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RAW Review‌: कमजोर कहानी में एक्टिंग से प्रभावित करते हैं जॉन अब्राहम

मद्रास कैफे और परमाणु जैसी पॉलिटिकल थ्रिलर फिल्में कर चुके जॉन अब्राहम पिछले कुछ समय से अपने आपको एक भरोसेमंद एक्टर के तौर पर स्थापित करने की कोशिश कर रहे है. 

जॉन अब्राहम जॉन अब्राहम
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 05 अप्रैल 2019,
  • अपडेटेड 4:17 PM IST
फिल्म:Romeo Akbar Walter
2.5/5
  • कलाकार :
  • निर्देशक :Robby Grewal

मद्रास कैफे और परमाणु जैसी पॉलिटिकल थ्रिलर फिल्में कर चुके जॉन अब्राहम पिछले कुछ समय से अपने आपको एक भरोसेमंद एक्टर के तौर पर स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं और इसी कड़ी में उनकी फिल्म रॉ रिलीज़ हुई है. एक दौर में जब उरी जैसी फिल्में ताबडतोड़ कमाई कर रही है और विंग कमांडर अभिनंदन की वापसी पर फिल्म प्रोड्यूसर्स में टाइटल रजिस्टर कराने की होड़ मच जाती है, उसी दौर में रॉबी ग्रेवाल की ये फिल्म अंधराष्ट्रीयता से दूर उन हजारों अनसंग हीरोज़ को सलाम करती है जिनका देश की सुरक्षा में बड़ा योगदान होता है पर उन्हें अक्सर गुमनामी में ही अपनी जिंदगी बितानी पड़ती है.   

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क्या है कहानी ?

रहमत अली यानि रोमियो एक बैंकर है और कभी-कभार शौकिया तौर पर स्टेज पर परफॉर्म भी करता है. अपने लुक्स बदलने की क्षमता के चलते रॉ की नज़र उस पर पड़ती है और उसे रॉ एक जासूस के तौर पर हायर कर लेता है. रॉ चीफ श्रीकांत राय यानि जैकी श्रॉफ के अंडर उसकी ट्रेनिंग शुरु हो जाती है. रहमत की पहचान बदल चुकी है और वो अकबर मलिक के तौर पर पाकिस्तान पहुंचता है. वहां अकबर टॉप आर्म्स डीलर बनता है और पाकिस्तान से भारत महत्वपूर्ण सूचनाएं भेजने लगता है. 1971 के दौर में पाकिस्तान की युद्ध को लेकर तैयारियों की सूचनाएं अकबर भारत को भेजता है लेकिन पाकिस्तान में आईएसआई ऑफिसर खुदाबक्श खान (सिकंदर खेर) को अकबर पर शक होता है और उसका भांडा फूट जाता है.  इसके बाद भारत की रॉ टीम अपने जासूस को वापस लेकर आती है और अकबर का वॉल्टर के तौर पर ट्रांसफॉर्मेंशन कैसा होता है, ये देखने के लिए आपको थियेटर का रुख करना होगा.

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एक्टिंग

जॉन अब्राहम और उनके क्रिटिक्स के बीच एक द्वंद भरी स्थिति है. क्रिटिक्स मानते हैं कि वे एक सीमित एक्टर हैं और काफी कम एक्सप्रेशन्स के साथ एक्ट करते हैं वही जॉन का मानना है कि वे ओवर एक्ट नहीं कर सकते हैं और इसलिए उनकी एक्टिंग रियलिस्टिक, ठहराव लिए हुए और Subtle होती है. यही स्थिति इस फिल्म में देखने को मिलती है. जॉन अपने अलग-अलग गेटअप्स में फिल्म को अपने कंधों पर संभालने की कोशिश करते हैं, ज्यादातर सीन्स में वे अपनी आंखों से एक्टिंग करते नजर आते हैं. पाकिस्तानी अधिकारियों द्वारा टॉर्चर करने पर जॉन के किरदार के लिए दर्द महसूस होता है लेकिन फिल्म के ज्यादातर हिस्से में एक जासूस के तौर पर वे दर्शकों को वो थ्रिल और टेंशन नहीं प्रदान कर पाते हैं जिसके चलते ये फिल्म बाकी बेहतरीन थ्रिलर्स के समक्ष खड़ी नहीं हो पाती है. इसे कमजोर राइटिंग का एक उदाहरण कहा जा सकता है. मौनी रॉय को फिल्म में खास तवज्जो नहीं मिली है वही जैकी श्रॉफ का रॉ चीफ के रूप में स्टायल और अंदाज अच्छा लगता है और जैकी एक बार फिर साबित करते हैं कि इस उम्र में भी उनकी स्क्रीन प्रेजेंस का कोई सानी नहीं है लेकिन सबसे ज्यादा हैरत में डालते हैं सिकंदर खेर. अनुपम खेर के बेटे सिकंदर एक आईएसआई अफसर के तौर पर पाकिस्तान का स्थानीय डायलेक्ट पकड़ने में कामयाब रहे हैं. उनके स्क्रीन पर आने के बाद से ही फिल्म की रफ्तार में तेजी देखने को मिलती है. सिकंदर को इस तरह के किरदार में देखना एक सुखद अनुभव रहा. उन्हें देखकर आप वाकई उनसे नफरत करना चाहते थे. इसके अलावा विटेंज रघुबीर यादव अपने छोटे लेकिन महत्वपूर्ण रोल में प्रभावित कर जाते हैं.

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स्क्रीनप्ले

स्क्रीनराइटर सिड फील्ड के अनुसार, अगर आप फिल्म के आखिरी हिस्से को अच्छा बना पाने में कामयाब होते हैं तो कई बार फिल्म की शुरुआती कमियां को छिपाया जा सकता है. फिल्म रॉ के साथ भी कुछ ऐसा ही है.  फिल्म की कहानी का सबसे कमजोर पक्ष इसका धीमा फर्स्ट हाफ है और कई बार ऐसा लगता है कि कुछ सीन्स की फिल्म में जरूरत ही नहीं थी लेकिन दूसरे हाफ के दौरान इन सीन्स की प्रासंगिकता समझ आती है. फिल्म की कमजोर राइटिंग के चलते जॉन अपने सभी किरदारों के साथ न्याय नहीं कर पाते. हालांकि सेकेंड हाफ में फिल्म रफ्तार पकड़ने लगती है और फिल्म के कुछ सीन्स बेहद प्रभावी बन पड़े हैं.  डिटेलिंग पर अच्छा काम किया गया है, 70 के दौर की फिल्म में रेडियो पर प्रकाश पादुकोण के बैडमिंटन टूर्नामेंट जीतने की खबर सुनने को मिलती है. देशभक्ति और अंधराष्ट्रीयता के बीच जो महीन रेखा होती है, डायरेक्टर रॉबी ग्रेवाल उसका खास ख्याल रखते हैं और फिल्म कभी भी चेस्ट थंपिंग राष्ट्रवाद के दायरे में नहीं होती, उसी तरह ही जैसे स्पाई थ्रिलर फिल्म राजी का कंटेंट भी भारत-पाक रिश्तों को लेकर काफी संवेदनशील था.

क्यों देखें

इस फिल्म को देखने के बाद आप देश के उन जासूसों की ज़िंदगियों के बारे में सोचने पर मजबूर हो जाएंगे जिनका काम किसी सैनिक से कम खतरनाक नहीं होता है लेकिन उन्हें ताउम्र किसी तरह की पहचान या सम्मान नहीं मिलता है.  कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो गुमनामी में ही अपने देश के लिए प्राण न्योछावर कर देते हैं. अगर जॉन अब्राहम के फैन हैं और जासूसी थ्रिलर्स में आपकी दिलचस्पी है तो आप ये फिल्म देखने जा सकते हैं बशर्ते आप धीमी फिल्मों को लेकर भी उदासीन रवैया ना रखते हों.

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