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एक भीड़-भड़क्के वाले चौराहे पर खड़े सलमान खान की आंखों में आंसू भरे हैं. सोनू निगम अपनी आवाज़ में उनका दर्द बयान कर रहे हैं: "सौ दर्द हैं सौ राहतें सब मिला दिलनशीं एक तू ही नहीं...
उस एक जगह पर सलमान की किस्मत के सिवा सब कुछ चमकीला दिखाई देता है. उसके आंसुओं में वो रोशनी दिख रही होती है जिसे उस चौराहे को बिजली के बल्बों से चमकती जन्नत सरीखा बनाया होता है. ये जगह है टाइम्स स्क्वायर. न्यू यॉर्क का सबसे हैपेनिंग स्पॉट. जहां सब कुछ भव्य है. बड़े-बड़े ब्रांड्स के डिजिटल पोस्टर हैं, बड़े-बड़े बल्ब हैं, नियॉन लाइटें हैं, दुनिया के सबसे भव्य और महंगे नाटक दिखाने वाले थियेटर भी हैं. ज़ाहिर है कि ऐसी जगह पर जम के भीड़ भी होगी. लेकिन अब से कुछ 5 दशक पहले, ये जगह ऐसी नहीं थी. भीड़ तब भी थी, लेकिन उस भीड़ की तबीयत बहुत अलग थी. 70 का दशक शुरू होते-होते न्यू यॉर्क के टाइम्स स्क्वायर पर बस एक ही चीज़ बिकती दिख रही थी - सेक्स. और चूंकि सब कुछ इसी के इर्द-गिर्द घूमता दिख रहा था, इसलिये यहां अपराध भी उतने ही हक़ से मौजूदगी दिखाने लगा. 70 के दशक से 80 तक की एक झकझोर देने वाली कहानी मिलती है 3 एपिसोड की लिमिटेड सीरीज़ 'क्राइम सीन: द टाइम्स स्क्वायर किलर' में.
ये सीरीज़ नेटफ़्लिक्स पर मौजूद है और 'क्राइम सीन' नाम की सीरीज़ का दूसरा पार्ट है. पहले हिस्से में एलिसा लैम नाम की चीनी-कनाडाई टूरिस्ट के लॉस एंजेल्स के सेसिल होटल से गायब होने और फिर उसकी लाश मिलने की कहानी दिखायी गयी थी. (इन दोनों कहानियों में, आपस में कोई कनेक्शन नहीं है. बगैर पहला सीज़न देखे, दूसरा सीज़न देखा जा सकता है.)
एक होटल के एक कमरे से धुआं निकलता दिखायी देता है. आग बुझाने वाले लोग आते हैं, पुलिस पहुंचती है. और अंदर मिलती हैं दो लाशें. मरने वाली दो महिलाएं हैं. दोनों के सर काट दिये गए हैं. दोनों महिलाओं के हाथ भी उनके शरीर से अलग कर दिए गए थे और वो भी कमरे में मौजूद नहीं थे. सर और हाथों की ग़ैर-मौजूदगी के चलते इन अधजली लाशों की पहचान की जानी बेहद मुश्किल थी. ये वो समय था जब डीएनए टेस्टिंग अस्तित्व में ही नहीं आयी थी. इस केस के कुछ दिनों बाद एक और होटल से ऐसी ही आग की ख़बर आयी. एक बार फिर वहां एक महिला की लाश मिली. इस बार उसकी पहचान की जा सकी. वो महिला एक सेक्स वर्कर थी. एक ही तरह के दो अपराध, मारने का तरीका एक जैसा, विक्टिम भी एक ही जैसे. पुलिसवालों को मालूम चल चुका था कि वो एक सीरियल किलर की तलाश कर रहे थे.
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मोटे तौर पर कहें तो 'क्राइम सीन: द टाइम्स स्क्वायर किलर' में इस सीरियल किलर की तलाश और उसे पकड़ने की कहानी दिखायी गयी है. मगर असल में इसमें और भी बहुत कुछ निहित है. डॉक्यू-सीरीज़ और असल आपराधिक घटनाओं पर फ़िल्म बनाने के लिये जाने जाने वाले डायरेक्टर जो बर्लिंगर ने एक बार फिर गहरी छाप छोड़ने वाला काम किया है. उन्होंने 60 के दशक के पूर्वार्ध और 70 के दशक का टाइम्स स्क्वायर हमारे सामने ज़िन्दा करके रख दिया है. उस केस के पूरे घटनाक्रम को सामने रखने में इसने बहुत मदद की और आप उस समय और जगह से सालों और मीलों दूर होने के बावजूद ख़ुद को पूरी तरह से उस भीड़ के बीच पाते हैं. जो बर्लिंगर की बनायी 1996 की डॉक्युमेंट्री फ़िल्म 'पैराडाइस लॉस्ट' की वजह से तीन सज़ायाफ़्ता लड़कों को आर्थिक और कानूनी मदद मिली और 2012 में वो बरी कर दिए गए. उन्हीं बर्लिंगर ने इस फ़िल्म में भी कई लेयर पर काम किया है और महज़ अपराध और अपराधी पर केंद्रित न रहकर, उसकी वजह और उन सभी बातों के बारे में बात की है जो उस अपराध में सहायक थे. और इसी क्रम में सबसे आगे नाम आता है टाइम्स स्क्वायर का. वो टाइम्स स्क्वायर जो उन दिनों पोर्न फ़िल्मों, अश्लील साहित्य, ग़ैर-कानूनी और अश्लील (कथित) मनोरंजन का गढ़ बना हुआ था.
जो बर्लिंगर ने उस दौर के पत्रकारों, पुलिसवालों, सेक्स वर्करों (जिनमें से एक का उस सीरियल किलर से सामना भी हुआ था और वो उसके हाथों मरने से बच निकली थीं) और तमाम स्टेकहोल्डरों के माध्यम से उस समय की तस्वीर बनाते हैं. इस चीज़ को जिस तरह से पुरानी फ़ुटेज और बहुत सारी एडिटिंग के ज़रिये दिखाया गया है, वो आपको पूरी तरह से उसी समय में ले जाता है और एक मिनट के लिये भी कहानी से, उस समय से अलग नहीं होने देता.
तीन हिस्सों में बंटी इस कहानी में उस दौर के अमरीका और उसकी अभी दिख रही भव्यता के पीछे छिपी कालिख से पुती कहानियों के बारे में मालूम पड़ता है. तकनीकी रूप से पिछड़े समय की पुलिस की तफ़तीश भी दिखती है. आप हैरान रह जाते हैं कि कैसे विक्टिम की पहचान करवाने के लिये पुलिस को अपराध की जगह पर मिलने वाले कपड़े एक पुतले को पहनाने पड़े और उसकी तस्वीर अख़बार में छपवाकर लोगों से पूछना पड़ा कि क्या उन्हें ऐसे कपड़े पहनी किसी महिला की जानकारी थी. आपको ये भी मालूम पड़ता है कि आज के 'woke' हो चुके ज़माने के कुछ पन्ने पलटते ही हम बजबजाती दुनिया में पहुंच जाते हैं जहां सेक्स वर्कर्स का चहुंओर शोषण हो रहा था और वहां मौजूद कोई भी पुरुष या पूरा सिस्टम, उन्हें इंसान समझने की पहल करने के बारे में भी सोच नहीं रहा था. ऐसे माहौल में, जहां अपराध की सूचना मिलने पर महिला सेक्स वर्कर को पुलिस उठाकर ले जाती थी लेकिन उनसे कमाई करने वाले उनके दलालों को छुआ भी नहीं जाता था, कई महिलाएं उसी सीरियल किलर के बारे में पुलिस को कोई जानकारी ही नहीं देती हैं और इसी का फ़ायदा उठाते हुए वो सालों-साल एक के बाद एक अपराध करता जाता है. आख़िरी एपिसोड में मालूम पड़ता है कि असल में उसे जितन क़त्लों के लिये सज़ा मिली थी, उसने उससे कहीं ज़्यादा क़त्ल किये थे. उसने लगभग 100 के आस-पास महिलाओं की हत्या की थी.
इसके इतर जो एक बात दिखती है, और जिसे हाईलाइट करने के लिये इस फ़िल्म को ख़ूब शाबाशी मिलनी चाहिये, वो है रिचर्ड कॉटिन्घम की कहानी. उसकी कहानी अपराध की कहानियों के साथ ही चलती रहती है और एक-एक करके उसकी परतें खुलती जाती हैं. रिचर्ड अपनी पत्नी जैनेट और दो बच्चों के साथ रहता था. वो न्यू यॉर्क में ब्ल्यू क्रॉस ब्ल्यू शील्ड असोसिएशन में कई इंजीनियरों के साथ बतौर कम्प्यूटर ऑपरेटर काम करता था. रिचर्ड कम्प्यूटर में समय के साथ छेड़खानी कर ख़ुद को ऑफ़िस में मौजूद दिखाता था जबकि असल में वो टाइम्स स्क्वायर में किसी का क़त्ल करने के लिये निकला होता था. वो अपने ही घर के एक कमरे में अपनी शिकार महिलाओं से छीनी चीज़ें ट्रॉफ़ी के तौर पर रखता था. उसी घर में, जिसमें उसका परिवार रहता था. उसके पकड़े जाने के बाद, वो ख़ुद को फंसाए जाने का दावा करता है और उसके पिता इस बात में पूरा विश्वास रखते हैं कि वो निर्दोष है. 1980 में गिरफ़्तार हुआ रिचर्ड पहली बार 2009 में अपने सभी अपराध एक पत्रकार के सामने क़ुबूल करता है. और यहां वो अपनी बाकी उन सभी हत्याओं के बारे में बताना शुरू करता है जिनके बारे में पुलिस को कोई आइडिया भी नहीं था. एक के बाद एक, कई कोल्ड-केसेज़ खुलते हैं और मालूम पड़ता है कि उन हत्याओं के पीछे भी रिचर्ड कॉटिन्घम का ही हाथ था. मालूम पड़ता है कि उसने 1967 से ये हत्याएं शुरू की थीं जो 1980 तक जारी रहीं. इस दौरान पुलिस ने कई मौकों पर उसे पकड़ा लेकिन छोटे-मोटे फ़ाइन देकर वो मुक्त हो गया. यहां तक कि दिसंबर 1979 में देर रात तीन बजे के आस-पास, जब उन दो महिलाओं के कटे हुए सिर वो अपने बैग में रखकर सड़क पर टहल रहा था, पुलिस ने उसे उस वक़्त भी रोका था. लेकिन उसने खाना खाने जाने की बात कही और आराम से निकल गया. और यहीं आप रुककर कहीं भी दिखने वाली भीड़, उसमें शामिल लोगों और अपने आस-पास मौजूद लोगों के बारे में सोचना चाहते हैं. (कम से कम मेरे लिये) सीरीज़ का ये हिस्सा सबसे ज़्यादा डरावना रहा.
नेटफ़्लिक्स पर 'ट्रू क्राइम' फ़िल्मों और लिमिटेड सीरीज़ का जखीरा है. और ये सीरीज़ उसमें सबसे नया और प्रभावी जोड़ है. 'द टेड बंडी टेप्स', 'जेफ़्री एप्स्टीन: फ़िल्थी रिच', 'मर्डर अमंग द मोर्मोंस' के ज़रिये एक के बाद एक चौंकाने वाली कहानियां लेकर आ चुके जो बर्लिंगर ने अपने ही सेट किये बार को और ऊंचा कर दिया है. अपराध की घटनाओं में दिलचस्पी रखने वालों और उसके इर्द-गिर्द के कई समीकरणों से दो-चार होने कि इच्छा रखने वालों को ये सीरीज़ पसंद आयेगी. हालांकि ऐसे कॉन्टेंट का पसंद आना, या इसे अच्छी सीरीज़ कहा जाना, एक अपराधी का शिकार बने तमाम लोगों के प्रति असंवेदनशीलता या असम्मान जैसा कुछ दिखाता है, क्यूंकि उनकी दुखद और डरावनी मौत ही इसका ईंधन-पानी है. यहां ऐसा कुछ भी करने की हमारी कोई मंशा नहीं है.