
पालने में झूलते एक बच्चे के मां-बाप ने उसका जो नाम रखा है, पता चलता है कि बीती रात मोहल्ले में चोरी करने आए एक चोर का भी वही नाम है. अब सवाल है कि बच्चे का ऐसा क्या ‘यूनीक’ नाम रखें? अगले सीन में एक आर्मी ऑफिसर, नए से रंगरूट से अपना नाम पूछता है, तो नया लड़का उसका सरनेम भूल जाता है. भारतीय सेना की गोरख रेजिमेंट का ये लड़का अपने अफसर का नाम बताता है- सैम बहादुर. वो नाम, जो भारत के सैन्य इतिहास में हमेशा-हमेशा अमर रहेगा.
यहां से आप एक सफर पर निकल पड़ते हैं, जिसका मैप डायरेक्टर मेघना गुलजार ने बड़े दिलचस्प अंदाज में बनाया है. बायोपिक एक व्यक्ति के जीवन की कहानी ही तो होती है. ‘सैम बहादुर’ भी ऐसी ही कहानी है, लेकिन अनोखा यह है कि सैम की कहानी एक देश की भी कहानी है. आजादी की पहली सांस लेने वाले एक देश की कहानी, जिसे अभी अपनी महत्वाकांक्षाएं पूरी ही नहीं करनी, बल्कि तय भी करनी हैं.
डायरेक्शन और स्क्रीनप्ले का कमाल
इस कहानी को कहने में अपने रिस्क भी थे… पुराने वक्त की कहानी है, पॉलिटिक्स का भी टच है. ऊपर से देशभक्ति की ललकार और पॉलिटिकल स्वभाव वाला सिनेमा वैसे भी कुछ समय से उफान पर है. तो कहीं ये कहानी कान न काटने लगे!
डायरेक्टर मेघना गुलजार ने इन सभी खतरों को उठाते हुए एक ऐसी फिल्म तैयार की है जो, भावनाओं के विस्फोट के दम पर दर्शक खोजने चलीं राजनीतिक-देशभक्ति में तर-बायोपिक फिल्मों के बीच एक ताजा, नया सा झोंका लगती है. देश की आजादी से लेकर, पाकिस्तान के साथ जंग जीतकर बांग्लादेश के निर्माण में तक, भारत की कई बड़ी घटनाएं सैम के जीवन से होकर गुजरीं. मगर इन घटनाओं को दिखाने में मेघना तीखे सिनेमाई मसालों का इस्तेमाल नहीं करतीं. वो सैम की शख्सियत से ही रंग निकालकर इन घटनाओं को पेंट करती हैं. और 7 गोलियों से छिदा बदन लेकर लहुलूहान पड़ा जो शख्स कहे- ‘कुछ नहीं, एक खच्चर ने लात मार दी’; उसकी टक्कर का हीरोइज्म वाला मसाला सिनेमा के बाजार में भी कहां उपलब्ध है!
दर्दों से सहानुभूति रखने वाला ट्रीटमेंट
एक और चीज जो मेघना ने बहुत बेहतरीन की है, वो है घटनाओं को उनके बैलेंस पर टिकाए रखना, उन्हें अपने हीरो के पक्ष में न झुकाना. ‘सैम बहादुर’ में कई मौकों पर मानेकशॉ नेताओं के बीच हैं. लेकिन मेघना ये नहीं करतीं कि अपने सोल्जर को चमकाने के लिए वो नेताओं के किरदार भद्दे कर दें. न ही वो लड़ाई में दूसरी तरफ खड़े सैनिक को एक सख्त नेगेटिव अंदाज में दिखाती हैं.
फिल्म में हमें दिखता है कि कैसे एक भारत के फौजी अब दो देशों की सेनाओं में बंट चुके हैं. मेघना इस इमोशन को मेंटेन रखती हैं कि कल तक बैरक में साथ बैठकर किस्से सुना रहे दो साथी जब सरहद की दो तरफ खड़े मिलेंगे तो उनका दिल क्या कह रहा होगा. लेकिन फिर भी उन्हें चट्टान की तरह डटे रहना होगा. न कि वो एक दूसरे को देखते ही गालियां निकालने लगेंगे. इस तरह के सस्ते और नॉन-क्रिएटिव पैंतरों से बच निकलना ‘सैम बहादुर’ की सबसे बड़ी कामयाबी है. अच्छी सिनेमेटोग्राफी, उस दौर के हिसाब से सटीक लगता प्रोडक्शन डिज़ाइन, 60-70 साल पुरानी कहानी में दिखती एक ऑथेंटिक फीलिंग और अच्छी लाइटिंग जैसी टेक्निकल चीजें फ़िल्म में मजबूत हैं.
मेघना, देश की कहानी से सैम मानेकशॉ की कहानी नहीं निकालतीं. वो सैम का किरदार बुनने वाली कहानियों के धागे उधेड़ना शुरू करती हैं. और आपको नजर आता है कि इस कहानी में देश और देशभक्ति की कितनी गहन बुनाई है. मेघना की फिल्म भारत के पहले फील्ड मार्शल, देश के सबसे कद्दावर सोल्जर्स में से एक सैम मानेकशॉ को उनकी पर्सनालिटी के रंगों में ही दिखाती है. ये उन्हें आज सोशल मीडिया पर चल रहे हाइपर-देशभक्ति के लेंस से नहीं दिखाती. सैम की शख्सियत का नेचुरल चार्म, उनकी शानदार हाजिरजवाबी, आंख के एकदम हल्के इशारे से बात कह देना और रौब-रुतबा फिल्म को चलाने वाला सबसे बड़ा ईंधन है.
दमदार एक्टिंग-परफॉर्मेंस
सैम के किरदार को उसके सच्चे रंगों में उतारने का कमाल जिस तरह विक्की कौशल ने किया है, वो आपको स्क्रीन से चिपकाए रखता है. विक्की कौशल अब अपने टैलेंट को तराशने के उस लेवल तक पहुंच चुके हैं, जहां शायद ही कभी उनसे कोई गलती होती नजर आए. ‘सैम मानेकशॉ’ भी उनके इसी टैलेंट का नया शाहकार है. फिल्म में, कहानी में, स्क्रीनप्ले में गलतियां नजर आ सकती हैं, मगर विक्की के काम में चूक की कोई गुंजाइश नहीं है.
परफॉरमेंस के डिपार्टमेंट में विक्की के लीड रोल से लेकर बाकी कास्ट का काम भी एक मजबूत पक्ष है. सिलू मानेकशॉ के रोल में सान्या मल्होत्रा भी अपने काम के दमदार लेवल को बनाए रखती हैं. इंदिरा गांधी बनीं फातिमा सना शेख हों, या याह्या खान बने मोहम्मद जीशान अयूब. जवाहरलाल नेहरू के रोल में नीरज कबी हों या सरदार पटेल का किरदार कर रहे गोविंद नामदेव. सबका काम फिल्म को ऊपर उठाता है. हालांकि, कुछेक किरदारों का प्रोस्थेटिक मेकअप थोड़ा ध्यान बंटाने वाला है.
‘सैम बहादुर’ ढाई घंटे लंबी फिल्म है, जो ज्यादातर समय आपको नहीं महसूस होता. फर्स्ट हाफ में फिल्म थोड़ी ज्यादा तेज चलती है लेकिन शायद इसलिए कि उसमें सैम की लाइफ के कई हिस्से तेजी से कवर होते हैं. इंटरवल के बाद फिल्म जैसे ही थोड़ी स्लो होती लगती है वहां ‘बढ़ते चलो’ गाना आ जाता है. भारतीय सेना की अलग-अलग रेजिमेंट्स के युद्धघोष इस गाने में सुनाई देते हैं और रोंगटे खड़े कर देते हैं. बॉलीवुड के लेजेंड गीतकार गुलजार ने इस बार गीत ऐसा लिखा है कि पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं.
हालांकि, अंत में जाकर फिल्म का मोमेंटम थोड़ा धीमा जरूर पड़ जाता है. क्लाइमेक्स भी थोड़ा और एनर्जी भरा हो सकता था. फिल्म में एक छोटी सी कमी यह भी है कि सैम के सेना से पहले वाले दिनों को थोड़ा और दिखाया जा सकता था. उनके लड़कपन, कॉलेज के दिनों से अगर उनके मजेदार-लाजवाब अंदाज की थोड़ी झलक फिल्म में होती तो और मजा आता. मगर अभी भी ‘सैम बहादुर’ टिकट पर आपका खर्च करवाने का दम रखती है. मेघना गुलजार और विक्की कौशल का कॉम्बो आपको ढाई घंटे में एक हीरो की कहानी बड़े मजेदार अंदाज में दिखाते हैं.