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दोस्तों की गलतियों को भी अपने सिर लेने वाला एक बिगड़ा शहजादा! 'जूनियर प्रेस्ली' संजय दत्त की कहानी

बंदूकों का शौकीन और मर्दानगी की पहचान लिए एक बिगड़ा शहजादा किसी का नायक है तो किसी के लिए खलनायक. संजय के लिए जिस आजादी का सपना उनके पिता ने देखा था आज वो उनके हिस्से आ चुकी है. एक बड़ा भंवर थम चुका है और इतिहास के पन्नों पर तमाम कहानियां हमेशा हमेशा के लिए दर्ज हो चुकी हैं...

संजय दत्त (तस्वीर- इंडिया टुडे आर्काइव) संजय दत्त (तस्वीर- इंडिया टुडे आर्काइव)
Akashdeep Shukla
  • नई दिल्ली,
  • 29 जुलाई 2023,
  • अपडेटेड 2:01 PM IST

हां, मैं हूं खलनायक... स्लोगन और हाथों में हथकड़ी लगाए संजय दत्त के पोस्टर गली गली लग चुके थे. यह वो दौर था जब मुंबई ब्लास्ट मामले में संजय से पूछताछ पर पूछताछ चल रही थीं. दत्त परिवार एक बड़े भंवर में फंसता चला जा रहा था. ऐसे में उन्हें सुभाष घई का यह तरीका ज़रा भी पसंद नहीं आया कि संजय की फिल्म 'खलनायक' का इस तरह से प्रचार किया जाए. इसमें साफ तौर पर अवसरवादिता नजर आ रही थी. लेकिन घई का इस मामले में इतना ही कहना था कि फिल्म के प्रमोशन की रणनीति बहुत पहले ही बनाई जा चुकी थी. इसलिए यह कहना कि संजय की मौजूदा हालत को कैश करने के लिए इस तरह का प्रमोशन हो रहा है तो यह गलत है. 

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साल 1993 में 'खलनायक' के रिलीज होने से पहले ही संजय 'खलनायक' बन चुके थे. संजय एक बार फिर मीडिया में छा चुके थे, लेकिन इस बार उनकी छवि एक बैड बॉय की थी. वैसे संजय हमेशा मीडिया के केंद्र में रहे. इस बैड बॉय की कहानी में अगर रिवर्स गियर डाला जाए तो संजय का नाम भी एक मैगजीन की मदद से पड़ा. 

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बात उन दिनों की है जब सुनील दत्त और नरगिस एक दूसरे के प्यार में थे. दिन-रात का साथ और भविष्य को बुनना... व्यक्ति जब प्यार में होता है तो वो न जाने कितने ख्वाब देखता है. तरह-तरह के नामों से अपने प्रेमी को पुकारता है. ऐसे में सुनील दत्त, नरगिस के लिए एल्विस प्रेस्ली थे. नरगिस उन्हें इसी नाम से पुकारती थीं. भविष्य के तमाम ख्वाब में एक ख्वाब 'जूनियर प्रेस्ली' का भी देखा गया था, जो 29 जुलाई 1959 की रात 2 बजकर 45 मिनट पर सच हुआ. लेकिन जब जूनियर के नाम रखने की बारी आई तो इसके लिए एक खास कंपटीशन का आयोजन किया गया.

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उस दौर की चर्चित फिल्म मैगजीन 'शमा' में सुनील और नरगिस के चाहने वालों से सुझाव मांगा गया कि वो बताएं इस नए मेहमान का क्या नाम रखा जाए. जिसमें सबसे ज्यादा सुझाया गया नाम था- संजय कुमार.  

जूनियर प्रेस्ली का जन्म दत्त परिवार के लिए भाग्योदय जैसा रहा. सुनील सुपरस्टार की लिस्ट में शामिल हो चुके थे. उनकी फिल्मों में अब कमाल होने लगा था. अब उनके पास बेहतरीन फिल्मों के ऑफर थे, इसी बीच उन्होंने फिल्म प्रोडक्शन कंपनी की शुरुआत की. कंपनी का नाम रखा गया- अजंता आर्ट्स. ये सुनील के सबसे बड़े सपनों में से एक था. अजंता आर्ट्स में वो उनकी क्रिएटिव चाहतों को पूरा करना चाहते थे. इसी बैनर के तले 'मुझे जीने दो' सबसे पहली फिल्म बनी. 

इस सब के बीच जो सबसे दिलचस्प बात थी वो थी नरगिस और संजय के बीच का प्यार. संजय के पैदा होने के बाद नरगिस एक बेबी बुक भी लिखती थीं. जिसमें वो संजय के हवाले से हर एक घटना पन्नों पर उकेर देती थीं. वो संजय को लेकर जहां भी जातीं देखी गयी हर एक घटना को संजय की नजर से उस बेबी बुक में दर्ज कर देती थीं. जिसमें उन्होंने अजंता आर्ट्स बैनर के तले बनने वाली पहली फिल्म के मुहूर्त शॉट वाले दिन लिखा, 'आज मेरी और मेरे पापा की जिंदगी में एक महत्वपूर्ण घटना हुई. 'मुझे जीने दो' फिल्म के मुहूर्त शॉट के लिए मुझे अंधेरी के मोहन स्टूडियो ले जाया गया. वह अनुभव भी क्या ही मज़ेदार था. मैं पापा को पहचान ही नहीं पाया, उन्होंने डाकुओं जैसे कपड़े पहने हुए थे. और काफी डरावने लग रहे थे. मैं उनके पास तब ही गया जब उन्होंने मुझे बुलाया और मुहूर्त शॉट के लिए मैंने कैमरा चला दिया. मैंने दिल ही दिल में भगवान जी से प्रार्थना भी की कि वो पापा का ध्यान रखें. मैं पापा के लिए खुशकिस्मत साबित होऊं.' 

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इस तरह नरगिस ने बेबी बुक में लिखना जारी रखा. उन्होंने हर उस मौके को संजय की बेबी बुक में दर्ज किया जो उनके लिए खास रहे. नरगिस मातृत्व को जीने के लिए फिल्मों को छोड़ चुकी थीं. वो अपना पूरा समय संजय को देना चाहती थीं. ऐसे में संजय को अपने कलेजे से लगा कर रखती थीं. फ़िल्में छोड़ने का उन्हें कोई मलाल नहीं था. वहीं बेबी बुक में दर्ज हुई वो आखिरी लाइन कि शायद मैं अपने पापा के लिए खुशकिस्मत साबित होऊं, सच हो गई. साल 1963 में बनी फिल्म 'मुझे जीने दो' के लिए सुनील को बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिला.  

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समय का पहिया आगे बढ़ा और दत्त परिवार का चार्म बढ़ता चला गया. लाड़-प्यार में पल बढ़ रहे संजय जिद्दी होते जा रहे थे. फ़िल्मी दुनिया के जाने माने लोगों का घर आना और स्कूल तक में संजय को स्पेशल ट्रीटमेंट मिलना शायद उनके नखरों में इजाफा करता जा रहा था. अब पूरा घर संजय के नखरों के इर्द गिर्द ही चलने लगा था. एक राजकुमार की तरह देखे जा रहे संजय के ऐब किसी को नजर नहीं आ रहे थे. लेकिन सुनील इस बात से अनजान नहीं थे कि संजय बिगड़ रहे हैं. नियमों तो तोड़ना और बड़ों की बातों को इग्नोर करना अब संजय की तरफ से आम होता जा रहा था. सुनील समझ चुके थे कि उनका बेटा अब बेलगाम होता जा रहा है. और उसको लेकर सभी का लाड़ इतना ज्यादा बढ़ चुका है कि उसे चाहने वाले उसे गंभीर से गंभीर आरोप से भी बचा ले जाएंगे.

यही वो दौर था जब सुनील ने संजय को बोर्डिंग में भेजने का फैसला किया. एक इंटरव्यू में संजय ने बताया था कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सुझाव पर उनको लॉरेंस स्कूल, सनावर में पढ़ने के लिए भेज दिया गया. लॉरेंस स्कूल अपने कठोर अनुशासन के लिए जाना जाता था. सुनील के इस फैसले से दत्त परिवार का एक एक सदस्य दुखी था. लेकिन यह सब प्रेम-मोह त्याग संजय को उनके भविष्य के लिए सनावर भेज दिया गया. एक लंबे समय तक सनावर और संजय के बीच दोस्ती नहीं हो सकी, लेकिन कुछ साल बाद दोनों के बीच दोस्ती हो ही गयी. 

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लॉरेंस में संजय को एक सुपरस्टार के बेटे होने की ख़ास सजा मिली. स्कूल प्रशासन इस बात को साबित करना चाहता था कि चाहे खुद प्रधानमंत्री का बेटा ही क्यों न हो, हम किसी के साथ कोताही नहीं बरतते. ऐसे में कई बार संजय के साथ ज्यादा ही ज्यादती हो जाती थीं. शुरू के दिनों में संजय को रोजाना तीस जोड़ी सफ़ेद जूतों पर पॉलिश करनी होती थी. लॉरेंस स्कूल में संजय को मिली एक सबसे बड़ी सजा का जिक्र सुकेतु मेहता की किताब मैक्सिमम सिटी में भी है. जिसमें उन्होंने बताया कि संजय को सजा के तौर पर एक बार पीठ पर राइफल रखकर पक्की सड़क पर रेंगने के लिए कहा गया था. पक्की सड़क पर रेंगने की वजह से उनका खून तक बहने लगा था. इस समय संजय लगभग सोलह साल के थे. 

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संजय दोस्तों के बीच काफी प्यारे थे. बताते हैं कि कई बार वो अपने दोस्तों की गलती को भी अपने सिर ले लेते थे. लेकिन इन सब कहानियों के साथ बड़ा हुआ संजय कब एक नाकाबिल अभिनेता, ड्रग्स का लती और सजायाफ्ता मुजरिम बन गया... पता ही नहीं चला. बॉलीवुड में शुक्रवार को एक ऐसा दिन माना जाता है जो किसी भी एक्टर को बना सकता है या ख़तम कर सकता है. इसी दिन रिलीज होने वाली फिल्मों ने किसी एक्टर को फर्श से अर्श पर पहुंचा दिया तो किसी को अर्श से फर्श पर ला दिया. संजय के जीवन में भी एक ऐसा ही शुक्रवार आया जिसने उनकी दुनिया ही बदल दी. 

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12 मार्च 1993... एक ऐसा शुक्रवार जो संजय के जीवन में सबसे बुरा दिन बनकर आया. इस दिन मुंबई में सीरियल ब्लास्ट हुए थे. जिसमें एक के बाद एक तबाही की गूंज ने पूरे के पूरे शहर में दहशत फैला दी थी. दो घंटे दस मिनट के अन्दर बारह बम धमाको में 257 लोग मारे गए और 713 लोग घायल हुए थे. इस दौरान संजय जयपुर में सुल्तान अहमद की 'जय विक्रान्ता' की शूटिंग पर थे. प्रिया दत्त भी उनके साथ थीं. धमाकों की ख़बरों से प्रिया काफी परेशान थीं. उन्होंने तुरंत अपने घर का हाल लिया और समय रहते मुंबई चली गयीं, लेकिन संजय 2 अप्रैल 1993 को फिल्म आतिश के क्लाइमैक्स की शूटिंग के लिए मॉरिशस निकल गए.

इन धमाकों के पीछे दाउद इब्राहीम का नाम सामने आया. और उसके बाद जो हुआ उससे जग वाकिफ है. संजय के जीवन में इतना कुछ है जिसे लिखते लिखते कई किताबें भर जाएं. इतने किस्से हैं जिन्हें सुनते सुनते कितने ही दिन निकल जाएं. इस सब के बीच बंदूकों का शौकीन और मर्दानगी की पहचान लिए एक बिगड़ा शहजादा किसी का नायक है तो किसी के लिए खलनायक. संजय के लिए जिस आजादी का सपना उनके पिता ने देखा था आज वो उनके हिस्से आ चुकी है. एक बड़ा भंवर थम चुका है और इतिहास के पन्नों पर तमाम कहानियां हमेशा हमेशा के लिए दर्ज हो चुकी हैं... 

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