
जब जंग लड़ी जाती है तो उसके कई कारण होते हैं, कई बार लड़ने वाले दोनों पक्ष इसलिए आमने-सामने होते हैं क्योंकि एक पक्ष खुद को ताकतवर घोषित करना चाहता है और दूसरा पक्ष अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा होता है. जब बात अस्तित्व के लिए लड़ने के लिए आती है, तो आप अपनी ओर से सबकुछ झोंक देना चाहते हैं.
अस्तित्व से जुड़ी ही ऐसी ही एक कहानी अब फिल्मी पर्दे पर सामने आई है, साउथ के सुपरस्टार धनुष की फिल्म कर्णन (Karnan) जो थियेटर्स में पिछले महीने रिलीज़ हुई थी, लेकिन पाबंदियों के कारण ज्यादा सुर्खियां नहीं बटोर सकी थी अब ये फिल्म ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आ गई है. ऐसे में फिल्मी दुनिया में इसकी खास चर्चा है.
कर्णन की कहानी...
हिन्दू माइथोलॉजी, गांव के संघर्ष, हिंसा के किस्सों से भरपूर फिल्म कर्णन यूं तो एक असली कहानी से प्रेरित बताई जा रही है. तमिलनाडु में 90 के दशक में एक गांव में बवाल हुआ था, जहां बड़ी संख्या में पुलिसवालों ने गांववालों पर हमला किया था. अप्रैल में जब ये फिल्म आई, तो राज्य में चल रहे विधानसभा चुनाव में भी इसकी चर्चा हुई थी.
फिल्म की कहानी की शुरुआत ही बेहद सस्पेंस के साथ शुरू होती है. तमिलनाडु के एक बेहद अंदरूनी गांव के पास सड़क पर एक बच्ची लेटी हुई है, उसके मुंह से कुछ निकल रहा है और वो अपनी अंतिम सांसें गिन रही है, देखते ही देखते वो अपना दम तोड़ देती है. कर्णन, दो गांवों के बीच का एक जातीय संघर्ष है, जहां एक निचली जाति के गांव को बेसिक सुविधाओं से दूर रखा गया है.
मसलन गांव के पास बस नहीं रुकती है, ऐसे में दूसरे गांव के बस स्टैंड पर जाना पड़ता है. लेकिन उसके कारण हमेशा दोनों गांवों में तकरार होती है. तमाम रंजिशों से इतर गांववाले अपने में मस्त हैं, एक बिना सिर वाले देवता की पूजा करते हैं, अपनी कुछ मान्यताएं भी हैं. इनमें से एक कर्णन (धनुष) जो गांव को छोटी-छोटी मुसीबतों से बचाता है और कई मुश्किलों को पार करते हुए गांव का हीरो बन जाता है और अंत में उनका अधिकार दिलवाता है.
अगर कहानी को ओवरऑल नज़रिए से देखेंगे तो आपको एक सिंपल सी स्टोरी दिखाई भी पड़ सकती है, जहां गांव का एक हीरो है, जो तमाम मुश्किलों के बीच से गांव को बाहर निकालता है, उसे एक लड़की से प्यार भी हो जाता है. लेकिन कर्णन की बात कुछ अलग भी है.
कर्णन को क्या खास बनाता है...
एक सच्ची घटना पर आधारित होने के दावे के साथ ये फिल्म 90 के दशक के कई पहलुओं को भी छूती है. जहां एक गरीब गांव को कुछ हद तक ऊंचे गांव ने प्रताड़ित किया हुआ है, गांव में कोई पढ़ा-लिखा नहीं है, लेकिन सरकारी नौकरी का भी संघर्ष है. गांव अपने विधि-विधान से चल रहे हैं, अपने ही किसी एक देवता की भी पूजा कर रहे हैं.
कहानी के रूप में समाज के हर पहलू को जिस तरह से जोड़ा गया है, कर्णन की ये खासियत है. अभी ये सिर्फ कहानी के तौर पर है, अगर टेक्निकल तरीके से जाएं तो शुरू से लेकर अंत तक पूरी फिल्म में सिनेमेटोग्राफी पर ज़बरदस्त काम हुआ है. जिसका पूरा सहयोग कैमरावर्क ने दिया है, जो आपको पर्दे पर बांधी रखती है.
अदाकारी के लेवल पर धनुष खुद इतना बेहतरीन रवैया अपनाते हैं कि आपकी नज़र उनपर बंधी रहेगी. लेकिन उनके साथ जितने भी सहयोगी किरदार हैं, जिनका अपना-अपना एक लिमिटेड रोल है, उन सभी ने काफी बेहतरीन काम किया है. खासकर योगी बाबू (Vadamalaiyaan) और लाल (Yeman) ने, जिन्हें शायद धनुष के बाद सबसे अच्छा स्क्रीन टाइम मिला है. इस फिल्म को मारी सेवराज ने लिखा और डायरेक्ट किया है.
फिल्म में सबसे खास जानवरों का संदेश...
फिल्म आपको अदाकारी, कहानी और सामाजिक संदेश के मामले में बांधकर रखेगी और पसंद भी आ सकती है. लेकिन फिल्म में एक चीज़ जो कुछ ज़्यादा गौर करके देखने वाली है, वो है फिल्म में दिखाए गए जानवर और उनके पीछे छिपा हुआ संदेश. पूरी फिल्म में बार-बार गधा, बाज, हाथी, घोड़ा और कुत्ते दिखाए गए हैं, जो कहानी के साथ-साथ जुड़े हुए हैं और उसके धागे को पिरोते जाते हैं.
गधे के मालिक ने उसके पैरों को बांधा हुआ है, लेकिन गांव पर हो रहे अत्याचारों से तंग आकर कर्णन उसे खोल देता है, उसी के साथ गांव पर जारी अत्याचारों का बंधन टूटता है. हाथी पर चढ़कर खुद को ऊंचा दिखाने की कोशिश दूसरे गांव को नागवार लगती है. घोड़ा जो एक बच्चे का प्रिय है, वह अंत में खेवनहार बनता है.
इस सबसे अलग एक मुखौटा भी है, उसके लिए फिल्म ज़रूर देखें. ये फिल्म आपको अमेज़न प्राइम वीडियो पर मिलेगी. फिल्म तमिल में है, लेकिन अंग्रेजी सबटाइटल्स आपका साध देंगे.