
जब कोई अपनी ही धुन में रमा रहे, लोगों को दरकिनार कर खुद फैसले लेने लगे. अपनी चलाने के चक्कर में दूसरों को तवज्जो देना कम कर दे. जिसे समझना और समझाना मुश्किल हो जाए, जमाना उसे 'पगलैट' कहने लगता है. स्वार्थी और पगलैट में अंतर है. स्वार्थी खुद के हित के बारे में सोचता है, दूसरे का अहित हो जाए तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन पगलैट की संवेदना स्वार्थी से बड़ी होती है. वह नफे नुकसान की नहीं मन की सुनता है. जैसे अनुपमा की काव्या स्वार्थी (सेल्फिश) है, लेकिन अनुपमा कुछ हद तक पगलैट.
नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई 'पगलैट' संध्या की कहानी है. शादी के 5 महीने ही हुए हैं कि उसके पति की मृत्यु हो जाती है. लेकिन संध्या की आंखों से आंसू ही नहीं आते. उससे चाय के लिए पूछा जाता है तो उसे पेप्सी की तलब महसूस होती है. वह फेसबुक पर कमेंट गिनती है कि कितने लोगों ने आरआईपी लिखा है. फेसबुक पर 235 कमेंट हैं.
पति के जाने पर नहीं रोए तो सवाल तो उठेंगे ही
दुख की घड़ी में साथ देने आई उसकी सहेली नाजिया पूछती है भी है कि 'तुम ऐसे क्यों बिहेव कर रही हो जैसे कुछ हुआ ही न हो'. संध्या का जवाब होता है- 'यार बचपन में हम एक बिल्ली पाले थे, वह कार के नीचे आकर मर गई थी, हम तीन दिन तक कुछ खाए-पीए नहीं रोते रहे थे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं लग रहा है. भूख भी दबाकर लग रही है, मन करता है भाग जाऊं लेकिन... यानी उस बिल्ली के बच्चे जितना प्यार भी पति पर नहीं आ पाया. उधर पति की अस्थियां विसर्जित की जा रही हैं और इधर पत्नी गोलगप्पे खा रही है. सवाल तो उठेंगे ही.
जमाना नया हो या पुराना अगर कोई विधवा अपने पति के लिए रोती नहीं है तो तमाम तरह की फब्तियां शुरू हो जाती हैं. राजस्थान में रूदाली का प्रचलन है कि अगर कोई रिश्तेदार मर जाए तो उन्हें रोने के लिए बुलाया जाता है. क्योंकि घरवाले उतना नहीं रो पाते जितना 'जरूरी' होता है.
आस्तिक के जाने पर यह है घर का हाल
मध्यवर्ग की मजबूरियों और सनातन धर्म के कर्मकांडों को समेटे फिल्म आगे बढ़ती है. आस्तिक के मरने का अगर संध्या पर असर नहीं पड़ा है तो मां बाप को छोड़कर दूसरों पर भी इसका कोई खास असर नहीं दिख रहा है. यह वैसे ही है जैसे किसी खास के मरने पर अंगना करने जाया जाता है. कर्मकांडों के समय लोग सर झुका लेते हैं, फिर उन्हें अपनी दुनिया में रम जाने में वक्त नहीं लगता. अग्नि दिए भाई को लगता है कि वह जमीन पर क्यों सोए, इतना नीरस क्यों खाए, सिगरेट से दूर कैसे रहे. उसकी पीड़ा शब्दों में निकलती है कि 'आस्तिक भाई ने किसी के लिए कुछ किया था क्या?'
ऐसे में मन में यह बात उठती है कि आखिर कैसा था आस्तिक जिसके मरने पर पत्नी रोती नहीं है. भाई के पास संवेदना के कोई स्वर नहीं हैं. मां बाप इसलिए दुखी हैं कि उन्हें मझधार में छोड़ गया है. तेरहवीं से पहले ही बड़े पिताजी यह बात रख देते हैं कि 'अगर संध्या बिटिया अपने घर जाना चाहे तो जा सकती है. हम ओपेन माइंडेड (खुले विचारों) के हैं'. लेकिन मुस्लिम दोस्त नाजिया के लिए बर्तन अलग निकाल दिए जाते हैं. उसे खाना खाने के लिए बाहर भेज दिया जाता है. पैसे के लिए छल-कपट और प्रपंच की कोशिश होती है.
कहानी आगे बढ़ती है और बीमा कंपनी का इग्जेक्युटिव आकर बताता है कि आस्तिक ने 50 लाख की पॉलिसी ली थी जिसकी नॉमिनी संध्या है. इसके बाद परिवार का रुख बदल जाता है. घर का पैसा कैसे घर में रहे इसके लिए साजिश होने लगती है. 'नॉमिनी में तो पैरंट्स के नाम होते हैं. होने चाहिए'.
जब संध्या को मिली आकांक्षा
पैन, आधार और चेकबुक खोजने के क्रम में संध्या को आस्तिक की किताब में एक लड़की की फोटो मिलती है. संध्या उससे मिलने का फैसला करती है. ऑफिस के लोग संवेदना व्यक्त करने आते हैं तो संध्या आकांक्षा को पहचान जाती है. संध्या को लगता है कि आकांक्षा की वजह से आस्तिक उसे प्यार नहीं कर पाया. वह आस्था से उन जगहों पर ले जाने के लिए कहती है. जहां आस्तिक उसे लेकर जाता रहा है.
आकांक्षा के यह कहने के बावजूद भी कि शादी के बाद हम केवल कलीग थे संध्या को इस बात पर विश्वास नहीं होता. 'शादी केवल इसलिए नहीं की न कि परिवार वालों ने मना कर दिया'. आकांक्षा का जवाब होता है कि 'और तुमने शादी इसलिए की न कि परिवार ने कहा'. इस संवाद में पूरे जमाने की पीड़ा है. एक विडबंना की तरह है जिसमें दो प्यार करने वाले शादी नहीं कर पाते और दो अनजाने लोग शादी के बंधन में बांध दिए जाते हैं. तुर्रा यह कि साथ रहने से प्यार तो हो ही जाएगा. संध्या और आकांक्षा का साथ भी बहुत दिन नहीं चलता लेकिन आकांक्षा के शब्द संध्या को समझाने में सफल रहते हैं कि 'तुम आस्तिक को समझ ही नहीं पाओगी. तुम्हारी सोच छोटी है'.
''आस्तिक को माफ कर दिया अब रोना आ रहा है''
अब संध्या आस्तिक को माफ कर देती है, इसके बाद आसुओं की धार फूट पड़ती है. अंदर का गुबार बाहर निकल आता है. 'आस्तिक को माफ कर दिया अब रोना आ रहा है'. आकांक्षा की नजरों से संध्या आस्तिक को अधिक जान पाती है. क्योंकि उससे तो उसने दो बोल बोले ही नहीं थे. दोनों एक-दूसरे को समझ ही नहीं पाए थे न ही समझने की कोशिश की थी. एक शर्ट भेंट की थी लेकिन आकांक्षा को पता था कि आस्तिक का फेवरेट कलर ब्लू था. अगर पति होकर भी कोई इतना अजनबी हो सकता है तो उसके मरने के बाद पत्नी की आंखों से कितने आंसू गिरेंगे? लेकिन समाज निर्मम होता है. उसकी अपेक्षाओं पर खरा न उतरने वाले लोग पागल करार दिए जाते हैं. कुछ चीजें दिखावे के लिए होती हैं और वैसा करना पड़ता है.
कहानी आगे बढ़ती है. इश्योरेंस का पैसा क्लियर होते ही आस्तिक का चचेरा भाई आदित्य संध्या के आगे शादी का प्रस्ताव रख देता है. उसे संध्या से 'प्यार' हो जाता है. 'बिना प्यार के शादी करेंगे तो ऐसा लगेगा कि खाने से पहले मिठाई खा ली है'. लेकिन उसका जवाब होता है कि प्यार हो गया है. दूसरी ओर आस्तिक का सगा भाई भी संध्या से यह कहने से खुद को नहीं रोक पाता कि 'आपको पता है कि आपको कौन प्यार करता है'. घर में चर्चाओं का बाजार गर्म है. खुले और आधुनिक विचारों वाले पैसे के लिए किसी हद तक जाने को तैयार हैं. तेरहवीं के दिन आदित्य निकल जाता है कि क्योंकि उसे पता चल जाता है कि संध्या आस्तिक के बच्चे की मां बनने वाली है.
संध्या 50 लाख का चेक अपने ससुर के नाम करके घर छोड़ जाती है. दादी को पता है कि संध्या क्या कर रही है. कभी-कभी घर के सबसे बुजुर्ग लोग समय से आगे निकल जाते हैं. शायद अपने जीवन के आखिरी पड़ाव पर उन्हें जाति धर्म और दूसरे ढकोसलों का आभास हो जाता है. संध्या ने अपना घर भी नहीं छोड़ा है लेकिन अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती है. आकांक्षा से मिलकर उसे कहीं न कहीं लगता है कि उसे दूसरे आस्तिक लायक बनना है. अपने बारे में उसका खुद का आकलन है कि वह पगलैट है.
कुछ ऐसा था संध्या का आस्तिक
फिल्म में आस्तिक को कहीं दिखाया नहीं गया है. लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता उसका औरा तैयार हो जाता है. वह मां-बाप की कद्र करता था. अच्छी नौकरी करता था. अपनी नौकरी लगने के बाद उसने पिता की नौकरी छुड़ा दी थी. पूरे परिवार को लेकर चलता था लेकिन पत्नी को प्यार नहीं दे पाया. प्यार नहीं दे पाया तो कुछ ऐसा भी नहीं किया जिससे बात बाहर आए कि दोनों में निभ नहीं रही है. यही फिल्म की खूबी भी है और खामी भी. आस्तिक का व्यक्तित्व किसी को नहीं रुला पाता.
कैसी है एक्टर्स की परफॉरमेंस?
फिल्म के पात्र स्वाभाविक हैं. अभिनय स्वाभाविक है. रघुबीर यादव ने कमाल का काम किया है. संध्या के रूप में सान्या मल्होत्रा ने साबित किया है कि वह अपना मुकाम हासिल करके रहेंगी. आशुतोष राणा से और बेहतर कराया जा सकता था. नाजिया के रूप में श्रुति शर्मा ने भी ध्यान खींचा है. बाकी कई पात्रों को देखकर लगता है कि उन्होंने मिर्जापुर में बेहतर किया था. फिल्मकार की कोशिश है कि समाज की दरकती दीवारों को दिखाए, फिल्म की शुरूआत जिन हवेलियों के कोलाज से होती है उन पर काई जम गई है. वैसे ही जैसे एक परिवार के विचारों में होती है. घर का नाम शांतिकुंज है लेकिन सबका मन अशांत है. एक घर की सामान्य सी डोर बेल कैसे असहज कर देती है यह सूतक वाले घर में उल्लाला उल्लाला सुनकर ही समझा जा सकता है.
फिल्म का कोई गाना जुबान पर नहीं चढ़ता है. खूबियों और खामियों के साथ ही एक बार तो फिल्म देखी ही जा सकती है. अब तो एक कंट्रोवर्सी भी इससे जुड़ गई है. 'रामप्रसाद की तेरहवीं' की पूरी टीम का दावा है कि फिल्म की कहानी से लेकर किरदारों तक सबकुछ सेम रखा गया है. ऐसे में अगर विवाद बढ़ता है तो पगलैट का पॉपुलर होना स्वाभाविक ही है.