, तड़ीपार कर सकता है. दिवाकर रास्ते में लगी गणेश भगवान की एक मूर्ति के नीचे बैठ गया है, लीलू और उसकी मंडली तान दे रही है. दिवाकर दिमाग पर जोर डाल रहा है और पानी भरने जाती ग्वालन पर रंग डालते भगवान श्री कृष्ण की अठखेली को याद करके जो गीत लिखता है, वो है 'जा रे हट नटखट.' यहां देखिए गाना:
यानी गाने के पीछे असली मोटिवेशन है लीलू रंगबाज. 'नवरंग' में ये किरदार निभाया था, उस दौर के पॉपुलर कॉमेडी एक्टर आगा ने. लीलू रंगबाज के रोल में आगा ने कोई ऐसी लाइन नहीं बोली थी जो कहानी के मूड से अलग जाकर कॉमेडी करने की कोशिश लगे. लेकिन उनकी फिजिकल कॉमेडी, बोलने का अंदाज, एक्सप्रेशन और जेस्चर इतने मजेदार थे जो 'नवरंग' जैसी सीरियस कहानी वाली फिल्म में भी कॉमेडी का रंग भर रहे थे.
तीन दिन स्कूल में पढ़ने वाले आगा
भारत के पुणे में, फातिमा नगर इलाके में ईरान से आया एक परिवार सेटल हुआ था, जिसमें 21 मार्च 1914 को आगाजान बेग का जन्म हुआ. आगा को स्कूल में भर्ती करवाया गया तो उन्होंने केवल तीन दिन पढ़ाई की. बाद के एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि वो इतने ही दिन पढ़ाई 'बर्दाश्त' कर सके. आगा दिन भर दोस्तों के साथ केवल वो काम करते जिसे घरवाले और समाज ऑफिशियली 'आवारागर्दी' बोलते हैं. यानी घूमना-फिरना मौज लेना और घोड़ों की रेस देखते हुए, खुद घुड़सवार बनने के ख्वाब देखना.
पिता काम की तलाश में मुंबई चले आए जहां आगा ने पड़ोस में नाटक होते देखा तो सोचा- 'ये काम तो मैं कर सकता हूं' और मनमौजी आगा इस थिएटर ग्रुप से जुड़ गए. उनकी सहज एक्टिंग और कॉमिक टाइमिंग ने लोगों को इम्प्रेस किया तो सलाह मिलने लगी कि 'फिल्मों में ट्राई करो.' आगा ने ट्राई किया, एक स्टूडियो में काम मिला भी लेकिन पहले ही दिन डेढ़ घंटा देरी से पहुंचे तो निकाल भी दिए गए.
आगा ने फिर से फिल्म स्टूडियोज में काम खोजा गया और इस बार एक कंपनी में प्रोडक्शन मैनेजर का काम मिला. काम पर्दे के पीछे था लेकिन आगा का स्वभाव और कॉमेडी में उनका हुनर देखते हुए उन्हें पर्दे के आगे लाया गया. 1935 में आई फिल्म 'रंगीन गुनाह' से आगा ने बतौर कॉमेडी एक्टर डेब्यू किया और फिर करीब 10 फिल्मों में यही काम करते चले गए, जिसमें महबूब खान की फिल्म 'रोटी' (1941) भी शामिल थी.
दिलीप कुमार की डेब्यू फिल्म के लीड हीरो थे आगा
कॉमेडी के साथ आगा की एक्टिंग भी चर्चा बटोर रही थी और इसी ने उन्हें 'मुकाबला' (1942) में लीड रोल दिलाया. आगा खूब पॉपुलर होने लगे. 1944 में आगा ने 'ज्वार भाटा' नाम की एक फिल्म में लीड रोल निभाया था, जिसमें दिलीप कुमार नाम के एक यंग लड़के ने, सपोर्टिंग रोल में फिल्म डेब्यू किया. वही दिलीप कुमार जो आज इंडियन सिनेमा के लेजेंड्स में गिने जाते हैं. लेकिन आज आगा का नाम आम लोगों को तो क्या, फिल्म लवर्स को भी शायद ही आसानी से याद आता हो.
1947 में भारत आजाद हुआ और आजादी की सुगबुगाहट के साथ ही सिनेमा भी बदलने लगा था. अब सिनेमा में स्टार्स क्रिएट होने लगे थे. राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद की तिकड़ी का गोल्डन दौर शुरू हो चुका था. आगा अभी भी बड़े पर्दे पर थे लेकिन अब वो पूरी तरह कॉमिक एक्टर हो गए थे. 80s के दशक का अंत आने तक आगा लगातार फिल्मों में कॉमेडी करते नजर आते रहे और अपने 50 साल से ज्यादा लंबे करियर में, 300 से ज्यादा फिल्मों का हिस्सा बने. 1986 में आगा को कैंसर होने का पता चला था और 1992 में हार्ट अटैक से उनका निधन हुआ.
आगा की कॉमेडी का कमाल वैसे तो 'घराना', 'इंसानियत', 'दूल्हा दुल्हन' और 'पड़ोसन' जैसी कई पुरानी फिल्मों में नजर आ जाता है. लेकिन होली के मौके पर 'नवरंग' फिल्म में 'जा रे हट नटखट' गाने का पूरा सीक्वेंस, आगा को याद करने के लिए एक परफेक्ट मौका देता है.