
कोई काम पहले सौ बार किया जा चुका हो, फिर भी उसे और बेहतर क्वालिटी के साथ एक सौ एकवीं बार करने का स्कोप हमेशा बचा रहता है. नेटफ्लिक्स का नया शो 'कोहरा', क्राइम की कहानी के जरिए समाज की परतों को उघाड़कर देखने की वही एक सौ एकवीं कोशिश है. एक सामाजिक तानेबाने को सिनेमाई भाषा में बारीकी से दर्ज करने वाले 'कोहरा' को, अभी तक इस साल का सबसे बेहतरीन ओटीटी शो कहा जा सकता है.
एक मर्डर मिस्ट्री के जरिए, किरदारों के माहौल-समाज को समझने की कोशिशें तमाम शोज और फिल्मों में होती रही है. लेकिन 'कोहरा' इस काम को, बहुत सधे हाथों वाले डॉक्टर की बारीकी से करता है. शो की कास्टिंग इतनी बेहतरीन है कि स्क्रीन पर दिखने वाले चेहरे, एक्टर्स लगते ही नहीं. बल्कि ऐसा लगता है कि ये कहानी में दिख रही रियलिटी को खुद जी रहे लोग हैं.
कास्ट को लीड कर रहे सुविंदर विक्की ने ऐसा काम किया है जिसे इंडियन ओटीटी स्पेस की सबसे बेहतरीन अच्तिंत परफॉरमेंस में गिना जाता रहेगा. उनके साथ वरुण सोबती वो जोड़ी बनाते हैं जो स्क्रीन पर आपको बांधे रखती है. आइए बताते हैं 'कोहरा' में और क्या है खास...
'कोहरा' का प्लॉट
खेत में पड़ी मिली एक डेड बॉडी से शो की कहानी शुरू होती है. पता लगता है कि ये एक NRI लड़के, पॉल की लाश है, जो शादी करने इंडिया आया था. दो दिन पहले ही उसकी सगाई हुई है. जांच आगे बढ़ने पर पता चलता है कि पॉल अपने विदेशी दोस्त लियाम के साथ रात को निकला था. एक कि लाश मिल चुकी है मगर दूसरा अभी भी गायब है.
पंजाब पुलिस के दो ऑफिसर बलबीर सिंह (सुविंदर विक्की) और अमरपाल गरुंडी (वरुण सोबती) इस केस को सुलझाने में लगे हैं. जांच आगे बढ़ती है तो पॉल के परिवार और उसकी मंगेतर की लाइफ के राज बाहर आने लगते हैं. दूसरी तरफ खुद बलबीर और अमरदीप की लाइफ में अपने हिस्से की उलझनें हैं. बलबीर की बेटी अपने पति से अलग होना चाहती है और अपने मायके में ही रहती है. अमरदीप अपने भाई और भाभी के साथ रहता है. भाभी के साथ उसकी इक्वेशन अलग है. इसमें पंगा तब पड़ता है जब अमरदीप खुद शादी करना चाहता है.
पॉल और लियाम का केस, और दोनों पुलिस वालों की पर्सनल लाइफ में कहानी जितना अन्दर जाती है, सारी धुंध उतनी ही साफ़ होती जाती है. 'कोहरा' एक ऐसे पॉइंट पर पहुंच जाती है जहां लगता है कि केस से जुड़ा हर किरदार एक पोटेंशियल हत्यारा है. लेकिन इस शो का सबसे बड़ा मजा यही है कि जितना आपको स्क्रीन पर दिख रहा है, मामला सिर्फ उतना ही नहीं है. जब क्लाइमेक्स में पूरी कहानी सुलझती है, तो आप हैरान होने से ज्यादा निराश रह जाते हैं. और ये निराशा उस सोशल सेटअप से निकलती है, जहां 'कोहरा' की पूरी कहानी बुनी गई है.
बीत चुके कल के कोहरे में धुंधलाता हुआ आज
'कोहरा' को कई अलग-अलग नजर से देखा जा सकता है. बापों का अपने बच्चों से बर्ताव, कहानी को बांधने वाला सबसे टाइट धागा है. फ़्लैशबैक में कहानी पॉल के टीनेज में ले जाती है, जहां वो लंदन में अपनी एक नई आइडेंटिटी डिस्कवर कर रहा है. उसके इस सफ़र में सबसे बड़ा स्पीड ब्रेकर उसका पिता स्टीव है, जो अपने साथ अपने ट्रेडिशनल पंजाबी समाज और सोच लेकर विदेश में कमाने निकला था. इसी तराजू के दूसरे पलड़े पर कॉप बलबीर सिंह है जिसने अपनी बेटी के पंखों को बांधकर उसे शादी-बच्चे-ससुराल वाले सिस्टम में धकेल दिया. ऐसा ही एक रिश्ता पॉल के चाचा का अपने बेटे के साथ है, जो पूरी कहानी को ट्विस्ट करता है.
एक सामंती सोच वाले समाज की नैतिकता के जाल से निकलने का सपना, इस कहानी का एक और बड़ा एंगल है. यहां अपनी पत्नी के मौत के बाद प्यार तलाशता बलबीर, पति-परिवार से अलग जिंदगी खोजती उसकी बेटी और अपनी नई जिंदगी बुनता गरुंडी शामिल हैं. गली कूचों में आसानी से अवेलेबल नशा और शान बनाए रखने के लिए अपराध करने तक के लिए तैयार बैठे किरदार, 'कोहरा' के सोशल-पर्सनल गणित को और घना बनाते हैं.
दमदार एक्टिंग परफॉरमेंस
नेटफ्लिक्स फिल्म 'माइलस्टोन' में अपने काम से हैरान कर देने वाले सुविंदर विक्की ने 'कोहरा' में ऐसा काम किया है जिसे लोग लम्बे समय तक याद रखेंगे. उनके आंखें और बॉडी लैंग्वेज उस कनफ्लिक्ट को पूरी कामयाबी से क्रिएट करते हैं जो उनके किरदार में हैं. उन्हें देखकर लगता ही नहीं कि ये कोई फिक्शनल किरदार है. 'कैट' में भी सुविंदर ने सिख कॉप का किरदार निभाया था, लेकिन एक जैसे किरदार होने के बावजूद, दोनों के शेड्स बहुत अलग हैं.
सुविंदर की ब्रिलियंट परफॉरमेंस को वरुण सोबती भी पूरी मजबूती से मैच करते हैं. कुछ समय पहले ही 'असुर 2' में उनके काम से लोग बहुत इम्प्रेस हुए थे. लेकिन 'कोहरा' में उन्होंने पंजाबी डार्क ह्यूमर को जिस तरह पकड़ा है वो अद्भुत है. ऐसे कॉप किरदार कम ही लिखे जाते हैं जो अपराधी की पिटाई करते हुए कोई मजाकिया बात इस तरह कहते हों जैसे मारना उनके लिए कोई अलग हिंसक एक्ट है ही नहीं, बल्कि रूटीन लाइफ है.
गरुंडी की मंगेतर के रोल में आनंद प्रिया का काम बहुत इम्प्रेस करने वाला है. ये ऐसा किरदार है जिसके एम्बिशन, सर पे लटकने वाली नैतिकता की तलवार से बिल्कुल भी नहीं डरते. अपने समाज के आदर्शों को ही नहीं, प्यार के आइडियल भी उसे अपनी महत्वाकांक्षा के रास्ते का रोड़ा लगते हैं. इस किरदार की क्लैरिटी कमाल की है.
जबकि इस क्लैरिटी की खोज में भटकती बलबीर की बेटी, निमरत के रोल में हरलीन सेठी भी कमाल हैं. पॉल के पिता स्टीव के रोल में मनीष चौधरी वो परफेक्ट आदमी लगते हैं जो विदेशी कमाई की हरियाली तो चाहता है, मगर अपने ट्रेडिशनल पंजाबी आदर्शों की जमीन पर. अमरपाल की भाभी, एक ट्रक ड्राईवर और उसके हेल्पर के किरदारों में नजर आए एक्टर्स भी अपने काम से इम्प्रेस करते हैं.
राइटिंग और डायरेक्शन
शो के राइटर्स डिग्गी सिसोदिया और गुंजीत चोपड़ा ने एक-एक किरदार को पूरी बारीकी से गढ़ा है. एक बॉस ड्राईवर का किरदार जो शो में बहुत कम ही समय दिखता है और एक डिलीवरी एजेंट कम नशा सप्लाई करने वाला किरदार, इनके बैकग्राउंड भी आपको शो में क्लियर मिलेंगे. हर किरदार की ये डिटेल, कहानी के मेन प्लॉट को भी कंट्रीब्यूट करती है और यही राइटिंग का सबसे बड़ा कमाल है.
'कोहरा' उन शोज में से एक है जिनमें एक्टिंग तो ब्रिलियंट है ही, लेकिन इस दमदार परफॉरमेंस के लिए स्क्रिप्ट में भी भरपूर बारीकियां मौजूद थीं, ये आपको साफ़ दिखेगा. शो के को को-क्रिएटर सुदीप शर्मा ने 'पाताल लोक' 'सोनचिड़िया' 'उड़ता पंजाब' और 'NH10' जैसे प्रोजेक्ट लिखे हैं. 'कोहरा' की कहानी जिस तरह से सारे एंगल एक्सप्लोर करती है, उसपर 'पाताल लोक' का असर क्लियर दिखता है.
डायरेक्टर रणदीप झा ने किरदारों को खुलने का पूरा मौक़ा दिया है. 6 एपिसोड की इस सीरीज में कहानी और किरदारों को निखर के आने का टाइम खूब मिला है. शो की ग्रामर प्रतीकों से भरी हुई है. ईगो, मर्दानगी, परंपरा का गुणगान, नैतिकता का पल्लू जबरन थामे रहना और प्यार को देखकर कबूतर की तरह आंखें मूंद लेना... ये थीम्स वो 'कोहरा' बनाती हैं जिसमें अपराध और हिंसा छुपे रहते हैं. और रणदीप ने इस पूरे खेल को खूब रस लेकर स्क्रीन के लिए रचा है. हालांकि चौथे-पांचवें एपिसोड में फैमिली ड्रामा थोड़ा स्ट्रेच होते लगता है और एक पल के लिए कहानी का मेन मुद्दा, मर्डर इन्वेस्टिगेशन बैक सीट पर जाते दिखने लगते हैं. लेकिन शो ख़त्म होने पर टोटल प्रोडक्ट में आपको इस ट्रीटमेंट का असर फील होता है.
कुल मिलाकर देखा जाए तो 'कोहरा' ऊपर से भले पंजाब की ट्रेडिशनल सोसाइटी और आदर्शों पर सवाल उठता लगता है. लेकिन समझने पर लगेगा कि इस समय अधिकतर उत्तर भारतीय समाज इसी तरह के द्वंद्व में हैं जहां एक जेनरेशन को आगे बढ़ने के लिए मॉडर्न अप्रोच और सेन्स चाहिए. लेकिन पिछली जेनरेशन अपने आदर्शों के खो जाने के डर से इतनी सहमी हुई है कि आधुनिकता को खिड़की से ही देखना चाहती है, उसे दरवाजे से अन्दर नहीं आने देना चाहती. ये उलझन ही वो 'कोहरा' है, जिसमें बहुत सारे दर्द और राज दफ्न हैं.