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'आप एक बिहारी को बिहार से बाहर ले जा सकते हैं, लेकिन आप बिहार को कभी भी एक बिहारी से नहीं निकाल सकते हैं.' उस वक्त बिहारी होने का दर्द सबसे ज्यादा होता है, जब आप किसी कारण से छठ में अपने प्रदेश नहीं जा पाते हैं. एक्ट्रेस रतन राजपूत इस बार अपनी काम की व्यस्तता की वजह से महापर्व छठ के मौके पर घर नहीं जा पा रही हैं और अपने इसी दर्द के साथ एक्ट्रेस ने छठ पूजा की अपनी कुछ यादें हमसे शेयर की हैं.
रतन राजपूत ने शेयर की छठ की यादें
Aajtak.in से बातचीत के दौरान रतन बताती हैं- छठ का नाम सुनते ही मेरे जहन में बिहार, फैमिली, ठेकुआ और बहुत सारा अनुशासन आता है. डिसीप्लीन से मेरा आशय है, एक होता है डर और एक होता है कि साल में आने वाले इस पर्व को लेकर सजगता, कि कहीं मुझसे कोई गलती नहीं हो जाए. हर बिहारी इस इमोशन को रिलेट करता है. यही बात है कि इस पर्व में हर एक स्टेप पूरी सजगता के साथ फॉलो किया जाता है.
छठ से जुड़ी मेमोरी शेयर करते हुए रतन कहती हैं- मेरा पहला छठ मेरे लिए हमेशा से यादगार रहा है. मेरी फैमिली में कभी दोस्ताना रिलेशनशिप नहीं रहा है. हम अपने माता-पिता की गरीमा का लिहाज करते हैं. पैर छूना और उनका डर, हमारे बीच इस तरह की बॉन्डिंग होती है. लेकिन जिस रोज मैंने छठ किया था, उस वक्त यह अहसास हुआ कि मैं मां की सबसे करीबी दोस्त बन गई हूं. मैं मां के साथ ही पूजा रूम में सो रही थी. मेरी दीदी मां के साथ-साथ मेरा पैर भी दबा रही थी. मेरे कपड़े धुल रहे थे. ऐसा फील हुआ कि घर की सबसे छोटी मेंबर होने के बावजूद मुझे इस पर्व ने मां के बराबर लाकर खड़ा कर दिया है. पापा भी मुझे बेटी नहीं व्रती की तरह ही ट्रीट कर रहे थे. उस वक्त मेरा रोल स्विच हो गया था, मुझे अक्सर घर के कामों के लिए दौड़ाया-भगाया जाता था, लेकिन उस वक्त सब मेरे लिए काम कर रहे थे.
रतन आगे बताती हैं- छठ पूजा करने की अनाउंसमेंट ने मेरे परिवार को शॉक्ड कर दिया था. मेरी मां की बोलती बंद हो गई थी. देखें आप कुछ और डिसीजन लेते हो, तो लोग आपकी काउंसलिंग करने बैठ जाते हैं. लेकिन छठ का नाम आते ही उनको लगता है कि ऊपरवाले ने यह मुझसे करवाया है. घर वाले बस पूछ रहे थे कि कोई मन्नत मांगी थी. मैंने बस उनको कहा कि मैं भगवान को बस शुक्रिया अदा करना चाहती हूं. मैंने अगले जन्म मोहे और स्वंयवर के बाद छठ किया था, मतलब मैं मां के साथ खड़ी हुई थी.
रतन क्यों नहीं कर पा रही हैं छठ?
रतन को इस बात का दुख है कि वो अब छठ नहीं कर पा रही हैं. इसका कारण बताते हुए रतन कहती हैं- हमारे समाज में अनमैरिड लड़कियों के साथ बहुत से मसले हैं. छठ केवल मैरिड औरतों को ही दिया जाता है. ससुराल में आपको सास द्वारा दिया जाता है. हम जैसी बेटियां, जो शादीशुदा नहीं हैं, या जिसने शादी का प्लान नहीं किया है, उनकी हालत घर की न घाट वाली हो जाती है. ससुराल हमारा है नहीं और मायके से हमें ऐसी चीजें मिल नहीं सकती हैं. यह सवाल जब भी मैं मां से पूछती हूं, तो वो जवाब नहीं दे पाती हैं. मैंने मां से कहा भी कि तुम्हारे बाद छठ कौन करेगा, तो कहती हैं देखते हैं, मैंने यहां तक कहा कि हमको दो, हम करेंगे, तो उनका जवाब यही था कि बेटी को नहीं दिया जाता है. कुल देवी की पूजा करने जाते हैं, तो भी मुझे छूने नहीं दिया जाता है. उनका लॉजिक यही है कि बेटी अपने मायके के संस्कारों में इतनी न जुड़ जाए कि ससुराल में उन्हें एडजस्ट करने में दिक्कत हो. हालांकि उन्होंने यह नहीं सोचा कि हम जैसी लड़कियां जो शादी नहीं करेंगी या सिंगल रहेंगी, तो उनका रिचुअल क्या होगा. यही वजह से मैं छठ नहीं कर पा रही हूं लेकिन जिस दिन इन सवालों के जवाब मिल जाएंगे, मैं छठ करूंगी.
क्यों टूटा रतना का दिल?
बचपन के छठ की यादें शेयर करते हुए रतन कहती हैं- जब से आंख खोली है, मां को छठ करते हुए देखा है. घर पर शादी सा माहौल रहता है. भोर (अल सुबह) लोकगीत के साथ ठेकुआ बनाना, घाट में जाने के लिए तैयार होना. मजा तब आता है कि सुबह वाले अर्घ के दौरान हम सभी नहाने के बाद अगर वॉशरूम जाते, तो दोबारा नहाना पड़ता था. उस वक्त कंट्रोल करना और उसपर कजिन्स की टांग खींचना, फिर ट्रक में सवार होकर घाट जाना, ये सब यादें आज भी ताजा हो जाती हैं. इसके अलावा घाट को छेंकने का रोल होता था, वो तो किसी जंग से कम नहीं होता था. गमछा रखकर एक किनारे पर अपना अधिकार जमाना, पास के परिवार से अनबन, उफ्फ.. हालांकि मेरे घर पर अब छत पर ही घाट बना दिया गया था. पापा के जाने के बाद घर की छत पर बने घाट को टूटते देख मेरा दिल बहुत रोया था.
रतन ने कहा- मजे की एक और बात है, बिहार में जिन गली के लड़कों से आप हमेशा डरते रहे हो, वो छठ के मौके पर एक अलग अवतार में होते हैं. हाथों में झाड़ू, सफाई का समान लेकर नजर आते हैं और उनकी नजरें भी झुकी होती हैं. मैं तो कहूंगी कि लड़कियां सबसे ज्यादा सेफ इसी मौके पर होती हैं.
मुंबई में छठ पूजा सेलिब्रेशन पर रतन कहती हैं- मां जब करती थी, तो मेरी हमेशा कोशिश रहती थी कि मैं उस वक्त पटना में रहूं. जब भी कॉन्ट्रैक्ट साइन करती, तो उन्हें चार दिन की छुट्टी का पहले से ही बता देती थी कि मैं उन चार दिनों डेट्स नहीं दे पाऊंगी. अब घर पर होता नहीं, तो मेरे जाने का मतलब नहीं. इस साल मैं मॉर्निंग में जुहू जाकर अर्घ दूंगी और लोगों से प्रसाद मांगकर खा लूंगी. इस वक्त मांगने में बड़ा मजा आता है, आप अपने ईगो को साइड रखते हैं, यही इस पर्व की खूबसूरती है.