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वाजपेयी के खिलाफ खूब हुई चुनावी मशक्कत, कभी नहीं हरा पाए फिल्मी सितारे

गुरुवार शाम को पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी का निधन हो गया. राजनीति में शीर्ष तक पहुंचने वाले वाजपेयी राजनीति में फिल्मी सितारों का विरोध करते थे. हालांकि चुनावी मैदान में फिल्मी बैकग्राउंड वाला कोई उम्मीदवार उनके सामने कभी टिक नहीं पाया.

वाजपेयी की तस्वीर के साथ ग़मगीन प्रशंसक (फोटो : PTI) वाजपेयी की तस्वीर के साथ ग़मगीन प्रशंसक (फोटो : PTI)
अनुज कुमार शुक्ला
  • नई दिल्ली,
  • 17 अगस्त 2018,
  • अपडेटेड 12:46 PM IST

आजाद भारत के अब तक के इतिहास में फिल्म और राजनीति का दिलचस्प रिश्ता रहा है. खासकर फिल्मी सितारों के बिना दक्षिण भारत के राजनीतिक इतिहास की कल्पना भी नहीं की जा सकती. दक्षिण के राज्यों में आधा दर्जन से भी ज्यादा ऐसे नेता हैं जिन्होंने राजनीति में शीर्ष मुकाम हासिल किया. पार्टी के शिखर पर भी पहुंचे. हालांकि शेष भारत में ये एकदम उलट है. ऐसा नहीं है कि देश में दक्षिण के बाहर फ़िल्मी सितारों ने राजनीति में मुकाम हासिल नहीं किया. विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे नेता भी राजनीति के शिखर पर देखे गए. लेकिन इतिहास यह भी बताता है कि शेष भारत में लोकप्रिय और स्थानीय नेताओं को हराने के लिए फिल्मी सितारों का सहारा लिया गया.

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भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी कुछ ऐसा ही मानते हैं. राजनीति में फ़िल्मी सितारों के प्रवेश का विरोध करने वाले वाजपेयी ने कहा था, "राजनीतिक नेताओं को हराने के लिए अभिनेताओं का सहारा लिया गया." हालांकि कोई अभिनेता राजनीति के मैदान में वाजपेयी को कभी पछाड़ नहीं पाया. जबकि लखनऊ संसदीय सीट का प्रतिनिधित्व करने वाले अटलजी के राजनीतिक करियर में ऐसे दो बड़े मौके आए जब चुनावों में कद्दावर फ़िल्मी सितारों से उनकी भिड़ंत थी.

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1996 से लेकर 2004 तक प्रधानमंत्री पद के लिए अटल जी को चेहरा बनाकर ही बीजेपी ने लोकसभा चुनाव लड़ा और उल्लेखनीय सफलता हासिल की. 1996 में वाजपेयी सबसे बड़े दल/गठबंधन के तौर पर पार्टी को सत्ता दिलाने में तो कामयाब रहे, लेकिन 13 दिन की उनकी सरकार विश्वासमत हासिल नहीं कर पाई. उनकी सरकार गिरी, बाद में एचडी देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल ने कांग्रेस का समर्थन लेकर संयुक्त मोर्चा की सरकार का नेतृत्व किया. हालांकि प्रधानमंत्री बदलने के बावजूद संयुक्त मोर्चा की सरकार भी अपना कार्यकाल नहीं पूरा कर पाई.

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उस वक्त प्रधानमंत्री पद के लिए समूचे देश से सिर्फ एक ही आवाज उठ रही थी. ऐसा लग रहा था कि अगर पूरे देश में प्रधानमंत्री के लिए वोट मांगे जाए तो वाजपेयी को चुनौती देने वाला कोई नहीं हैं. दरअसल, देश के हर कोने से हर आदमी- वाजपेयी जी को प्रधानमंत्री के पद पर देखना चाह रहा था. चुनाव से पहले वाजपेयी अजेय लग रहे थे. बीजेपी को अपनी सफलता के लिए उत्तर प्रदेश से बड़ी उम्मीदें थी. ऐसा होना स्वाभाविक भी था. राम मंदिर आंदोलन और वाजपेयी की वजह से पिछले कुछ सालों में उत्तर प्रदेश ही ऐसा राज्य बनकर सामने आया था जहां से बीजेपी के सर्वाधिक सांसद चुनकर आते थे.

उस वक्त कांग्रेस की परंपरा का अनुसरण करते हुए उत्तर प्रदेश में वाजपेयी और बीजेपी को रोकने के लिए समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बसपा ने अपने-अपने स्तर पर बड़ा गेम प्लान तैयार किया. बताने की जरूरत नहीं कि यूपी के सबसे लोकप्रिय और कद्दावर रणनीतिकार और नेताओं में गिने जाने वाले हेमवती नंदन बहुगुणा को हराने के लिए कांग्रेस ने बॉलीवुड के सबसे बड़े महानायक अमिताभ बच्चन को चुनावी मैदान में उतारा था. अमिताभ की वजह से एक लोकप्रिय नेता को चुनाव में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा. आगे चलकर ये हार उनके राजनीतिक अंत की वजह बना और भारतीय राजनीति में लोकप्रिय नेताओं की जमीन दरकाने के लिए फिल्मी सितारे एक हथियार बने.

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वाजपेयी की लोकप्रियता से तंग विपक्ष ने कई साल बाद ऐसी ही योजना यूपी में भी बनाई. योजना थी कि क्यों न वाजपेयी के खिलाफ मजबूत उम्मीदवार उतारकर लखनऊ संसदीय सीट पर ही घेर लिया जाए. ऐसा होने की स्थिति में वाजपेयी अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए ज्यादातर वक्त लखनऊ में ही फंसे रहेंगे. और अगर चुनाव हार गए तो वाजपेयी के साथ बीजेपी का गुब्बारा फूट जाएगा.

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1998 में समाजवादी पार्टी ने वाजपेयी के खिलाफ फिल्म निर्माता मुजफ्फर अली को लखनऊ में अपना उम्मीदवार बनाया. लखनऊ के लिए मुजफ्फर एक स्थानीय उमीदवार जैसे थे. संसदीय क्षेत्र में उनके बहुत घरेलू ताल्लुकात थे, और वो फिल्मों का ग्लैमरस चेहरा तो थे ही. 'उमराव जान' और 'गमन' जैसी चर्चित फिल्म बनाने वाले कवि, सामाजिक कार्यकर्ता और फिल्म निर्माता मुजफ्फर के मैदान में आ जाने से लखनऊ पर सबकी नजर थी. मुजफ्फर के समर्थन में कई फ़िल्मी सितारे भी आए. लेकिन वाजपेयी को अपने लखनऊ पर भरोसा था. वो चुनावी कैम्पेन में वैसे ही शामिल हुए जैसे पहले हुआ करते थे.

इतिहास खुद को दोहरा पाने में नाकामयाब हुआ. वाजपेयी को घेरा नहीं जा सका. बताने की जरूरत नहीं कि अपने अंदाज के लिए मशहूर लखनऊ ने वाजपेयी की कीमत पर किसी और को तवज्जो देना पसंद नहीं किया. मुजफ्फर को भारी अंतर से हार का सामना करना पड़ा. यूपी में भी बीजेपी को ऐतिहासिक सीटें मिलीं. वाजपेयी प्रधानमंत्री बने.

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छह साल बाद 2004 में राज बब्बर को मैदान में उतारकर समाजवादी पार्टी ने एक बार फिर ऐसी ही योजना बनाई थी. इस बार चुनाव से पहले विपक्ष थोड़ा भारी भी नजर आ रहा था. कांग्रेस ने सॉफ्ट हिंदुत्व चेहरा के तौर पर महशूर डॉ. कर्ण सिंह को वाजपेयी के खिलाफ उम्मीदवार बनाया. वहीं बसपा ने ब्राह्मण चेहरे के रूप में सतीश चंद्र मिश्र को मैदान में उतारा. लेकिन इस बार भी लखनऊ की जनता ने अपने सबसे प्रिय नेता पर ही भरोसा जताना मुनासिब समझा. मजबूत रणनीति, फ़िल्मी सितारे और ताकतवर उम्मीदवारों की मौजूदगी के बावजूद वाजपेयी शानदार तरीके से विजय श्री हासिल करने में कामयाब हुए.

तो अमिताभ से लड़ने के लिए रेखा को बुलाते वाजपेयी

विपक्ष फ़िल्मी सितारों के जरिए वाजपेयी को हारने की कोशिश करता रहा. एक इंटरव्यू में वाजपेयी ने खुद कहा था कि अमिताभ को भी उनके खिलाफ चुनाव लड़ाने की खबर थी. वाजपेयी ने कहा था, "अगर मैं दिल्ली से चुनाव लड़ता तो संभवत: मेरे खिलाफ अमिताभ भी उम्मीदवार हो सकते थे." वाजपेयी से पूछा गया, फिर अमिताभ से कैसे मुकाबला करते आप? वाजपेयी ने जवाब दिया, "मैं अभिनेताओं का सामना तो कर नहीं सकता. मुझे रेखा से विनती करनी होती." वैसे वाजपेयी फ़िल्मी सितारों के राजनीति में आने की खिलाफत करते आए हैं. लेकिन उनके नेतृत्व में बीजेपी से धर्मेंद्र, विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे कई छोटे-बड़े अभिनेता संसद में पहुंचे. विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा तो उनकी कैबिनेट में मंत्री भी बने.

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