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बॉलीवुड स्टार्स की फीस से आधा बजट, सेक्स वर्कर की कहानी और 4 ऑस्कर... क्यों खास है 'अनोरा' की जीत?

'अनोरा' को ऑस्कर अवॉर्ड्स में 6 नॉमिनेशन मिले थे, जिसमें से 5 कैटेगरी में फिल्म को जीत हासिल हुई. इन 5 में से 4 अवॉर्ड फिल्ममेकर शॉन बेकर के नाम रहे. इस जीत से उन्होंने इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर्स के लिए एक बड़ा उदाहरण सेट कर दिया है. आइए बताते हैं कैसे...

इंडी फिल्ममेकर्स के लिए क्यों खास है 'अनोरा' की ऑस्कर जीत? इंडी फिल्ममेकर्स के लिए क्यों खास है 'अनोरा' की ऑस्कर जीत?
सुबोध मिश्रा
  • नई दिल्ली ,
  • 06 मार्च 2025,
  • अपडेटेड 10:30 AM IST

ऑस्कर्स 2025 में बेस्ट पिक्चर का अवॉर्ड जीतने वाली फिल्म 'अनोरा' आजकल इंटरनेशनल सिनेमा फैन्स की चर्चा का हॉट-टॉपिक है. 'अनोरा' को दुनिया भर में जो रिव्यू मिले वो अधिकतर पॉजिटिव कहे जा सकते हैं, लेकिन इस फिल्म को ऑस्कर्स के लिए मजबूत दावेदार नहीं माना जा रहा था. मगर 'अनोरा' ने जिस तरह ऑस्कर में अपना नाम बुलंद किया वो एक कमाल की बात रही. 

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'अनोरा' को ऑस्कर अवॉर्ड्स में 6 नॉमिनेशन मिले थे, जिसमें से 5 कैटेगरी में फिल्म को जीत हासिल हुई. इन 5 में से एक अवॉर्ड फिल्म की एक्ट्रेस माइकी मैडिसन को 'बेस्ट एक्ट्रेस' कैटेगरी में मिला. जबकि बाकी 4 अकेले फिल्ममेकर शॉन बेकर के नाम रहे. शॉन ने बेस्ट पिक्चर, बेस्ट डायरेक्टर, बेस्ट ऑरिजिनल स्क्रीनप्ले और बेस्ट एडिटिंग कैटेगरी की ऑस्कर ट्रॉफी उठाकर दुनिया भर के इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर्स के लिए एक बड़ा उदाहरण सेट कर दिया है. आइए बताते हैं कैसे... 

'अनोरा' से एक सीन (क्रेडिट: सोशल मीडिया)

बॉलीवुड एक्टर्स की फीस से कम है 'अनोरा' का बजट 
'अनोरा' का बजट 6 मिलियन डॉलर है, जो भारतीय करंसी के हिसाब से लगभग 52 करोड़ रुपये है. बॉलीवुड से आने वाली रिपोर्ट्स की मानें तो कार्तिक आर्यन, फिल्ममेकर करण जौहर की फिल्म के लिए 50 करोड़ रुपये फीस चार्ज कर रहे हैं. कुछ महीने पहले फोर्ब्स ने सबसे ज्यादा फीस लेने वाले इंडियन एक्टर्स की एक लिस्ट जारी की थी जिसके अनुसार अक्षय कुमार की फीस, अलग-अलग प्रोजेक्ट्स के हिसाब से 60 करोड़ से 145 करोड़ तक रहती है. जबकि तीनों खान्स की फीस एक प्रोजेक्ट के लिए 100 करोड़ से ज्यादा ही रहती है. 

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इस लिहाज से तुलना करें तो फिल्ममेकर शॉन बेकर ने इन स्टार्स की फीस से आधे दाम में, 4 ऑस्कर अवॉर्ड्स जीतने वाली हॉलीवुड फिल्म बनाई है. बॉलीवुड में भी पिछले कुछ समय से ये बहस छिड़ी हुई है कि एक्टर्स की मुंहमांगी फीस देने से फिल्म के प्रोडक्शन का बजट गड़बड़ होता है और आखिरकर इसका नुकसान फिल्म के कंटेंट को झेलना पड़ता है. 

कैसे अलग होती हैं इंडी फिल्में?
इंडिपेंडेंट सिनेमा जिसे इंडी सिनेमा भी कहा जाता है, इन दिनों कई लेवल पर स्ट्रगल कर रहा है. सबसे पहला सवाल तो इन फिल्मों के सब्जेक्ट पर ही होता है. इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर्स ऐसे सब्जेक्ट चुनते हैं, जो मेनस्ट्रीम सिनेमा से बहुत हटकर होते हैं. 'अनोरा' एक सेक्स वर्कर और इरोटिक डांसर लड़की की कहानी है, जिसकी शादी रशिया के एक पावरफुल रईस के बेटे से हो जाती है. लड़की को लगता है कि ये शादी उसकी जिंदगी बदल देगी और उसकी लाइफ अब 'सिंड्रेला स्टोरी' की तरह बन जाएगी. लेकिन ये फिल्म जिस तरह 'सिंड्रेला स्टोरी' को रियल लाइफ हालातों में घुटता हुआ दिखाती है, वो बहुत इमोशनल और उदासी भरा है. 

'अनोरा' से एक सीन (क्रेडिट: सोशल मीडिया)

'अनोरा' के डायरेक्टर शॉन बेकर अपनी पिछली फिल्मों 'टैंजरीन', 'रेड रॉकेट' और 'द फ्लोरिडा प्रोजेक्ट' में भी सेक्स और सेक्स वर्क से जुड़ी नैतिकता को अपने सिनेमा के लेंस से खूब परखते रहे हैं. जाहिर सी बात है, इन कहानियों का स्वभाव ऐसा है कि किरदारों की लाइफ दिखाने के लिए सेक्स के एक्ट से जुड़े सीन्स अनिवार्य हो जाते हैं. और अक्सर इस वजह से भी दर्शक इंडी सिनेमा को एक हीन दृष्टि से देखते हैं. हालांकि, दूसरी तरफ मेनस्ट्रीम फिल्मों में सेक्स-सीन्स मसाला भरने और दर्शकों को रोमांच देकर थिएटर तक खींचने के लिए इस्तेमाल होते हैं. मगर चमचमाती सिनेमाई भाषा होने की वजह से दर्शक इन्हें ज्यादा सहजता से पचा ले जाते हैं.  

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'अनोरा' की तरह इंडिपेंडेंट फिल्में एक रियलिस्ट यानी यथार्थवादी संसार पर बेस्ड होती हैं. इनकी सिनेमेटिक भाषा, डिजाईन, स्टाइल और एस्थेटिक बहुत अलग होता है. ऐसे फिल्ममेकर्स स्टूडियोज और बड़े प्रोडक्शन हाउस वाले ट्रेडिशनल सेटअप में काम नहीं करते क्योंकि एक कॉर्पोरेट सेटिंग अक्सर उनके सिनेमेटिक विजन के लिए सेहतमंद नहीं साबित होती. बॉलीवुड की बात करें तो संजय मिश्रा की 'आंखों देखी', विक्रांत मैसी स्टारर 'अ डेथ इन द गंज' इंडी फिल्में कही जा सकती हैं. थोड़ा और आसान करके समझना चाहें तो अनुराग कश्यप या दिबाकर बनर्जी के सिनेमा का एस्थेटिक काफी हद तक इंडी सिनेमा जैसा लगता है. 

क्या है इंडी फिल्ममेकर्स का स्ट्रगल?
इस तरह के फिल्ममेकर्स की फिल्मों को अक्सर मेनस्ट्रीम सिनेमा से 'डिफरेंट' बताकर अलग से साइड कर दिया जाता है. इन्हें आर्ट हाउस फिल्म या फिल्म फेस्टिवल वाली फिल्में कहकर एक अलग ब्रैकेट में रख दिया जाता है. ऑस्कर अवॉर्ड्स के ट्रेंड में भी ऐसी फिल्मों के लिए बहुत ज्यादा जगह नहीं रही है. कुछ साल पहले तक ऑस्कर्स में भी ऐसी फिल्मों का जलवा रहा है जो सिनेमेटिक एक्सपीरियंस को अद्भुत बनाने वाली, कहानियों को ग्रैंड स्केल पर दिखाने वाली या कल्पना के संसार को एक नए लेवल पर ले जाने वाली रही हैं. जबकि इंडी फिल्मों के बारे में ये कहना ज्यादा सही होगा कि ये जिंदगी की सड़ांध और मनुष्य के घिनौने रूप को एक्सप्लोर करने से नहीं चूकतीं. ऐसी फिल्में मेनस्ट्रीम सिनेमा ही देखते आ रहे एक दर्शक के लिए कई बार शॉकिंग और डिस्टर्बिंग हो सकती हैं. 

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'अनोरा' से एक सीन (क्रेडिट: सोशल मीडिया)

बहुत से दर्शकों के लिए 'अनोरा' भी ऐसी ही फिल्म रही, इसीलिए इंटरनेशनल सिनेमा लवर्स में ये बहस भी तेजी से छिड़ी हुई है कि क्या ये ऑस्कर लायक थी या नहीं? इंडिपेंडेंट सिनेमा के साथ एक बड़ी दिक्कत ये भी है कि फिल्मों को थिएटर्स में रिलीज दिला पाना ही मेकर्स के लिए बहुत मुश्किल काम होता है. जैसे- कान्स फिल्म फेस्टिवल का दूसरा टॉप अवॉर्ड जीतने वाली, पायल कपाड़िया की फिल्म 'All We Imagine As Light' तमाम फिल्म फेस्टिवल्स में अवॉर्ड जीत रही थी और सराही जा रही थी. लेकिन जब अपने ही देश में फिल्म रिलीज की बात आई तो पायल के सामने एक नई समस्या खड़ी हुई. 

एक इंटरव्यू में पायल ने बताया था कि फिल्म की बॉक्स ऑफिस अपील बढ़ाने के लिए डिस्ट्रीब्यूटर्स अक्सर फिल्म में बदलाव या कट्स की मांग करने लगते हैं और इससे एक डायरेक्टर की क्रिएटिविटी खराब हो जाती है. पायल ने अपनी फिल्म के डिस्ट्रीब्यूशन के लिए एक्टर राणा डग्गुबाती की कंपनी को इसलिए चुना क्योंकि वो फिल्म में कोई बदलाव नहीं करवाना चाहते थे. यानी कहानी से लेकर थिएटर्स में रिलीज तक इंडी फिल्में, हर स्तर पर मेनस्ट्रीम फिल्मों के आगे बुरी तरह जूझती रही हैं. 

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ओटीटी के आने से एक बड़ी समस्या ये हुई है कि फिल्म प्रदर्शकों ने फिल्मों को दो कैटेगरी में बांट दिया है और वो थिएटर्स में खास तरह की ग्रैंड या पॉपुलर एंटरटेनर फिल्में ही रिलीज करना चाहते हैं. इरफान खान की 'द लंचबॉक्स' का ही उदाहरण देखें तो आज के माहौल में शायद इसे ओटीटी के लिए ही सूटेबल माना जाता और थिएटर्स में इसे स्क्रीन्स मिल पाना मुश्किल होता. हालांकि, 'द लंचबॉक्स' जब थिएटर्स में रिलीज हुई थी तब भी इसे 500 से कम ही स्क्रीन्स मिली थीं. लोगों ने इस फिल्म को थिएटर्स से ज्यादा ओटीटी और डिजिटल माध्यमों पर देखा और आज शायद ही कोई ऐसा दर्शक हो जिसे ये फिल्म देखने के बाद पसंद ना आई हो. 

प्रोडक्शन की नजर से देखें तो भी आज 'अनोरा' जैसी फिल्म को नेटफ्लिक्स या दूसरे प्लेटफॉर्म से हरी झंडी मिलना तो फिर भी आसान है, मगर स्टूडियो शायद ही ऐसी फिल्म पर पैसा लगाएं. और हॉलीवुड में तो फिर भी नामी इंडी फिल्ममेकर्स को फंडिंग मिल सकती है, बॉलीवुड जैसी इंडस्ट्री में तो ऐसी फिल्मों का स्क्रीन पर आ पाना और भी मुश्किल होता जा रहा है. 

ऑस्कर अवॉर्ड्स में भी मिल रही ज्यादा जगह
ऑस्कर्स ने भी पिछले कुछ सालों में फिल्में चुनने के अपने तरीके में बदलाव किया है. ऐसी फिल्मों पर अब जोर दिया जा रहा है जो कम रिप्रेजेंटेशन पाने वाले किसी जनसंख्या वर्ग या समुदाय की कहानी कहती हैं. ऐसे बैकग्राउंड में शॉन बेकर की 'अनोरा' का ऑस्कर्स में शानदार तरीके से अवॉर्ड जीतना दुनिया भर के इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर्स के लिए एक बड़ा मैसेज है. ऑस्कर अवॉर्ड मात्र एक फिल्म सम्मान भर नहीं है, बल्कि अपने आप में मार्किट को चलाने वाला एक बड़ा फैक्टर है. 

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'अनोरा' से एक सीन (क्रेडिट: सोशल मीडिया)

जिस तरह की फिल्म को अवॉर्ड मिलता है, फिल्म इंडस्ट्रीज में वैसे प्रोजेक्ट्स की स्वीकार्यता बढ़ती है. वैसे प्रोजेक्ट्स के लिए फंडिंग का रास्ता आसान हो जाता है और उनपर स्पॉटलाइट बनी रहती है. 'अनोरा' जैसी फिल्म को ऑस्कर मिलना उन फिल्ममेकर्स के लिए एक बहुत बड़ा मोटिवेशन है जो अपने बेहतरीन सिनेमा के बावजूद, अपने काम को कमर्शियल सिनेमा के बीच जगह दिलाने में स्ट्रगल करते हैं. 

ऑस्कर अवॉर्ड लेते हुए शॉन बेकर ने भी अपनी स्पीच में कहा 'ये मेरा युद्धघोष है: फिल्ममेकर्स, बड़ी स्क्रीन के लिए फिल्में बनाते रहिए. मुझे यकीन है कि मैं तो यही करता रहूंगा.' अब देखना ये है कि शॉन का ये 'युद्धघोष' दुनिया के इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर्स को किस तरह मोटिवेट करता है. 

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