
बॉलीवुड में इन दिनों फिल्मों को री-रिलीज करने का ट्रेंड बहुत जोरों पर है. इस ट्रेंड को देखते हुए लोग अक्सर सोशल मीडिया पर कुछ फिल्मों को दोबारा रिलीज करने की मांग करते रहते हैं. जिन फिल्मों को री-रिलीज करने की मांग फिल्म-लवर्स अक्सर सोशल मीडिया पर करते हैं उनमें से एक आमिर खान की 'रंग दे बसंती' भी है.
साल 2006 में आई इस फिल्म ने अपने दौर में लोगों को शॉक-सरप्राइज-क्रेजी कर दिया था. 'बेस्ट पॉपुलर फिल्म' का नेशनल अवॉर्ड जीत चुकी 'रंग दे बसंती' को भारत की तरफ से ऑस्कर अवॉर्ड्स के लिए ऑफिशियल एंट्री भी बनाया गया था. लेकिन जब भी इसे दोबारा रिलीज करने की बात होती है, कोई ना कोई फिल्म फैन ये याद दिलाना नहीं भूलता कि ये फिल्म 2006 में बिना सेंसर बोर्ड के पंगे के थिएटर्स में रिलीज हो गई. लेकिन आज के दौर में इसका थिएटर्स में रिलीज होना नामुमकिन है.
सवाल ये है कि नेशनल अवॉर्ड जीतने वाली किसी फिल्म का आज रिलीज होना लोगों को मुश्किल क्यों लगता है? शायद इस बात का जवाब उस असर में छुपा है जो डायरेक्टर राकेश ओमप्रकाश मेहरा की 'रंग दे बसंती' ने लोगों के दिल-दिमाग पर छोड़ा था. उस असर को तब खबरों में RDB (रंग दे बसंती) इफेक्ट कहा जाता था.
क्या था RDB इफेक्ट?
'रंग दे बसंती' में एक विदेशी लड़की भारत के क्रांतिकारियों भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, अशफाक उल्ला खां और राम प्रसाद बिस्मिल पर डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाने आती है. क्रांतिकारियों के किरदार के लिए उसे कुछ एक्टर्स की जरूरत है. वो कॉलेज के कुछ मनमौजी, बेफिक्र और बेतरतीब रहने वाले स्टूडेंट्स को क्रांतिकारियों के रोल में कास्ट कर लेती है.
इन स्टूडेंट्स का क्रांति-आंदोलन-कुर्बानी जैसे शब्दों से कोई लेनादेना नहीं है और वो बस मजे के लिए डाक्यूमेंट्री में काम कर रहे हैं. तभी एयरफोर्स में पायलट बन चुका इनका एक खास दोस्त, मिग-21 फाइटर प्लेन के क्रैश में मर जाता है. फिल्म में देश के रक्षामंत्री इस दुर्घटना का जिम्मेदार पायलट की लापरवाही को ठहराते हैं. यंग स्टूडेंट्स को अब क्रांति-आंदोलन-कुर्बानी जैसे शब्द समझ आने लगते हैं. वो अपने ही देश में राजनीति और भ्रष्टाचार से गुस्से में हैं. ये स्टूडेंट देश के रक्षामंत्री की हत्या कर देते हैं और जवाबी कार्रवाई में खुद भी मारे जाते हैं.
'रंग दे बसंती' के इस अंत से कई लोग असहमत भी थे. उनका मानना था कि अगर नागरिक इस तरह देश में अपना गुस्सा जाहिर करने लगे तो अराजकता फैल जाएगी. मगर शायद देश की जनता, तमाम सामाजिक विश्लेषणों से बेहतर समझ रखती है. 'रंग दे बसंती' में हिंसक रास्ते पर चलने से पहले, वो यंग स्टूडेंट्स इंडिया गेट पर कैंडल मार्च के जरिए सरकार के खिलाफ अपना गुस्सा जाहिर करने निकलते हैं. मगर सरकार इस गुस्से को कुचलने के लिए पुलिस की लाठी का सहारा लेती है.
'रंग दे बसंती' 26 जनवरी 2006, यानी गणतंत्र दिवस के दिन थिएटर्स में रिलीज हुई थी. इस फिल्म की टैगलाइन थी- 'एक पीढ़ी जाग उठी है' (A Generation Awakens). लेकिन ये सिर्फ एक टैगलाइन भर नहीं थी. भारत ही नहीं, हर देश में युवाओं को बेपरवाह-बेफिक्र माना जाता रहा है. मगर फिल्म आने के बाद कई घटनाएं ऐसी हुईं जिनमें युवा पीढ़ी का रिएक्शन बहुत हैरानी भरा था. अब वे अखबारों की निराश करने वाली हैडलाइन से भाग कर स्पोर्ट्स या फिल्मों का सहारा नहीं ले रहे थे. उन्हें इन हैडलाइन का जवाब चाहिए था, उन्हें बदलाव चाहिए था. ये RDB इफेक्ट की शुरुआत थी.
जब सड़कों पर उतरा RDB इफेक्ट
अपनी किताब 'द स्ट्रेंजर इन द मिरर' में राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने ऐसी ही एक घटना का जिक्र किया है. अप्रैल 1999 में हुई इस घटना का नाम था जेसिका लाल हत्याकांड. 34 साल की मॉडल जेसिका लाल, एक पब्लिसिटी कैम्पेन के लिए दिल्ली में खुले एक नए रेस्टोरेंट में वेटर बनी थीं. बार बंद होने के बाद एक बड़े नेता का बेटा आया और उसने जेसिका से ड्रिंक सर्व करने को कहा.
जेसिका ने मना किया तो उसने गन निकाली और शहर के 300 लोगों के सामने अपना काम कर रही उस लड़की को पॉइंट-ब्लैंक शूट कर दिया. ट्रायल कोर्ट में इस मामले की सुनवाई 7 साल चली और फरवरी 2006 में पॉलिटिशियन के बेटे के साथ 12 में से 9 आरोपी 'सबूतों के अभाव' में बरी हो गए. अगले दिन टाइम्स ऑफ इंडिया में हैडलाइन छपी- 'नो वन किल्ड जेसिका' (जेसिका को किसी ने नहीं मारा).
जब ये हैडलाइन छपी तो 'रंग दे बसंती' को थिएटर्स में रिलीज हुए सिर्फ 4 हफ्ते हुए थे. जनता में कुछ बदला हुआ था. लोग SMS और ईमेल पर इस घटना की आलोचना कर रहे थे. जेसिका लाल के लिए न्याय की मांग उठ रही थी. इस मांग के साथ इंडिया गेट पर करीब ढाई हजार लोग कैंडल मार्च करते नजर आए.
इस प्रदर्शन के बारे में 'रंग दे बसंती' के डायरेक्टर ने किताब में लिखा, 'ये प्रदर्शन खुद उस ऑनस्क्रीन सीन- इंडिया गेट पर एक कैंडल लाइट मार्च- की नकल जैसा था जो हमने 6 हफ्ते पहले RDB में क्रिएट किया था. ये फिल्म तब पब्लिक की याद्दाश्त में एकदम जिंदा थी. (जेसिका के कैंडल मार्च में) स्टूडेंट्स ने RDB के टैटू बनाए हुए थे और RDB वाली टी-शर्ट्स पहने थे, जिनपर फिल्म की लाइनें लिखी थीं. मीडिया ने एक टर्म तैयार कर ली थी- RDB इफेक्ट.'
'रंग दे बसंती' ने भारत के यूथ को आवाज दे दी थी और कैंडल मार्च, जनता के लिए अपना गुस्सा जाहिर करने का तरीका बन चुका था. मई 2006 में दिल्ली के कई मेडिकल स्टूडेंट ग्रुप, उच्च शिक्षा में आरक्षण का विरोध कर रहे थे. जिस तरह इन स्टूडेंट्स ने मार्च निकाला उसमें एक बार फिर से RDB इफेक्ट नजर आया. ये असर लगातार कई विरोध प्रदर्शनों में नजर आता रहा. यहां तक कि फिल्म रिलीज होने के 5 साल बाद, देश को एक नई पॉलिटिकल पार्टी देने वाले अन्ना आंदोलन में भी युवाओं के अंदर वो आंदोलनकारी एनर्जी दिखी जिसके बीज 'रंग दे बसंती' ने बोए थे. मुंबई के आजाद मैदान से आई NDTV की एक रिपोर्ट की हैडलाइन का हिंदी मतलब कुछ यूं था- 'मुंबई के आजाद मैदान में गूंजा 'रंग दे बसंती''. आंदोलनकारी युवाओं की ये भीड़ एक बार फिर निर्भया कांड के वक्त प्रदर्शन करने सड़कों पर निकली थी.
युवाओं के निराशाजनक रवैये से निकला था फिल्म का आईडिया
अपनी किताब में मेहरा ने बताया था कि 1996 में एक डॉक्यू-ड्रामा फिल्म के सिलसिले में वो गुजरात में थे. जब राइटर कमलेश पांडे उनसे मिलने आया करते थे तो वो ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भारत के यंग स्टूडेंट्स की सशस्त्र क्रांति पर खूब चर्चा किया करते थे. कमलेश ने ही मेहरा को बताया था कि फांसी से पहले भगत सिंह की आखिरी लाइनें थीं- 'हमारे बाद और भी आएंगे.' सालों बाद उन्होंने 'रंग दे बसंती' में ये सीन रीक्रिएट किया था.
कमलेश ने मेहरा को एक फिल्म की स्क्रिप्ट दी थी जो ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भारतीय क्रांतिकारियों के संघर्ष का निचोड़ थी. इसका टाइटल था 'यंग गन्स ऑफ इंडिया'. मेहरा के मन में सवाल था कि क्या आज का युवा इससे कनेक्ट कर पाएगा? तो उन्होंने अपने एक दोस्त से हेल्प ली और 30-40 कॉलेज स्टूडेंट्स को बुलाकर उनसे इस आईडिया पर राय ली. इन स्टूडेंट्स ने आईडिया पूरी तरह रिजेक्ट कर दिया. मेहरा अपनी किताब में लिखते हैं- 'MTV जेनरेशन को क्रांति में कोई इंटरेस्ट नहीं था. वो लेटेस्ट डेनिम, जूते पहनकर, परफ्यूम लगाकर डेट पर जाना चाहते थे और यूएस में पढ़ना चाहते थे.' मेहरा को लगा कि मुंबई में शायद उन्होंने स्टूडेंट्स का गलत ग्रुप चुन लिया.
दिल्ली में उन्होंने फिर से यही काम किया और शॉक रह गए. मुंबई के स्टूडेंट्स ने कम से कम उन्हें दो घंटे तक सुना था. दिल्ली के स्टूडेंट्स ने तो 5 मिनट में ही आईडिया रिजेक्ट कर दिया. एक स्टूडेंट ने उनसे पूछा, 'क्या चंद्रशेखर आजाद, क्रिकेटर कीर्ति आजाद के दादा थे?' एक स्टूडेंट ने उन्हें राय दी, 'अगर भगत सिंह आज पैदा होते तो वो हद से हद इंडियन आर्मी या स्टेट बैंक ऑफ इंडिया जॉइन कर लेते.' एक और लड़के ने कहा, 'मैं तो इंडियन आर्मी की बजाय सिटी बैंक जॉइन करना चाहूंगा! एक भ्रष्ट देश की सेवा कौन करे?'
कमलेश और राकेश दोनों ने अपना आईडिया साइड रख दिया. उन्हें लगा कि इस जेनरेशन को ये आईडिया समझ नहीं आ रहा. उसी समय भारतीय फाइटर प्लेन मिग-21 के हादसे खूब चर्चा में थे. ये प्लेन हवा में आग का गोला बन जा रहे थे, जबकि ये युद्ध का दौर भी नहीं था, ये बस ट्रायल फ्लाइट्स थीं. इसके जवाब में 2003 में तत्कालीन रक्षा मंत्री खुद मिग-21 में, 25 मिनट की सॉर्टी का हिस्सा बने और उन्होंने इस प्लेन को पूरी तरह सुरक्षित घोषित कर दिया. अखबारों में प्रोपेगैंडा आर्टिकल आने लगे कि कैसे मिग-21 हादसों के 45% हादसों की वजह 'ह्यूमन एरर' थी. इससे मेहरा खफा थे. उन्होंने और कमलेश ने मिलकर 'यंग गन्स ऑफ इंडिया' के आईडिया को पूरी तरह पलट दिया और इस तरह अस्तित्व में आई 'रंग दे बसंती'.
सरकार की सहिष्णुता का भी उदाहरण थी 'रंग दे बसंती'
अब वापस उस पहले सवाल पर लौटते हैं कि नेशनल अवॉर्ड जीतने वाली किसी फिल्म का आज रिलीज होना लोगों को मुश्किल क्यों लगता है? 'रंग दे बसंती' में मिग-21 प्लेन्स के क्रैश होने का मुद्दा कहानी का कनफ्लिक्ट पॉइंट था. ये मुद्दा अपने दौर के सबसे भारी राजनीतिक मुद्दों में से एक था, ऊपर से ये देश की सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा था. सबसे बड़ा पंगा ये कि फिल्म में यंग स्टूडेंट्स को रक्षा मंत्री की हत्या करते हुए दिखाया गया था.
दोनों ही ऐसी बातें थीं जो बहुत गंभीर थीं. आज के सेंसर बोर्ड का कामकाज देखें तो बात-बात पर फिल्मों में कट सुझाने वाला सेंसर बोर्ड शायद 'रंग दे बसंती' पर जमकर कैंची चलवाता. मगर तब सेंसर बोर्ड ने केवल एक शर्त रखी कि मिग-21 का मुद्दा होने की वजह से, वो फिल्म को तभी पास करेगा जब रक्षा मंत्रालय से कोई आपत्ति ना आए. तब सेंसर बोर्ड की चीफ एक्ट्रेस शर्मिला टैगोर थीं, जिनकी बेटी सोहा अली खान 'रंग दे बसंती' में काम कर रही थीं.
शर्मिला का सुझाव था कि रक्षा मंत्री प्रणब मुखर्जी खुद फिल्म देखकर फैसला करें. रिपोर्ट्स बताती हैं कि तीनों सेनाओं के प्रमुखों और प्रणब मुखर्जी ने 'रंग दे बसंती' देखी थी. लेकिन प्रणब दा सिनेमा से इतना दूर रहते थे कि फिल्म का फर्स्ट हाफ पूरा होते ही थिएटर्स से ये कहते हुए निकल गए कि 'मेरा काम देश की रक्षा करना है, फिल्मों को सेंसर सर्टिफिकेट देना नहीं.' द टेलेग्राफ की एक पुरानी रिपोर्ट के अनुसार, एयर चीफ मार्शल एस. पी. त्यागी ने भी फिल्म देखने के बाद कहा था, 'हमारा काम फिल्में सेंसर करना नहीं है.'
'रंग दे बसंती' एक पॉलिटिकली चार्ज्ड फिल्म थी. RDB इफेक्ट पढ़कर ही आपको पता चल गया होगा कि ये फिल्म राजनीति में भी 'खलबली' मचाने का पूरा दम रखती थी. मगर फिर भी सरकार ने इसके रास्ते में कोई रुकावट नहीं पैदा की. फिल्म से केवल 20 सेकंड का एक सीन काटा गया था, जिसमें निहंग सिखों को बैन हो चुकी घोड़ों की एक रेस में हिस्सा लेते दिखाया गया था.