
आए दिन अखबारों, न्यूज चैनलों में ऐसे कई अनोखी घटनाएं हम पढ़ते या सुनते हैं, जिनपर लगता है कि फिल्म बनाई जा सकती है. पंकज त्रिपाठी की शेरदिल द पीलीभीत सागा की कहानी भी उसी सोच की उपज है. 2017 के दौरान हुई खबर आई कि पीलीभीत के कुछ लोगों ने अपने घर के बुजुर्गों को जंगल भेजना शुरू कर दिया है ताकि वे बाघ के शिकार बन जाएं और परिवार सरकारी मुआवजे का लाभ उठा सके. इसी से प्रेरित है पंकज त्रिपाठी की शेरदिल.
कहानी
शेरदिल कहानी है झुंडाव गांव के सरपंच गंगाराम की, जो गांव में जंगली जानवरों द्वारा फसल नष्ट करने से परेशान हो चुका है. फसलों की बर्बादी की वजह से भुखमरी और गरीबी बढ़ रही है. सरपंच सरकारी ऑफिस के चक्कर काटकर थक चुका है, उसे आस है ऐसी स्कीम की, जिसका फायदा वो अपने गांव वासियों को दे सके. रोजाना सरकारी ऑफिस के सामने चप्पल घिसते गंगाराम की नजर एक नोटिस बोर्ड पर पड़ती है, जहां उसे पता चलता है कि अगर टाइगर रिजर्व एरिया में कोई व्यक्ति टाइगर के अटैक से मारा जाता है, तो उसके परिवार को दस लाख का मुआवजा मिलेगा. बस गंगाराम अपने गांववालों के लिए फैसला करता है कि वो जंगल जाकर बाघ का शिकार बनेगा, ताकि उसकी मौत के बाद मुआवजा गांव वालों को मिले. घने जंगल के बीच खुद की मौत के लिए बाघ को तलाशते गंगाराम की मुलाकात ऐसे शिकारी जिम अहमद (नीरज काबी) से होती है, जो बाघ को मारकर पैसे कमाना चाहता है. एक बाघ से मरने को तैयार है और दूसरा बाघ को मारने को. क्या गंगाराम इसमें जान गंवाता है? और क्या जिम बाघ का शिकार कर पाता है? यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी.
डायरेक्शन
सृजित मुखर्जी के डायरेक्शन में बनी यह फिल्म कही मायनों में उलझी नजर आती है. राइटिंग पार्ट बहुत ही ढीला होने की वजह से फिल्म का महत्वपूर्ण मैसेज सही तरीके से नहीं पहुंच पाता. फर्स्ट हाफ हद से ज्यादा स्लो है. एक स्टोरीलाइन की तर्ज पर बनी फिल्म को जबरदस्ती लंबा खींचा गया है. इसे छोटा कर क्रिस्प बनाया जा सकता था. पंकज त्रिपाठी का जंगलों में घूमते हुए खुद से बात करना कई जगहों पर बोर करता है. कहीं-कहीं उनकी एक्टिंग ओवर भी लगी है. वहीं सेकेंड हाफ में नीरज काबी की एंट्री और पंकज के साथ उनकी डायलॉगबाजी रोमांच जगाती है. इस पूरी बातचीत के दौरान धर्म, गरीबी, मौजूदा पॉलिटिकल हालात और प्रकृति को लेकर एक अंडरकरंट मैसेज देने की कोशिश की गई है. फिल्म का मजबूत हिस्सा इसकी सिनेमैटोग्राफी है. तियाश सेन ने जंगल को बहुत ही बेहतरीन तरीके से कैप्चर किया है. फिल्म एक खूबसूरत फील देती है. एडिटिंग में प्रणयदास गुप्ता ने निराश किया है. फिल्म में बहुत कसावट की जरूरत थी. शांतनु मोईत्रा के म्यूजिक डिपार्टमेंट ने अपना काम उम्मीद से बेहतर किया है. चारो गाने आपको जीवन की सीख तो देते ही हैं साथ ही यह कानों में मिश्री की तरह घुलते लगते हैं.
एक्टिंग
पूरी फिल्म का भार पंकज त्रिपाठी के कंधों पर था. जिसका प्रेशर पंकज की एक्टिंग में साफ नजर आ रहा था. पंकज एक सशक्त अभिनेता हैं, बावजूद फर्स्ट हाफ में उनकी एक्टिंग निराश करती है. हालांकि सेकेंड हाफ में वो अपने अंदाज में वापस नजर आते हैं. नीरज काबी को जिम अहमद के रूप में देखना फ्रेश फील देता है. उन्होंने अपना पार्ट बखूबी निभाया है. सयानी गुप्ता एक उम्दा एक्ट्रेस हैं, लेकिन इस फिल्म में उनकी कास्टिंग मिस-फिट लगी है. फिल्म में उनका लहजा काफी बनावटी सा मालूम पड़ता है.
क्यों देखें
फिल्म एक अच्छी नीयत से बनाई गई है. अगर फिल्म में एंटरटेनमेंट या मैसेज ढूंढ रहे हैं, तो निराशा हाथ लग सकती है. पंकज त्रिपाठी के फैन फिल्म को एक मौका दे सकते हैं. हालांकि ट्रेलर देखकर जिस तरह के सस्पेंस व वाइल्ड एडवेंचर की कल्पना की गई थी, वो उसपर बिलकुल भी खरी नहीं उतरती है. फायदा या नुकसान से परे सोचकर फिल्म को वन टाइम वॉच का मौका दिया जा सकता है.