
Dvand- The Internal Conflict Review: देश मुख्यता दो हिस्सों में बंटा हुआ है. एक हिस्सा है शहरी इलाका, जिसे अर्बन एरिया कहते हैं. दूसरा हिस्सा है रूरल यानी ग्रामीण क्षेत्र. दोनों की अपनी-अपनी समस्याएं और जरूरतें हैं. इन्हीं में से एक मनोरंजन के साधन को लेकर भी है. मेट्रो में घूमने वाले शहरी लोगों की दुनिया मल्टीप्लेक्स के इर्द-गिर्द घूमी है, जबकि ग्रामीणों के लिए मनोरंजन के साधन कुछ और होते हैं. इश्तियाक खान की फिल्म 'द्वंद द इंटरनल कॉन्फ्लिक्ट' गांव की कहानी के साथ ही ग्रामीण महिलाओं की स्थिति और अन्य सामाजिक मुद्दों को दिखाते हुए सिस्टम पर चोट करती है. हालांकि ये फिल्म उन्हीं लोगों को ज्यादा पसंद आएगी जो सामाजिक मुद्दों और सीरियस टाइप की फिल्मों में दिलचस्पी रखते हैं. इसलिए जो लोग रोमांच और सस्पेंस जैसी फिल्मों के शौकीन हैं, उन्हें ये बोरिंग लग सकती है.
कहानी
फिल्म की कहानी शुरू होती है गांव में 'ओमकारा' देखते हुए भोला (इश्तियाक खान), भैया जी (विश्वनाथ चटर्जी) और उसके दोस्तों से. जो 'ओमकारा' मूवी में इतना घुस चुके हैं कि किसी में ' लंगड़ा त्यागी' तो किसी में 'ओमकारा' की आत्मा प्रवेश कर चुकी है. एक्टिंग इतना जोर मारती है तो फैसला होता है शेक्सपियर के प्रसिद्ध नोवल 'ओथेलो' पर नाटक मंचन का. अब इसे सही रूप देने के लिए होता है निर्देशक के नाम पर मंथन. इसमें नाम सामने आता है 'गुरुजी' (संजय मिश्रा) का, जिनके घर में बेटी की फीस भरने के लिए पैसे नहीं है. फोन आते ही गुरुजी बस पकड़कर निकल पड़ते हैं गांव की ओर.
गांव में उनका जोरदार स्वागत होता है, लेकिन दिक्कत आती है कि महिलाओं का किरदार कौन करेगा. इसमें रजिया (टीना भाटिया) का नाम सामने आता है. लेकिन उसका शौहर सुलेमान उसे घर से बाहर नहीं जाने देता है. कहने-सुनने पर सुलेमान रजिया को नाटक में काम करने की सहमति तो दे देता है लेकिन कुछ शर्तों के साथ जैसे- कोई भी रजिया से चार कदम दूर रहेगा और वह हमेशा पर्दे में रहेगी. खैर गुरुजी अपनी सूझबूझ से सुलेमान से ही सारी शर्तें हटवाकर रजिया के साथ ही बाकी टीम को नाटक के लिए तैयार करते हैं. अब दूसरी समस्या नाटक के मुख्य किरदार के चयन के बाद शुरू होती है. नाटक के मुख्य किरदार ओथेलो के लिए चंदन (विक्रम कोचर) को चुना जाता है तो फिर होती है भोला की साजिशों की शुरुआत. अब वह चाहता है कि किसी भी तरह यह नाटक न हो पाए लेकिन नाटक तो जरूर होगा. और नाटक होकर रहता है. भले ही टार्च, ट्रैक्टर और जीप की लाइट में हुआ हो.
सामाजिक मुद्दों पर डाली रोशनी
इश्तियाक खान ने अपनी फिल्म के जरिए गांव में महिलाओं की स्थिति के साथ ही ऊंच-नीच के भेदभाव पर भी रोशनी डाली है. रजिया और भोला की पत्नी (इप्शिता चक्रबोर्ती) के किरदारों में गांव क्या शहर की महिलाओं की झलक भी दिखती है, जो घर या पर्दे में कैद रहती हैं. जो घरेलु हिंसा को अपनी नीयत मान लेती है और चुपचाप पति या शौहर से पूछकर अपने कपड़े भी नहीं ले सकती हैं. मूवी का कॉन्सेप्ट यूनिक है. ये फिल्म हंसाती भी है लेकिन कुछ जगह पर बोझिल सी भी लगती है. हालांकि इंटरवल के बाद मूवी ज्यादा रोमांचक हो जाती है.
संजय मिश्रा और अन्य किरदारों ने अभिनय से जीता दिल
अपने अभिनय के लिए प्रसिद्ध संजय मिश्रा ने इस फिल्म में भी अपनी छाप छोड़ी है. इश्तियाक खान ने अच्छी कहानी लिखी. उसे बखूबी डायरेक्ट किया और किरदार में भी कोई कसर नहीं छोड़ी. हालांकि कहानी कहीं-कहीं पर स्लो और बोरिंग भी लगती है. कई सीन्स बोरिंग और लंबे खींचे हुए लगतेहैं. अन्य किरदारों की बात करें तो ओमकारा से प्रभावित भैया जी यानी विश्वनाथ चटर्जी की गर्दन शुरू से ही टेढ़ी रहती है. 'पूर्वांचल' में 'कट्टा' और 'आश्रम' में 'साधु शर्मा' का किरदार निभा चुके विक्रम कोचर ने चंदन के कैरेक्टर के साथ न्याय किया है. देखा जाए तो अगर आप सामजिक बुराइयों को दिखाती एक गंभीर 'कम' कॉमेडी फिल्म देखना चाहते हैं तो 'द्वंद द इंटरनल कॉन्फ्लिक्ट' आपको पसंद आएगी.