
टीवी जगत में मामाजी के नाम से घर-घर में फेमस हुए परितोष त्रिपाठी बचपन से ही एक्टर बनने का सपना देखा करते थे. एक्टिंग के प्रति जुनून ही कहें कि पारितोष ने बहुत ही कम उम्र में अपने कस्बे में होने वाले नुक्कड़ नाटक में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना शुरू कर दिया था. रामलीला में कभी राक्षस तो कभी वानर सेना के छोटे से रोल को भी परितोष ने उतनी ही मेहनत और सिद्दत से किया, जितनी जान वे आज मामा जी के किरदार में फूंकते हैं.
आपको बता दें दर्शकों के ये मामा जी ने हाल ही में मुकेश जासूस से अपना डिजीटल डेब्यू किया है. इस शो में उनके किरदार मुक्ताराम को फैंस का भरपूर प्यार भी मिल रहा है. आज सफलता की ओर लगातार बढ़ रहे मामाजी के लिए मुंबई का सफर इतना आसान नहीं था. अपने स्ट्रगल के दिनों को यादकर परितोष भावुक हो जाते हैं और बताते हैं कि शायद उनके स्ट्रगल ने ही उनके अंदर के ठेटपन को जाने नहीं दिया है.
हजारों बार सुन चुका हूं नॉट फिट
मैं दिल्ली से ट्रेन लेकर से मुंबई आया था, उस वक्त केवल एक्टिंग का भूत सवार था. मुझे लगा यहां, भी मेरे लिए राहें आसान होंगी. लेकिन वो कहते हैं न, हकीकत सपनों से कहीं ज्यादा कठोर होती है. यहां रियेलिटी चेक मिला, अबतक मैंने कितनी बार नॉट फिट सुना होगा, जिसे मैं बयां नहीं कर सकता. जब भी ऑडिशन के लिए जाता, मुझे उपर से नीचे देखते और नॉट फिट कहकर वापस भेज देते. गुस्सा बहुत आता था कि मेरा काम देखे बिना ही नॉट फिट कैसे कह दिया. रोजाना 6 से सात ऑडिशन में नॉट फिट सुनकर आता और चुपचाप घर पर रोता हुआ सो जाता था. हालांकि हिम्मत कभी नहीं हारी. मैं पहले मीरा रोड में 6 लड़कों साथ अपना रूम शेयर किया करता था. पैसे की किल्लत की वजह से हम 2 बीएचके में 6 लोग रहते थे.
सात सौ रूपये के लिए किया था पहला शो
मैं उस वक्त बस कैमरे में दिखने का लालच सवार था. वो कहते हैं न, बेगर्स कान्ट बी चूजर्स.. मुझे कुछ भी मिलता, तो मैं कर लेता. मजे की बात है आज जिस चैनल में मैं लगातार चार साल से होस्टिंग कर रहा हूं, उसी चैनल के एक शो में काफी मशक्कत के बाद एक दिन का रोल मिला था. उस एक दिन के रोल के लिए मुझे सात सौ रूपये दिए गए थे. इसी तरह मुंबई में सरवाइव करने के लिए मैंने क्राइम पेट्रोल जैसे कई शोज में एक से दो दिन का काम किया है. हालांकि परिवार का सपोर्ट इस दौरान पूरा रहा, उन्होंने कभी हार मानने नहीं दिया. मैं एक साधारण से मीडिल क्लास फैमिली से हूं. मेरी बहन उस समय मुझे अपने स्कॉलरशिप से मिले पैसे से मुंबई का खर्चा भेजा करती थी. मुझे याद है एक बार मेरा जन्मदिन पड़ा था, पैसे तो थे नहीं कि मैं सेलिब्रेट कर सकूं. उसने पैसे भिजवाकर कहा था कि जा जाकर एक शर्ट खरीद ले क्योंकि जन्मदिन में नये कपड़े पहनने का रिवाज है. अब भी स्ट्रगल के दिनों को भूला नहीं हूं और यही वजह है मेरे अंदर का ठेटपन जाता नहीं है. कोशिश यही रहती है कि मैं अपने उन अनुभवों को लिख सकूं. शायद यही वजह है कि कई लोग मेरी कविताओं से खुद के दर्द को जोड़ पाते हैं.