
जनवरी के महीने में अमूमन बॉलीवुड इंडस्ट्री की ओर से दर्शकों के लिए पेट्रियोटिज्म बेस्ड फिल्मों की सौगात होती है. इस महीने में शाहरुख खान की पठान, राजकुमार संतोषी की गांधी-गोडसे एक युद्ध जैसी फिल्में थिएटर पर रिलीज को तैयार हैं. वहीं सिद्धार्थ मल्होत्रा की इसी जॉनर में बनी फिल्म मिशन मजनू भी ओटीटी पर रिलीज हो रही है. सिद्धार्थ की यह फिल्म आपके अंदर के देशभक्त को कितना झकझोर पाती है, ये जानने के लिए पढ़ें ये रिव्यू..
कहानी
पाकिस्तान के रावलपिंडी में भारतीय जासूस अमनदीप अजितपाल सिंह(सिद्धार्थ मल्होत्रा) वहां तारिक अली नाम से दर्जी बनकर अपने मिशन में है. पंजाब के अमनदीप के पिता पर देशद्रोही का दाग लगा है, जिसकी सजा वो और उसका परिवार भुगत रहा है. ऐसे में अमनदीप अपने परिवार से दाग हटाने के मकसद से अपनी भारत के लिए कुछ भी करने को तैयार है. अमनदीप को यह मौका रॉ के सीनियर काव(परमित शेट्ठी) देते हैं. अमनदीप को मिशन मजनू के तहत पाकिस्तान में रहकर वहां की न्यूक्लियर स्ट्रैटेजी का पता लगाकर उससे जुड़ी इंफोर्मेशन भारत को देना है. हालांकि इसी बीच अमनदीप नसरीन(रश्मिका मंदाना) के प्यार में पड़कर उससे निकाह कर लेता है. पाकिस्तान में दोहरी जिंदगी जी रहे अमनदीप अपने मिशन को लेकर भी दृढ़ है और इसमें उसकी मुलाकात दो और इंडियन रॉ एजेंट से होती है. क्या अमनदीप अपने मिशन मजनू में कामयाब हो पाता है? न्यूक्लियर टेस्ट को रोकने में उनका क्या रोल है? इन सब सवालों को जानने के लिए फिल्म देखें.
डायरेक्शन
अपने डायरेक्शन के जरिए शांतनु बागची एक ऐसे अनसंग हीरो की कहानी को पेश रहे हैं, जिन्हें कभी उनका ड्यू नहीं मिला है. सच्ची घटनाओं के आधार पर बुनी गई इस कहानी पर रोमांच की कमी खलती है. दरअसल इंडियन ऐजेंट्स पर आज से पहले भी कई कहानियां बनती रही हैं, जिन्हें दर्शकों द्वारा काफी सराहा भी गया है.बागची की मिशन मजनू भी इसी प्रयास का हिस्सा है, थ्रिलर की कमी देखकर निराशा होती है. जासूसों पर आधारित फिल्म में थ्रिल्स हमेशा अहम कड़ी रही है, जबतक फिल्म देखते हुए आपके अंदर उत्सुकता न जगे, तो फिल्म से आपका कनेक्शन टूटता जाता है. ओवरऑल फिल्म की कहानी पुरानी सी लगती है. फिल्म का मजबूत पक्ष एक्टर्स की दमदार परफॉर्मेंस और इसका एक्शन है. भारत-पाकिस्तान के बीच की नोंक-झोंक को जबरदस्ती भुनाने की कोशिश भी साफ नजर आती है. फिल्म देखते वक्त आप इमोशनली कनेक्ट नहीं हो पाते हैं लेकिन हां, आखिर के आधे घंटे फिल्म आपको बांधे रखती है.
टेक्निकल ऐंड म्यूजिक
सिनेमैटिकली फिल्म खूबसूरत लगती है. 1970 के बैकड्रॉप पर तैयार इस फिल्म से आप कन्विंस होते हैं. इसके एक्शन सीन्स रोमांचित करते हैं. फिल्म में सिद्धार्थ को ताबड़तोड़ एक्शन करता देखना उनके फैंस के लिए एक ट्रीट होगा. एडिटिंग टेबल पर फर्स्ट हाफ पर फिल्म को क्रिस्प किया जा सकता था. फिल्म में म्यूजिक आपको इमोशनली कनेक्ट करती है. खासकर आखिर के सीन्स में सोनू निगम द्वारा गाया गया पेट्रियॉटिक सॉन्ग सुनकर आपके अंदर का देशभक्त थोड़ा इमोशनल होगा. बैकड्रॉप म्यूजिक का इस्तेमाल सही मात्रा में किया गया है. एक्शन हो या सस्पेंस, म्यूजिक उसे जस्टिफाई करता है.
एक्टिंग
कहानी भले कमजोर हो लेकिन इस फिल्म की कास्टिंग परफेक्ट रही है. खासकर सिद्धार्थ मल्होत्रा का काम बेहतरीन है. उन्होंने एक्शन के साथ-साथ इमोशन को भी परफेक्टली अपने किरदार के साथ ब्लेंड किया है. अंधी लड़की के किरदार में रश्मिका मंदाना ने भी अपना काम सहजता से किया है. शारिब हाशमी और कुमुद मिश्रा की जोड़ी भी इस फिल्म का मजबूत पक्ष है. उनकी नैचुरल एक्टिंग कहानी को और सहज करती है. परमित शेट्ठी के हिस्से में कम समय आया है लेकिन वो अपना काम इमानदारी से करते नजर आए हैं.
क्यों देखें
देशभक्ति पर एक सिद्धार्थ की यह दूसरी फिल्म है. सिद्धार्थ की परफॉर्मेंस आपको निराश नहीं करेगी. फिल्म को एक मौका जरूर दिया जा सकता है.