
Satish Kaushik Death: 9 मार्च की सुबह ऐसी दुखभरी खबर आई कि हर कोई गमगीन हो गया. सतीश कौशिक ने होली के एक दिन बाद हमेशा-हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद ली. बॉलीवुड ने अपने एक दिग्गज कलाकार को हमेशा के लिए खो दिया. सतीश तो चले गए लेकिन कई यादें और किस्से कहानियां अपने पीछे छोड़ गए. आइये आपको रूबरू करवाते हैं ऐसी एक कहानी से, जब एक्टर को सुसाइड करने का ख्याल आया था. वो अपनी कॉमेडियन इमेज से भी नाखुश थे.
सुसाइड का आया ख्याल
सतीश कितने जिंदादिल इंसान और बेहतरीन कलाकार थे, ये किसी को भी याद दिलाने की जरूरत नहीं है. लेकिन हर किसी की जिंदगी में एक ऐसा मोड़ आता है, जब वो इतना उदास होता है कि मन में बुरे बुरे ख्याल आते हैं. ऐसा ही कुछ सतीश कौशिक के साथ भी हुआ था. बतौर डायरेक्टर सतीश ने साल 1993 में डेब्यू किया था फिल्म रूप की रानी चोरों का राजा से. इस फिल्म के प्रोड्यूसर बोनी कपूर थे और अनिल कपूर-श्रीदेवी लीड रोल में.
ये फिल्म उस जमाने की सबसे महंगी फिल्मों में शुमार थी, लगभग 9 करोड़ के बजट में इसे बनाया गया था. बताया जाता है कि फिल्म इतनी बड़ी फ्लॉप थी कि बोनी कपूर कर्जदार हो गए थे. सतीश कौशिक ने इसके डायरेक्शन के लिए सार्वजनिक तौर से जिम्मेदारी ली थी. सतीश ने एक टीवी इंटरव्यू के दौरान बताया था कि कैसे वो इतने दुखी हो गए थे कि उन्हें सुसाइड के ख्याल आने लगे थे. इतनी बड़ी फिल्म, जिसे बनने में ही लंबा वक्त लगा और दमदार स्टार कास्ट के बावजूद वो फ्लॉप हो गई थी. इस फिल्म के एक चलती ट्रेन से हीरा चोरी करने के सीन को शूट करने में ही 5 करोड़ का अमाउंट लगा था.
कॉमेडियन नहीं कहलाना चाहते थे सतीश
सतीश कौशिक यूं तो हरफनमौला थे. लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा अपने कैलेंडर के रोल के लिए जाना जाता है. आज भी खाने की टेबल पर बैठे लोग...'कैलेंडर खाना दो' की लाइन जरूर रिपीट करते हैं. वैसे तो सतीश ने इस रोल को खुद अपने लिए चुना था. उन्होंने जानबूझकर कई लोगों को ऑडिशन में रिजेक्ट भी किया, ताकि उन्हें ये रोल मिल सके. इस कैरेक्टर को कैलेंडर का नाम भी सतीश ने ही दिया था. ये आइडिया उन्हें उन्हीं के बचपन से आया था. दरअसल जब सतीश कौशिक छोटे थे तो उनके पिता से मिलने के लिए एक शख्स आता था. उस शख्स का तकिया कलाम कैलेंडर था. बस यहीं से सतीश कौशिक को आइडिया आया और उन्होंने अपने किरदार का नाम कैलेंडर रख दिया.
हालांकि सतीश कौशिक ने कई किरदार निभाए लेकिन इसके बाद उनका एक और कॉमेडी रोल बेहद हिट हुआ, वो था फिल्म दीवाना मस्ताना के पप्पू पेजर का. सतीश कौशिक को कॉमेडियन के तौर जाना जाने लगा था. ये बात एक्टर को बेहद खलती थी. एक टैब्लॉइड को दिए इंटरव्यू में सतीश ने कहा था- 'मैं अपने नाम के साथ जुड़े कॉमेडियन शब्द को बहुत ज्यादा गंभीरता से नहीं लेता. मुझे लगता है कि अभिनेता एक अभिनेता ही होता है. अगर वह कोई कॉमेडी का किरदार करता है तो उसको कॉमेडियन थोड़े ही कहेंगे. वह तो अभिनेता ही होता है. हीरो को तो कोई कॉमेडियन नहीं बोलता? अब अमिताभ बच्चन को कोई कॉमेडियन बोलेगा? बाद में भी जितने अभिनेताओं ने कॉमेडी करना शुरू कर दी. तो, क्या उन्हें कॉमेडियन कहना शुरू कर दिया गया?
मैं एक कलाकार हूं, कॉमेडियन नहीं
सतीश ने आगे कहा था- 'हिंदी फिल्मों में 70, 80 और 90 के दशक में जो खांचे बने होते थे, उन्हें भरने का काम हम करते थे. उस हिसाब से मैं मानता हूं कि मेरे किए वह सभी अभिनेताओं के ही किरदार रहे, न कि कॉमेडियन के. मैंने फिल्मों में जितने भी कॉमिक किरदार किए हैं, वह हमेशा किरदारों से जुड़े रहे. चाहे वह मेरा कैलेंडर का किरदार हो, उसके हावभाव और पारिवारिक विशेषताओं के चलते वह पूरा एक किरदार था. वह सिर्फ हंसाने के लिए कुछ नहीं करता था. 'साजन चले ससुराल' का मुथुस्वामी, 'बड़े मियां छोटे मियां' का शराफत अली, 'हसीना मान जाएगी' में मेरा संवाद, ‘आइए तो सही, बैठिए तो सही’, यह सभी किरदार अभिनय से ही जुड़े रहे.'
सतीश ने सही मायने में हर किरदार को पूरी शिद्दत से निभाया है, और जीवंत किया है. सतीश कौशिक भले ही आज इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी यादें और किस्से अमर हैं.
RIP Satish Kaushik