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लंदन के गुमनाम जादूगर से लेकर 'मेनिएक' हनी सिंह तक... ये है लोगों को चर्चा में लाने वाली लाइमलाइट की कहानी

जो चर्चा में है, वो लाइमलाइट में ही क्यों है? ट्यूबलाइट या फ्लड लाइट में क्यों नहीं? ये लाइमलाइट आती कहां से है और पहली बार ये पड़ी किसपर थी? और सिनेमा से इस लाइमलाइट का क्या लेना देना है? ऐसा करते हैं आज लाइमलाइट को ही जरा लाइमलाइट में ले आते हैं...

लोगों को चर्चा में लाने वाली 'लाइमलाइट' की अपनी कहानी लोगों को चर्चा में लाने वाली 'लाइमलाइट' की अपनी कहानी
सुबोध मिश्रा
  • नई दिल्ली ,
  • 08 मार्च 2025,
  • अपडेटेड 11:00 AM IST

सिंगर-रैपर हनी सिंह का नाम इन दिनों काफी लाइमलाइट में है. उनके गाने 'मेनिएक' का एक हिस्सा भोजपुरी में है, जिसके लिरिक्स को लेकर विवाद छिड़ा हुआ है. 'जन्नत 2' और 'राज 3D' जैसी फिल्मों से पॉपुलर हुईं एक्ट्रेस ईशा गुप्ता पिछले कुछ समय में धीरे-धीरे बड़े पर्दे से गायब सी हो रही थीं. लेकिन 'मेनिएक' में ग्लैमरस और बोल्ड अंदाज में नजर आ रहीं ईशा भी, गाने पर कंट्रोवर्सी के बाद एक बार फिर लाइमलाइट में लौट आई हैं. 

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'मेनिएक' गाने में हनी सिंह, ईशा गुप्ता (क्रेडिट: सोशल मीडिया)

लाइमलाइट से गायब होना और लाइमलाइट में लौट आना, खबरों की दुनिया में एक बड़ा प्रचलित मुहावरा बन चुका है. जो चर्चा में है वो लाइमलाइट में है, जो चर्चा से गायब है वो लाइमलाइट से गायब. सवाल ये है कि जो चर्चा में है, वो लाइमलाइट में ही क्यों है? ट्यूबलाइट या फ्लड लाइट में क्यों नहीं? ये लाइमलाइट आती कहां से है और पहली बार ये पड़ी किसपर थी? और सिनेमा से इस लाइमलाइट का क्या लेना देना है? ऐसा करते हैं आज लाइमलाइट को ही जरा लाइमलाइट में ले आते हैं... 

एक गुमनाम जादूगर के खेल से शुरू हुआ लाइमलाइट का खेल 
19वीं सदी के मिडल में, लगभग 1830 के दशक के आसपास लंदन में एक जादूगर बहुत पॉपुलर हुआ. उसका असली नाम क्या था, इस बारे में इतिहास में कोई पुख्ता जानकारी नहीं है. मगर स्टेज पर उसे चिंग लॉ लॉरो और प्रोफेसर चिंग कहा जाता था. शायद ये नाम उसके लिए इसलिए इस्तेमाल किया गया क्योंकि वो संभवतः पश्चिम का पहला जादूगर था जिसने चाइनीज कॉस्टयूम में परफॉर्म किया था. 

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लंदन के बारे में इतना सब जानते हैं कि ये समंदर किनारे बसा शहर है. समुद्र तट पर जहाजों या स्टीमर्स पर चढ़ने के लिए लकड़ी से घाट टाइप का एक स्ट्रक्चर बनाया जाता है, जिसे पायर (Pier) कहा जाता है. साइड से बिना किसी सपोर्ट के जमीन पर खड़े फ्री-स्टैंड क्लॉकटावर यानी घंटाघर तो आपने भारत के कई शहरों में भी देखें होंगे. लेकिन लंदन के हर्न बे पायर के साथ 1837 में बने घंटाघर को दुनिया के सबसे शुरुआती फ्री-स्टैंड क्लॉक टावर्स में गिना जाता है. 

जाहिर सी बात है कि जब ये बन रहा होगा तो अपने आप में एक अनोखी चीज रहा होगा. इसलिए जब इसकी नींव रखी जा रही थी तो हर्न बे के पायर पर, 8 अक्टूबर 1836 की रात एक सेलिब्रेशन चल रहा था. जादूगर प्रोफेसर चिंग यहां जगलिंग परफॉर्म कर रहे थे. 

इससे पहले तक रात में ऐसे परफॉरमेंस लैंप्स और कैंडल्स की रौशनी में हुआ करते थे. लेकिन प्रोफेसर चिंग एक तेज चमकती दूधिया रौशनी में परफॉर्म कर रहे थे. एक मैगजीन ने उस पेर्फोर्मंसके बारे में लिखा, 'पूरा पायर एक खूबसूरत सफेद रौशनी में नहाया हुआ था.' इतिहास में पब्लिक परफॉरमेंस के लिए लाइमलाइट के इस्तेमाल का ये पहला जिक्र है. 

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कहां से आई लाइमलाइट?
कई मैटेरियल ऐसे होते हैं जो अत्यधिक गर्मी से तपने के कारण रौशनी उत्सर्जित करने लगते हैं. सीधा उदाहरण लोहे की एक रॉड से समझा जा सकता है, खूब गर्म करने पर लोहे की रॉड से लाल रंग की रौशनी निकलने लगती है. हालांकि उस रौशनी को आप किसी काम के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते. इस गुण को हिंदी में तापदीप्ति और अंग्रेजी में इंकैंडेसेंस कहा जाता है. 

ब्रिटिश आविष्कारक सर गोल्ड्सवर्थी गर्नी ने ऑक्सीजन-हाइड्रोजन के मिक्सचर से एक बेहद तेज भभकती हुई, पतली लौ जेनरेट करने की डिवाइस बनाई थी जिसे ऑक्सी-हाइड्रोजन ब्लो पाइप कहा गया. इस लौ को वेल्डिंग के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता था. एक एक्स्परिमेंट में उन्होंने इस ब्लो पाइप से निकलती लौ को कैल्शियम ऑक्साइड के एक सिलेंडर पर डाला, जो तपने पर बहुत तेज दूधिया रौशनी देने लगा. इसे लाइमलाइट इफेक्ट कहा गया क्योंकि कैल्शियम ऑक्साइड को आम भाषा में क्विकलाइम कहा जाता था. 

स्कॉटिश इंजिनियर थॉमस ड्रमंड ने जब लाइमलाइट इफेक्ट देखा तो उन्हें लगा की ये रौशनी सर्वेक्षणों के लिए बहुत काम आ सकती है. उन्होंने लाइमलाइट इफेक्ट से निकली रौशनी को इस्तेमाल करने वाली एक डिवाइस बनाई जिसे उनके नाम पर ड्रमंड लाइट भी कहा गया. इस लाइट को अब पब्लिक परफॉरमेंस, जैसे प्रोफेसर चिंग के जगलिंग एक्ट के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा. लाइट के लिए डिवाइस चाहे कोई भी इस्तेमाल हो, लेकिन लाइट का नाम तो लाइमलाइट था. पब्लिक परफॉरमेंस में इस्तेमाल होने के कारण ये नाम भी बहुत तेजी से पॉपुलर हो गया. 

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सिनेमा में कैसे पहुंची लाइमलाइट?
1837 में लंदन के कोवेंट गार्डन थिएटर में एक पैंटोमाइम परफॉरमेंस के दौरान पहली बार लाइमलाइट का इस्तेमाल, स्टेज पर परफॉर्म कर रहे आर्टिस्ट को हाईलाइट करने के लिए किया गया. फिर इसे थिएटर्स में नाटकों की परफॉरमेंस के दौरान स्टेज पर खड़े आर्टिस्ट को हाईलाइट करने के लिए भी किया जाने लगा. और यहां से लाइमलाइट शब्द एक मुहावरा बना उस व्यक्ति के लिए जो एक भीड़ के सामने हाईलाइट हो रहा है. उसके चर्चा में आने का कारण कुछ अच्छा भी हो सकता है और विवादास्पद भी.

आज हम जिसे सिनेमा कहते हैं वो मूव करने वाली इमेज की शक्ल में, 1840 के दशक में अस्तित्व में आने लगा था. पहले डिस्क पर इमेज रिकॉर्ड करना शुरू हुआ और फिर 1890 के दशक में स्क्रीन पर इमेज का प्रोजेक्शन शुरू हुआ. प्रोजेक्शन की शुरुआत में कई अलग-अलग डिवाइस इस्तेमाल हुए जिनमें लाइट की मदद से रील पर रिकॉर्ड इमेज को स्क्रीन पर प्रोजेक्ट किया जाता था. मगर इनमें सबसे कामयाब डिवाइस साबित हुआ 'सिनेमेटोग्राफ'.

सिनेमेटोग्राफ की वर्किंग समझें तो एक फिल्म रील पर इमेज रिकॉर्ड होती थीं. फिर लाइमलाइट को लेंस की मदद से इमेज पर इस तरह फोकस किया जाता था कि रील पर रिकॉर्ड इमेज, सामने स्क्रीन पर साफ तरीके से प्रोजेक्ट हो. इसमें वैसे तो कई अलग-अलग डिवाइस और इक्विपमेंट लगते थे, मगर पूरे सेटअप को सिनेमेटोग्राफ कहा जाता था. इस तरह एक गुमनाम जादूगर की परफॉरमेंस को हाईलाइट करने के लिए पहली बार इस्तेमाल हुई लाइमलाइट, सिनेमा का भी हिस्सा बन गई. 

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आज इसी सेटअप को सिनेमा कहते हैं. धीरे-धीरे लाइमलाइट की जगह लाइट के दूसरे सोर्स आते गए और इसी फंडे पर लैंप और बल्ब बनने शुरू हुए, जिनकी जगह आज एल.ई.डी. इस्तेमाल होने लगी है. और लाइमलाइट वाले सिनेमेटोग्राफ की जगह अब डिजिटल प्रोजेक्शन ले चुका है जिसके जरिए आप थिएटर्स में शानदार पिक्चर क्वालिटी वाली फिल्में देखते हैं.

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